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बुधवार, सितंबर 18

प्रतीक्षा

प्रतीक्षा 

कान्हा गये गोकुल छोड़ 

उसके अगले दिन 

सुबह सूरज के जगने से पूर्व 

जग गई थीं आँखें 

तकतीं सूनी राह 

लकीरें खींचते स्वचालित हाथ 

फिर एक बार, बस एक बार 

तुम आओगे ? शायद तुम आओ 

कानों में मधुरिमा घोलती आवाज़ 

कागा की !

जैसे राधा का तन-मन 

बस उस एक आहट का प्यासा हो 

युगों से, युगों-युगों से 

उठे नयन उस ओर, हुए नम 

एकाएक प्रकट हुआ वह 

हाँ, वही था 

फिर हो गया लुप्त 

संभवतः दिया आश्वासन 

यहीं हूँ मैं !

यह यमुना, कदंब और बांसुरी 

अनोखे उपहार उसके 

हँस दीं आँखें राधा की 

विभोर मन, पागल होती वह 

संसार पाकर भी नहीं पाता 

और आँखें ढूँढ निकलती हैं 

स्वप्न ! सुनहरे-रूपहले स्वप्न 

जिन्हें सच होना ही है 

वे सच होंगे, प्रतीक्षा रंग लाएगी 

सूरज आएगा, धरती पीछे 

रचे जाएँगे गीत 

नये, अप्रतिम, अछूते 

हर युग में ! 


रविवार, सितंबर 16

तलाश



तलाश 

जाने किसकी प्रतीक्षा में सोते नहीं नयन
जाने किस घड़ी की आस में
जिए चले जाता है जीवन
शायद वह स्वयं ही प्यास बनकर भीतर प्रकटा है
अपनी ही चाहत में कोई प्राण अटका है
सब होकर भी जब कुछ भी नहीं पास अपने
नहीं लुभाते अब परियों के भी सपने
इस जगत का सारा मायाजाल देख लिया
उस जगत का सारा इंद्रजाल भी चूक गया
मन कहीं नहीं टिका.. अब कौन सा पड़ाव ?
किस वृक्ष की घनी छाँव
कैसे मिलेगा मन का वह भाव
या फिर मन ही खो जाने को है
अब अंतिम सांसे गिनता है
अब यह पीड़ा भी कहनी होगी
जीने से पहले मरने की क्रीड़ा तो सहनी होगी
दिल की गहराई में जो वीणा बजती है
जहाँ से डोर जीवन की बढ़ती है
उस अतल में जाना होगा
असीम निर्जन में स्वयं को ठहराना होगा..
जब कोई तलाश बाकी नहीं रहती
तभी अक्सर खुल जाता है द्वार
जिस अनजाने लोक का...

सोमवार, अक्टूबर 26

मौन की नदी

मौन की नदी

तेरे और मेरे मध्य कौन सी थी रुकावट
दिन-रात जब आती थी तेरे कदमों की आहट
तब राह रोक खड़ी हो जाती थी मेरी ही घबराहट !
कहाँ तुझे बिठाना है, क्या-क्या दिखलाना है
बस इसी प्रतीक्षा में... दिन गुजरते रहे
तुझे पाने के स्वप्न मन में पलते रहे
एक मदहोशी थी इस ख्याल में
तू आयेगा इक दिन इस बात में
और आज वह आस टूटी है
हर कशमकश दिल से छूटी है
अब न तलाश बाकी है न जुस्तजू तेरी
कोई आवाज भी नहीं आती मेरी
खोजी थे जो.. कहीं नहीं हैं वे नयन
शेष अब न विरह कोई न वह लगन ! 

सोमवार, अक्टूबर 5

प्रतीक्षा

प्रतीक्षा 

प्रतीक्षा का एक मौन क्षण
जहाँ कोई स्पंदन नहीं
उसका द्वार है
प्रतीक्षा यदि मिली हो थकहार कर
तो मिल जाती है पगडंडी वह
जिस पर चलना नहीं होता
कदम रखते ही अहसास होता है
मंजिल का
प्रतीक्षा पावन है 

सोमवार, अगस्त 1

वह आज भी प्रतीक्षा रत है..


वह आज भी प्रतीक्षा रत है..

लुकाछिपी खेलने वाले बच्चों में
एक जन छिप गया दूर सबकी नजरों से
ऐसी जगह, जहाँ ढूँढ न सका कोई भी उसे
कुछ देर वे ढूँढते रहे थे
फिर ढलती शाम देख
जाने लगे एक-एक कर
भूल ही गए अपने उस सखा को,
जो छिपा था दूर बड़े पाषाण के पीछे
गुल्म-लताएँ उग आयी थीं जिसके चहुँ ओर
मन ही मन था वह प्रतीक्षारत अपने साथियों का
जिनमें से एक व्यस्त था
पथ पर आते-जाते वाहनों को निहारने में
दूसरा खिलौनेवाले की बंसी की धुन में खो गया था
एक स्वादिष्ट व्यंजन की तलाश में खिंचा चला गया
खोमचेवालों की तरफ
और किसी को उसकी माँ सहलाते हुए ले गयी
कोई मित्र से झगड़ने में हो गया मशगूल
यानि की हर कोई गया भूल
 उस साथी को
जो शाम ढलने तक करता रहा था प्रतीक्षा
और शायद हर रोज करता रहेगा....
.......
.......
क्यों न हम ही उसे ढूँढें !