हम आनंद लोक के वासी
मन ही सीमा है मानव की
पार है मन के खुला गगन,
ले जाता है खाई में यह
ऊपर इससे मुक्त पवन !
जो भी दंश है भीतर चुभता
जो भी हमें अभाव खल रहा,
जो भी पीड़ा हमें सताए
जो भी माँगे नहीं मिल रहा !
सब इसकी है कारगुजारी
मन है एक सधा व्यापारी,
इसके दांवपेंच जो समझे
पार हो गया वही खिलाड़ी !
हम आनंद लोक के वासी
यह हमको नीचे ले आता,
कभी दिखाता दिवास्वप्न यह
अपनी बातों में उलझाता !
सुख की आस बंधाता है मन
सुख आगे ही बढ़ता जाता,
थिर जो पल भर न रह सकता
कैसे उससे नर कुछ पाता !
घूम रहा हो चक्र सदा जो
कैसे बन सकता है आश्रय,
स्थिर, अचल एक सा प्रतिपल
वही स्रोत आनंद का सुखमय !
हम हैं एक ऊर्जा अविरत
स्वयं समर्थ, आप्तकाम हम,
मन छोटा सा ख्वाब दिखाए
डूब-डूब जाते उसमें हम !
स्वयं को भूल के पीड़ित होते
स्वयं की महिमा नहीं जानते,
सदा से हैं और सदा रहेंगे
भुला के यह हम रहे भागते !
मुक्ति तभी संभव है अपनी
मन के पार हुआ जब जाये
इससे जग को देखें चाहे,
यह न हममें जग भर पाए !