सोमवार, दिसंबर 22

फूलों की घाटी और हेमकुंड की यात्रा - ३

फूलों की घाटी और हेमकुंड की यात्रा

अंतिम भाग


४ सितंबर २०२५ 

आज सुबह साढ़े आठ बजे हम बद्रीनाथ के लिए रवाना हुए। सर्वप्रथम विष्णुप्रयाग पर रुके, जो जोशीमठ के निकट ही गढ़वाल और तिब्बत सीमा पर नीति दर्रे से निकलने वाली धौली गंगा और अलकनंदा के संगम स्थल पर स्थित एक तीर्थस्थान है। गाइड ने वहाँ पैदल जाने वाला वह रास्ता भी दिखाया, जिससे आधी सदी पहले लोग जाया करते थे। बद्रीनाथ पहुँचे तो चारों और हिमालय के उच्च शिखर दिखायी दिये, जिन पर ताजी बर्फ गिरी थी, जो चाँदी की तरह चमक रही थी। मंदिर के कपाट अभी बंद थे, सो हम भारत का प्रथम गाँव ‘माना’ देखने चले गये। वहाँ व्यास गुफा, गणेश गुफा तथा सरस्वती नदी का स्रोत देखा। सब कुछ अति विस्मय से भर देने वाला था। पाँच पाण्डवों, युधिष्ठर के कुत्ते तथा द्रौपदी की मूर्तियाँ भी वहाँ लगी थीं, उन्हें स्वर्ग के लिए प्रस्थान करते हुए दिखाया गया था। दोपहर के भोजन में शारदेश्वर होटल में स्वादिष्ट मक्की की रोटी व सरसों का साग ग्रहण किया। हम पुन: मंदिर पहुँचे तो पता चला तीन बजे कपाट खुलेंगे, द्वार के सामने सीढ़ियों पर हम प्रतीक्षा करते हुए बैठे रहे। जब मंदिर का द्वार खुला पुजारी जी ने घंटनाद किया, जो काफ़ी देर तक चला और उसकी ध्वनि पूरे शहर में गूँजने लगी। दर्शन के बाद वापसी की यात्रा आरम्भ की। ड्राइवर ने हनुमान चट्टी के दर्शन दूर से ही कराये। शाम को साढ़े चार बजे हम वापस निवास स्थान पर लौट आये।



५ सितम्बर २०२५

आज सुबह भी साढ़े आठ बजे हम सुरजीत की गाड़ी में गोविंद घाट के लिए रवाना हुए। गोविंदघाट से जो पुल पुलना की तरफ़ जाता है, उसे पैदल ही पार करना होता है। हमारे बैग एक पिट्ठू वाले ने उठा लिए। वहाँ से एक जीप में बैठकर हम पुलना के लिए रवाना हुए। पिट्ठू वाला भी जीप में हमारे साथ ही बैठ गया। पुलना से हम घोड़े पर बैठकर घांघरिया पहुँच गये।पिट्ठू वाला सभी सामान पीठ पर टंगी टोकरी में रखकर ले आया। हमारा गाइड जेडी पैदल ही आया।रास्ते में कई पैदल यात्री भी मिले, अब उनमें से कुछ कल फूलों की घाटी में भी मिल सकते हैं। यहाँ भी हम ब्लू पॉपी के टेंट में ठहरे हैं। टेंट में सभी सुविधाएँ हैं, बिजली आ-जा रही है। दोनों समय का भोजन शंकर ने बनाया, भजन सिंह यहाँ का मैनेजर है। शाम को घांघरिया बाज़ार तक घूमने गये। कुछ फ्रिज मैगनेट ख़रीदे। कल सुबह साढ़े छह बजे हमें निकलना है। फूलों की घाटी जाने का स्वप्न साकार होने वाला है। 


 


७ सितंबर २०२५ 

कल शाम हम लौटे तो मन एक विचित्र उल्लास का अनुभव कर रहा था। फूलों से भला किसे प्रेम नहीं होगा और जब फूल ऐसे हों जो हिमालय की उच्च घाटियों में न जाने कब से अपने आप ही खिल जाते हैं। जिनके रंग और आकार सदियों से पर्यटकों और वनस्पति शास्त्र के वैज्ञानिकों को आकर्षित करते रहे हैं। लगभग चार दशक पूर्व स्कूल के दिनों में एक बार यहाँ आने का अवसर  मिला था। उस समय देखी फूलों की घाटी की स्मृति मन में कहीं गहरे बसी थी। ब्रह्म कमल की भीनी सुगंध और भोज पत्रों की छुवन मन की परतों में छिपी थी। उन पहाड़ों में की गयी यात्रायें दशकों तक बुलाती रहीं। उन दिनों हम चमोली ज़िले के गोपेश्वर नामक स्थान में रहते थे। आज वह पल पुन: आया, जब हिमालय ने अपने प्रांगण में बुलाया।बादलों की धूप-छाँव के मध्य फूलों की घाटी तक का सफ़र यादगार बन गया है, रास्ते भर अनेक झरने व तेज गति से दौड़ती पुष्पा नदी  के दर्शन हुए। पगडंडियों के किनारे फूलों के वृक्ष, हरी-भरी घाटियाँ और बर्फ से ढकी चोटियाँ अपनी छवि बिखेर रही थीं। वापस आकर हमने गर्म पानी में पैर डाले, स्नान किया और फिर जल्दी भोजन खाकर विश्राम करने चले गये। आज हमें पंद्रह हज़ार फ़ीट की ऊँचाई पर स्थित हिंदुओं व सिखों के पवित्र तीर्थ स्थल, लक्ष्मण मंदिर व हेमकुण्ड साहब जाना है। यात्रा कठिन है, इसलिए पैदल न जाकर हमने घोड़ों पर जाने का फ़ैसला किया है। 


८ सितंबर २०२५ 

हमने सुबह जल्दी ही यात्रा आरम्भ कर दी थी। हेमकुंड तीर्थ स्थल में रात्रि को ठहरने की कोई सुविधा नहीं है इसलिए यात्रियों को दोपहर दो बजे वापस आना पड़ता है।मध्य में दो बार रुक कर लगभग चार घंटों की यात्रा के बाद हम गुरुद्वारे पहुँच गये। हेमकुंड की यात्रा भी एक बार वर्षों पूर्व की थी। मन में बर्फ से जमी एक झील और ब्रह्म कमल की याद सबसे मुखर थी। इस बार भी ब्रह्म कमल के दर्शन हुए, झील के किनारे कई गमलों में उसके पौधे लगाये हुए थे, उनमें से कुछ सूख गये थे, पर उसकी गरिमा में कोई कमी नहीं आयी थी।हमने गुरुद्वारे में कदम रखा तो देखा, वहाँ दीवार से सटे हुए कंबलों के ढेर रखे हैं, यात्री कंबल ओढ़कर ही बैठते हैं। हमने भी कुछ देर शबद कीर्तन सुना और प्रसाद का कूपन लेकर नीचे हॉल में आये, जहाँ चाय व खिचड़ी का लंगर बंट रहा था।वह गर्म प्रसाद ही हमारा दिन का भोजन था।निकट ही लक्ष्मण मंदिर था तथा नंदा देवी का मंदिर भी। लक्ष्मण को यहाँ लोकपाल माना जाता है। सतयुग में शेषनाग के रूप में और द्वापर में बलराम के रूप में उन्होंने यहीं तपस्या की थी। सिखों के दसवें गुरु, गुरु गोविंद सिंह ने अपने पूर्व जन्म में यहाँ तपस्या की थी। कहा जाता है, जब महिषासुर औरंगज़ेब के रूप में जन्म लेने वाला था, तब उन्हें भारत में जन्म लेने के लिए कहा गया। इतिहास और पुराण की इन गाथाओं को सुनकर लगता है, न जाने कितनी अदृश्य सत्ताएँ इस विश्व को चला रही हैं।ऐसे में मानव व्यर्थ ही स्वयं को कर्ता धर्ता मानता है। मन में अनेक मधुर स्मृतियों को लिए अगले दिन सुबह हम देहरादून के लिए रवाना हुए, मार्ग में कुछ स्थानों पर भू स्खलन के कारण कुछ देर रुकना पड़ा, पर शाम होने से पूर्व ही हम मंज़िल पर पहुँच गये। 





शनिवार, दिसंबर 20

फूलों की घाटी और हेमकुंड की यात्रा - २


फूलों की घाटी और हेमकुंड की यात्रा

दूसरा भाग




२ सितंबर २०२५

आज सुबह हम पंछियों के कलरव से उठ गये थे। रात्रि के सन्नाटे में नदियों की कलकल भी आ रही थी। कमरे से बाहर निकल कर टहलने गये, हवा शीतल थी और बहुत महीन हल्की सी फुहार पड़ रही थी। पहाड़ों की शुद्ध हवा जैसे भीतर तक ताजगी भर रही थी।नौ बजे हम आज की पहाड़ी यात्रा के लिए रवाना हुए। ड्राइवर सुरजीत सिंह घुमावदार रास्तों पर गाड़ी दौड़ाता हुआ दस हज़ार फ़ीट पर स्थित औली ले गया। यहाँ भी ब्लू पॉपी का एक रिज़ार्ट है। वहाँ से एक गाइड हमारे साथ हो लिया। हमारा लक्ष्य था गॉर्सन बुग्याल।गॉर्सन बुग्याल अल्पाइन घास का एक खूबसूरत मैदान है, जो हरे-भरे परिदृश्यों, ओक और देवदार के जंगलों और बर्फ से ढकी हिमालयी चोटियों के मनमोहक दृश्यों के लिए प्रसिद्ध है, और यह गर्मियों में ट्रेकिंग व कैम्पिंग तथा सर्दियों में स्कीइंग के लिए एक लोकप्रिय स्थल है।बादलों के कारण हमें हिमशिखरों के दर्शन नहीं हुए, जिसके लिए यह स्थान प्रसिद्ध है। नंदा देवी, माना पर्वत, दूनगिरी जैसी चोटियों का मनोरम दृश्य यहाँ से दिखायी देता है।चेयर लिफ्ट से हम काफ़ी ऊँचाई तक पहुँच गये, जहाँ से असली पैदल चढ़ाई की शुरुआत होनी थी। वर्षा के कारण रास्ता कीचड़ भरा था, मैदान में  पशुओं के आने-जाने से गोबर पड़ा था, वहाँ दलदल सी हो गई थी; किंतु हम इन सब बाधाओं के लिए तैयार होकर आये थे, रेनकोट, ऐसे जूते जिसमें पानी का असर न हो, बड़ी सी हैट आदि सामानों से लैस होकर हम पक्के पर्वतारोही के भाव में भरे हुए थे। प्रकृति का ऐसा साथ जिसमें आकाश, भूमि, हवा, जल और वृक्ष सभी भीग रहे हों, हमें आगे बढ़ने से कैसे रोक सकता था। फारेस्ट गेट तक पहुँचते-पहुँचते हरे-भरे घास के मैदान दिखने लगे, जो हिमाचल व कश्मीर के चारागाहों की याद दिला रहे थे। मार्ग में हमने कई अनोखे फूलों के दर्शन किए, उनके चित्र लिए। पहाड़ों से बहती हुई अनेक छोटी-बड़ी जल धाराएँ आ रही थीं, जिन्हें भी पार करना था। दोपहर बाद लगभग भीगे हुए हम वापस पहुँच गये। दोपहर के भोजन में अन्य पदार्थों के अलावा भरवाँ बैंगन की सब्ज़ी व मसूर की साबुत दाल विशेष बनी थी। शाम को भी वर्षा की छुटपुट रिमझिम जारी रही।



३ सितंबर २०२५ 

आज सुबह भी नींद चार बजे खुल गई। मन उदात्त भावों से भरा था, ‘हिमालय’ पर चार कविताएँ लिखीं। कल सुबह यदि समय मिला तो कुछ और सृजन कार्य हो सकता है। आज भी नाश्ते में पोहा था, जिसमें हरे मटर तथा मूँगफली पड़े थे। साढ़े नौ बजे हम स्थानीय मंदिर देखने निकले। सबसे पहले आदि शंकराचार्य ज्योतिर्मठ गये। जहाँ पुजारी श्री विष्णु प्रियानंद जी ने मंदिर के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी दी। इस मठ में चौंसठ योगिनियों की मूर्तियाँ हैं, उनके नाम भी लिखे हैं। वे आदि शक्ति ललिताम्बा की अनुचरियाँ हैं। जिन्हें त्रिपुर सुंदरी भी कहते हैं, वह दस महाविद्याओं में से एक षोडशी विद्या हैं। ‘सौंदर्य लहरी’ में आदि शंकराचार्य ने उन्हीं की वंदना की है। नवरात्रि में पूजे जाने वाले देवी के नौ रूप पार्वती के नौ रूप हैं। हमने त्रिपुरा देवी के दर्शन भी किए तथा वह गुफा भी देखी, जहाँ आदि शंकराचार्य ने तपस्या की थी। बारह सौ वर्ष पुराने प्राचीन कल्पवृक्ष के दर्शन भी हुए। जिसके नीचे उन्होंने ज्ञान ज्योति पायी थी।यह मठ अद्वैत के चिंतन और अध्ययन को समर्पित है। उन्होंने शंकर भाष्य की रचना भी यहीं की थी। ‘त्रोटकाचार्य’ आदि शंकराचार्य के शिष्य थे, जो उनके जाने के बाद प्रथम आचार्य हुए। निकट स्थित महादेव के एक मंदिर में अखंड ज्योति जल रही थी, जहाँ सभी भक्तगण प्रसाद की जगह केवल तेल चढ़ाते हैं। इसके बाद नरसिंह भगवान के विशाल मंदिर में गये।मान्यता है कि नरसिंह भगवान ने यहाँ योग किया और शांत भाव को प्राप्त हुए। सदियों पूर्व कर्नाटक से आये डिमरी ब्राह्मण इस मंदिर के पुजारी हैं।इसके प्रांगण में हनुमान, गौरी शंकर, गणेश, देवी और सूर्य को समर्पित कई अन्य मंदिर भी हैं। पुजारी लक्ष्मी नारायण जी ने कहा, आगामी नवरात्र में वे हमारे लिए भी पूजा करेंगे। उन्होंने फ़ोन नंबर ले लिए है, मठ में होने वाले कार्यक्रमों की जानकारी भी देते रहेंगे। हम वहाँ दर्शन कर ही रहे थे कि पुत्र का फ़ोन भी आ गया था, वीडियो कॉल के माध्यम से उसे भी मठ के दर्शन करा दिये।


उसके बाद निकट के बाज़ार से कुछ स्थानीय दालें तथा सब्ज़ियों के बीज ख़रीदे।दोपहर का भोजन वापस आकर किया। शाम को होटल के पीछे वाली सड़क से नीचे उतरते हुए नदी के कुछ चित्र लिए।मौसम ख़राब होने के कारण पिछले चार दिनों से बद्रीनाथ व अन्य पर्यटन स्थल जाने का मार्ग बंद है।शाम को ज्ञात हुआ, आज इसी रिज़ौर्ट में बद्रीनाथ से एक समूह लौटा है, शायद कल हम भी जा सकेंगे। 



गुरुवार, दिसंबर 18

फूलों की घाटी और हेमकुंड की यात्रा - १

    फूलों की घाटी और हेमकुंड की यात्रा

पहला भाग


१ सितम्बर २०२५ 


हमारी यात्रा अगस्त माह के अंतिम दिवस शुरू हुई।सुबह साढ़े सात बजे हम घर से चले। आरामदायक हवाई यात्रा के बाद दोपहर बाद देहरादून पहुँच गये। दीदी-जीजा जी के यहाँ सदा की तरह शानदार स्वागत हुआ। उनकी गृह सहायिका समोसे व कलाकंद ले आयी थी। हमने कुछ देर दीदी-जीजा जी के पुराने फ़ोटो देखे। दीदी के लिखे जीवन के कई पुराने प्रसंग पढ़े। बगीचे में चहलक़दमी की और फूलों की तस्वीरें उतारीं। रात्रि भोजन में कढ़ी-चावल, लौकी की विशेष सब्ज़ी और नमकीन सेवियाँ भी थीं। रह-रह कर वर्षा की टिप-टिप आरम्भ हो जाती थी, लेकिन  रात भर वर्षा रुकी रही। सुबह पाँच बजे ही हम तैयार हो गये थे। दीदी ने नाश्ता बना कर दे दिया  था। देहरादून से ऋषिकेश होते हुए सबसे पहले हम देवप्रयाग पहुँचे, जहां सतोपंथ ग्लेशियर से निकलने वाली अलकनंदा व गोमुख से निकलने वाली भागीरथी नदी का संगम होता है। इसके बाद इनका नाम गंगा हो जाता है। इसके बाद श्रीनगर आया जो अलकनंदा के तट पर बसा गढ़वाल क्षेत्र का एक महत्वपूर्ण बड़ा शहर है। रुद्रप्रयाग में अलकनंदा व सुमेरु ग्लेशियर से निकलने वाली मंदाकिनी नदी का संगम होता है। पिछले दिनों रुद्रप्रयाग में बादल फटने से हुई अत्यधिक वर्षा के कारण काफ़ी नुक़सान हुआ था। जिसके कारण हमें यात्रा स्थगित करने का विचार भी आया था। अगला स्थान था कर्णप्रयाग, जो अलकनंदा व पिंडारी ग्लेशियर से आने वाली पिंडर नदी के संगम पर बसा है।नंदप्रयाग में नन्दाकिनी ग्लेशियर से आने वाली नन्दाकिनी व अलकनंदा नदी का संगम होता है। नदियों का पानी वर्षा के कारण मटमैला था, पर दूर से वेगपूर्वक आते हुए वे कभी चाँदी के समान कभी दूध की तरह श्वेत भी प्रतीत हो रही थीं। पीपलकोटि पहुँचे तो दोपहर के भोजन का समय हो गया था।नाश्ता हमने ऋषिकेश में ही कर लिया था।रास्ते में कई जगहों पर भूस्खलन के कारण मलबा पड़ा था। जिसे हटाने का कार्य भी साथ-साथ ही चल रहा था।फूलों की घाटी और हेमकुंड की यात्रा हमारे मनों में बसा एक सुंदर स्वप्न था, जो आज साकार होने जा रहा था।हमारा लक्ष्य था औली में स्थित ‘ब्लू पॉपी आवास’।वही औली, जहाँ शीतकालीन खेलों का आयोजन होता है। किंतु ड्राइवर ने बताया, किसी कारण वश ब्लू पॉपी के मैनेजर ने कार्यक्रम में थोड़ा सा बदलाव किया है, अब हमें जोशीमठ जाना है और कल औली। ग्यारह घंटे की यात्रा के बाद शाम को सवा चार बजे हम जोशीमठ पहुँचे गये।औली और जोशीमठ के बीच केवल तेरह किमी की दूरी है। 


ऋषिकेश से लगभग ढाई सौ किमी दूर तीन हज़ार साल पुराना शहर है जोशीमठ, जिसका दूसरा नाम ज्योतिर्मठ है।यह त्रिशूल पर्वत की ढाल पर अलकनंदा के किनारे बसा हुआ है। इसके दोनों ओर बद्री तथा कामत शिखर हैं। आठवीं शताब्दी में यहाँ आदि शंकराचार्य ने एक मठ की स्थापना की थी, जो उन चार मठों में से एक है, जिन्हें उन्होंने भारत की चार दिशाओं में स्थापित किया था। यह मठ बद्री भगवान का शीतकालीन निवास है। सर्दियों में आदि शंकराचार्य द्वारा ही स्थापित बद्रीनाथ मंदिर के कपाट बंद हो जाने के बाद देवमूर्ति जोशीमठ के वासुदेव मंदिर में लायी जाती है। बद्रीनाथ से आये नंबूदरीपाद ब्राह्मण छह माह यहीं बिताते हैं।जोशीमठ से २६ किमी दूर गोविंद घाट से यात्रा का ट्रैक आरम्भ होता है जो घांघरिया तक ले जाता है।जहाँ से फूलों की घाटी व हेमकुंड जाया जा सकता है। प्राचीन ग्रंथों में जोशीमठ को कार्तिकेय पुर के नाम से भी लिखा गया है।जो कत्यूरी राजाओं के देवता हैं। यह मलारी और नीति घाटियों का प्रवेश द्वार भी है। इससे कुछ दूरी पर नंदा देवी बायोस्फ़ियर है, जो यूनेस्को द्वारा विश्व धरोहर स्थल घोषित किया गया है। 



जोशीमठ में स्थित ब्लू पॉपी रिज़ौर्ट पहुँचे तो वहाँ की सुंदरता ने हमारा मन मोह लिया। फूलों से भरे सुंदर बगीचे और हरे-भरे लॉन, कमरे की पिछली बालकनी से दिखती हिमालय की चोटियाँ और धौली व अलकनंदा नदियों का संगम स्थल ! रूई के समान बादलों के पुंज ऊपर उठे और देखते ही देखते सारे पहाड़ विलीन हो गये, केवल एक श्वेत चादर सम्मुख रह गई।पर्यटकों के लिए सभी सुविधाओं से युक्त था यह रिज़ौर्ट। हमने शाम की चाय पी और आस-पास का जायज़ा लेने निकल पड़े। 

क्रमश:

सोमवार, दिसंबर 1

शांति सरवर मन बने

शांति सरवर मन बने



शांत मन ही ध्यान है 

ईश का वरदान है, 

सिंधु की गहराइयाँ 

अनंत की उड़ान है !


आत्मा के द्वार पर 

ध्यान का हीरा जड़ें,

ईश चरणों  में रखी  

भाग्य रेखा ख़ुद पढ़ें !


 जले भीतर ज्ञान अग्नि

 शांति सरवर मन बने,

अवधान उपज प्रेम से, 

कर्म को नव दिशा दे !


लौट आये उर सदन 

ऊर्ध्वगामी गति मिले,  

टूट जायें सब हदें 

फूल अनहद के खिलें !  


शनिवार, नवंबर 29

रामायण - मिथक से परे इतिहास की झलक -अंतिम भाग


रामायण - मिथक से परे इतिहास की झलक 

(अंतिम भाग)

कल हम जाफना से कोलंबो के लिए रवाना हुए, यात्रा लंबी थी, लगभग ग्यारह घंटे बस में बिताने पड़े। मध्य में चार बार कुछ देर का अवकाश लिया। सुबह रेलवे स्टेशन तक टहलने गये थे, फूलों की तस्वीरें उतारीं। नाश्ते के बाद यात्रा आरम्भ हुई। मार्ग में दोनों ओर दूर तक जल ही जल था और मध्य में सीधी जाती हुई सड़क, जिसे कॉज वे कहते हैं। कॉज वे पर जाते हुए एक अनोखा अनुभव हो रहा था, मानो हम पानी की सतह पर ही यात्रा कर रहे हैं। जल में कहीं-कहीं छोटे-छोटे हरे द्वीप नज़र आते थे। दोपहर के भोजन से पूर्व माधवानंद जी ने एक-एक करके सभी यात्रियों से अपना परिचय देने को कहा, यदि संभव हो तो कोई गीत या भजन सुनाने को भी कहा। कुछ महिलाओं ने भजन सुनाये। सभी को सुनकर आश्चर्य और हर्ष हुआ, जब ज्ञात हुआ कि यात्रियों में एक नभ सेना का उच्च अधिकारी है, एक राजनीति में है, कोई बड़ा व्यापारी है और एक जन यातायात नियंत्रक भी थे। किसी सीनियर सिटीज़न होम से भी चार महिलाएँ आयी थीं। उनमें से दो के पुत्र बैंगलोर में रहते हैं, पर उन्होंने परिवार में रहने की बजाय अपने हम उम्र लोगों के साथ रहना पसंद किया।मैंने एक हिन्दी कविता तथा उसका कन्नड़ भाषा में किया अनुवाद पढ़कर सुनाया। ऐसा लग रहा था कि सभी यात्रियों में भक्ति-भावना भरी हुई थी, तभी तो वे रामायण यात्रा पर आये थे। लंच के बाद जब यात्रा फिर आरम्भ हुई तो कुछ लोग अन्ताक्षरी  खेलने लगे। एक व्यक्ति किशोर कुमार के प्रशंसक थे, उन्होंने अनेक पुराने गीत सुनाकर समां बांध दिया, तब तो सभी में एक से बढ़कर एक पुराने गाने गाने की होड़ लग गई। कन्नड़ और हिन्दी दोनों ही भाषाओं में गीतों का सिलसिला चलता रहा, तब शाम की चाय का समय हो गया था। जिसके बाद नियमित संध्या करवायी गई, जिसमें नरसिंह भगवान का कीर्तन व महामंत्र का जाप हुआ।उसके बाद माधवानंद जी ने रामायण पर एक प्रश्नोत्तरी भी करवायी। जिससे इस महाकाव्य के बारे में सभी का ज्ञान बढ़ा।इस तरह आनंद पूर्वक समय बिताते हुए हम कोलंबो पहुँच गये। आज दिन में कोलंबो दर्शन करके रात को प्रेमदासा हवाई अड्डे पहुँचना है।जहाँ से रात्रि एक बजे की उड़ान से हम भारत पहुँच जाएँगे।  

आज सुबह साढ़े चार बजे हम घर लौट आये थे। वापसी की यात्रा सुखद रही। कल सुबह होटल से चेकआउट करके सबसे पहले कोलंबो के राधा-कृष्ण को समर्पित सुंदर इस्कॉन मंदिर देखने गये।पुजारी जी ने समूह का स्वागत किया और सभी आरती में सम्मिलित हुए। मंदिर में दशावतारों की सुंदर प्रतिमाएँ थीं।श्वेत अश्व पर सवार भगवान कल्कि के साथ भगवान बुद्धि की भी एक सुंदर प्रतिमा थी। कृष्ण व बलराम की एक प्रतिमा में गाय तथा मोर की प्रतिमाएँ सजीव जान पद रही थीं। मंदिर के कक्ष की छत पर भी शानदार चित्रकारी की गई थी। एक जगह रुक्मिणी और कृष्ण के विवाह की झांकी थी। एक दीवार पर बनी स्वर्ण मृग की ओर इंगित करती सीता व राम-लक्ष्मण की सुंदर मूर्तियाँ आकर्षित कर रही थीं।बल कृष्ण को रस्सी से बाँधती यशोदा और सागर पर सेतु बनाती वानर सेना के दृश्य भी मूर्ति कला का उत्कृष्ट उदाहरण हैं। 

इसके बाद हम केलानिया स्थित बौद्ध विहार में विभीषण मंदिर देखने गये। जो श्रीलंका के प्रसिद्ध केलानिया राजा महाविहार में स्थित है।कहा जाता है कि राजा मनिअक्खिखा द्वारा आमंत्रित किए जाने पर भगवान बुद्ध बुद्धत्व प्राप्त करने के पाँच वर्षों 500 भिक्षुओं के साथ बाद यहाँ आये थे।यह श्रीलंका के सबसे प्रमुख बौद्ध मंदिरों में से एक है। मंदिर का अहाता अति विशाल है, अनेक स्थानीय जान श्वेत वस्त्रों में वहाँ नीचे बैठकर ध्यान कर रहे थे। बुद्ध की उपदेश स्थली पर एक सुंदर स्तूप बना है।कई कक्षों में बुद्ध के जीवन को सुंदर चित्रों और मूर्तियों द्वारा दर्शाया गया है। यहाँ स्थित अवलोकितेश्वर की अठारह फुट ऊँची पाषाण प्रतिमा भी अपनी भव्यता से दर्शकों को विस्मित करती है।हमने यहाँ पहुँचकर देखा, अनेक स्थानीय भक्त यहाँ श्रद्धा प्रकट करने, तेल के दीपक जलाने और कमल के फूल चढ़ाने आये हुए थे,  जबकि पर्यटक कोने-कोने में व्याप्त शांतिपूर्ण ऊर्जा और श्रीलंका की समृद्ध विरासत की ओर आकर्षित हो रहे थे।भीतरी भवन में भगवान बुद्ध की लेटी हुई विशाल मूर्ति ने सभी को एक गहन शांति का अनुभव कराया। परिसर में स्थित बोधि वृक्ष भी अति सम्मानित है, जो बोधगया से ले जाये गये वृक्ष का एक अंश है। 

केलनिया के इस बौद्ध मंदिर परिसर में विभीषण का एक सम्मानजनक स्थान है। मान्यता है कि यह वही स्थान है जहाँ पूर्व काल में विभीषण का महल था।यहां विभीषण के राज्याभिषेक को दर्शाने वाले भित्तिचित्र भी बने हैं।विभीषण को श्रीलंका के चार संरक्षक देवताओं में से एक माना जाता है।हमने एक विशाल कक्ष में स्थापित विभीषण के एक सुंदर चित्र का दर्शन किया। जिसके एक ओर भगवान कार्तिकेय  तथा दूसरी ओर भगवान विष्णु के चित्र थे। संपूर्ण परिसर में श्रीलंका के राष्ट्रीय वृक्ष ‘ना’ वृक्ष लगे हुए हैं, जिन्हें सीलोन आयरनवुड भी कहा जाता है।ये देश के वर्षावनों में प्राकृतिक रूप से उगते  हैं और इनकी  कठोर लकड़ी से भारी निर्माण कार्य होता है।बौद्ध धर्म में भी इस वृक्ष को पवित्र माना जाता है।मंदिर के एक कक्ष की बाहरी दीवार पर विभीषण के राज्याभिषेक के दृश्यों को दर्शाया गया गया है। 

इसके बाद हम कोलंबो स्थित पंचमुखी हनुमान का मंदिर देखने गये। यह मंदिर लंका युद्ध के दौरान अहिरावण के वध के लिए भगवान हनुमान के अवतार से जुड़ा है। इसे श्रीलंका का पहला अंजनेयार मंदिर माना जाता है। लंका युद्ध के दौरान, अहिरावण ने राम और लक्ष्मण को पाताल लोक में बंदी बना लिया और उन्हें मारने के लिए पांच दीपक जलाए, जिनकी लौ बुझाई नहीं जा सकती थी।इन दीपकों को एक साथ बुझाने और राम-लक्ष्मण को बचाने के लिए, हनुमान जी ने पंचमुखी रूप धारण किया।उन्होंने पूर्व में वानर मुख,  पश्चिम में गरुड़ मुख, उत्तर में वराह मुख, दक्षिण में नृसिंह मुख, आकाश की ओर अश्व मुख (हयग्रीव) धारण किया। इस मंदिर में आने वाले भक्त यह मानते हैं कि उन्हें हर रोग और कष्ट से मुक्ति मिल जाती है, तथा मन में शक्ति का संचार होता है। 

श्रीलंका की इस यात्रा के बाद किसी भी भारतीय के मन में रामायण के इतिहास होने में कोई संदेह नहीं रह जाता है। इतिहास का अर्थ है ऐसा हुआ था, इसका अर्थ है रामायण में वर्णित घटनाएँ वास्तव में हुई थीं। आज जो भारत हम देखते हैं, भौगोलिक रूप से हज़ारों वर्ष पूर्व  उससे अति विशाल था।दक्षिण एशिया के कई देश तब भारत का अंग थे, जिसमें आज का श्रीलंका भी शामिल है।  


बुधवार, नवंबर 26

रामायण - मिथक से परे इतिहास की झलक -५

रामायण - मिथक से परे इतिहास की झलक 

भाग - ५

कल रात हम जाफना पहुँचे थे।जाफ़ना श्रीलंका के उत्तरी सिरे पर एक समतल, शुष्क प्रायद्वीप पर स्थित है। यह देश के बाकी हिस्सों से सड़क और रेलमार्ग द्वारा जुड़ा हुआ है। दक्षिण भारत के साथ इसका व्यापार होता है। 

यूरोपीय लोगों द्वारा विजय प्राप्त करने से पहले सदियों तक जाफ़ना एक तमिल साम्राज्य की राजधानी थी, और इस शहर में आज भी कई विशिष्ट तमिल सांस्कृतिक विशेषताएँ मौजूद हैं। जाफ़ना नाम एक तमिल शब्द का पुर्तगाली रूपांतर है जिसका अर्थ है "वीणा का बंदरगाह"। डच काल का एक किला और एक चर्च यहाँ आज भी मौजूद है, और किले के पास एक प्रसिद्ध हिंदू मंदिर, कंडास्वामी कोविल है।  

यहाँ का रेलवे स्टेशन ठीक हमारे होटल के सामने है। कल रात कमरे में सामान आदि व्यवस्थित करने के बाद कुछ देर के लिए टहलने गये। मुख्य इमारत के सामने कुछ खुला स्थान है, शायद पार्किंग के लिए। हम पहुँचे तो स्टेशन बंद हो चुका था।आज सुबह पुन: उसी स्थान पर प्रात: भ्रमण किया, एक महिला मिली जो अपना स्कूटर पार्क कर रही थी, उसे स्टेशन की कोई कर्मचारिणी समझ कर हमने बात आरम्भ की, तो पता चला वह लोकल ट्रेन से यात्रा करने आयी है।सुबह नाश्ते में तमिलनाडु दोसा खाया, जो बहुत ही पतला व कुरकुरा था।

साढ़े नौ बजे हम एक फेरी से नागमणि अथवा नागपूष्णी मंदिर (इंद्राक्षी देवी) देखने गये। जो नैनातिवू  द्वीप पर स्थित अति विशाल, भव्य, ऐतिहासिक मंदिर है।नागपूष्णी अम्मन मंदिर जाफना से 36 किलोमीटर दूर स्थित है। यहां माता सती की पायल गिरी थी। पार्वती को समर्पित चौसठ शक्तिपीठों से यह भी एक शक्ति पीठ है।यहाँ पार्वती को नागपूष्णी और भगवान शिव को रक्षेश्वर के रूप में पूजा जाता हैं। पार्वती देवी भुवनेश्वरी का सगुण रूप हैं। 

इस मंदिर में चार भव्य गोपुरम हैं। हर वर्ष जून और जुलाई में यहाँ  तिरुविल्ला महोत्सव मनाया जाता है।कहा जाता है कि लिंगम के साथ देवी नागपूष्णी की मूर्ति और राजा रावण की दस सिरों वाली  मूर्ति इस मंदिर के अतिरिक्त कहीं नहीं हैं।मंदिर के कक्ष में दीवारों पर सुंदर चित्र बनाए गये हैं। एक चित्र में देवी की नाभि से ब्रह्म जी का जन्म दिखाया गया है।माधवानंद जी ने इस मंदिर के बारे में कई कथाएँ भी हमें सुनायीं। गौतम ऋषि और इंद्र की कथा, जिसमें अहल्या को छलने के बाद इंद्र को शाप मिलता है। वह इसी स्थान पर तपस्या के द्वारा पार्वती देवी को प्रसन्न करता है तो देवी उसके शरीर पर हज़ार नेत्र उगने का वरदान देती हैं। इसलिए देवी को यहाँ इन्द्राक्षी नाम मिला। एक अन्य कथा के अनुसार इसी स्थान पर नाग माता सुरसा ने विराट रूप बनाकर हनुमान जी को रोका था, वह सूक्ष्म रूप धर कर उनके मुख में प्रवेश करके बाहर निकल आये थे।नागदीप में विहारया नामक महत्वपूर्ण बौद्ध तीर्थस्थल भी है।

एक अन्य किंवदंती में कहा गया है कि एक नाग  भुवनेश्वरी की पूजा के लिए अपने मुँह में कमल का फूल लेकर पास के तिवु द्वीप से नैनातिवु की ओर जा रहा था। एक गरुड़ ने नाग को देखा और उस पर हमला करके उसे मारने का प्रयास किया। चील के डर से, नाग ने नैनातिवु तट से लगभग आधा किलोमीटर दूर समुद्र में एक चट्टान के चारों ओर खुद को लपेट लिया। गरुड़ कुछ दूरी पर एक अन्य चट्टान पर खड़ा हो गया। चोल साम्राज्य के व्यापारी माणिकन, जो  भुवनेश्वरी के भक्त थे,  उन्होंने चील और सांप को चट्टानों पर बैठे देखा। उन्होंने चील से अनुरोध किया कि वह नाग को अपने रास्ते पर जाने दे। चील एक शर्त पर सहमत हुई कि व्यापारी को नैना तिवु द्वीप पर भुवनेश्वरी के लिए एक सुंदर मंदिर का निर्माण करना चाहिए और वह नागपूशनी अम्मन के रूप में उनकी पूजा का प्रचार करेगा। वह सहमत हो गया और तदनुसार एक सुंदर मंदिर बनाया। नागों के विरुद्ध अपने पापों का प्रायश्चित करने के लिए गरुड़ ने समुद्र में तीन बार डुबकी लगाई और इस प्रकार गरुड़ और नागों के बीच लंबे समय से चले आ रहे मनमुटाव समाप्त हो गए।

मंदिर से बाहर निकले तो हवा चल रही थी, फेरी तक जाने वाले मार्ग पर चलते समय हमने विशाल सागर में उठी लहरों की कई तस्वीरें खींचीं।एक व्यक्ति हारमोनिका पर कोई धुन बजा रहा था। कुछ कुत्ते, बकरियाँ और गायें भी वहाँ घूम रहे थे, जो भारत की याद दिला रहे थे। आते समय हम नाव में नीचे कक्ष में बैठे थे पर वापसी की यात्रा में डेक पर बैठकर हवा का आनंद लिया। दोपहर का भोजन होटल वापस आकर किया। 

शाम को साढ़े चार बजे हम कंदास्वामी मंदिर देखने गये। आज वहाँ एक स्थानीय उत्सव मनाया जा रह था। हज़ारों की संख्या में लोग आये हुए थे। कई महिलाएँ छोटी-छोटी पुस्तिकाओं में स्कन्द षष्ठी पढ़ रही थीं। कुछ अन्य अग्नि में कुछ पका रही थीं। बच्चे रेत में घरौंदे बना रहे थे। मंदिर में शंख, घंटे और संगीत की ध्वनियाँ गूंज रही थीं। हमारा पूरा समूह भी उसी भीड़ में शामिल हो गया। स्वामी जी ने कई रोचक गाथाएँ सुनायीं और मूर्तियों का महत्व बताया, वापसी के समय एक महिला नहीं मिलीं, सभी जन  कुछ देर के लिए परेशान हो गये, पर बाद में ज्ञात हुआ वह पहले ही भीड़ से बचकर बस के लिए चली गयीं थीं। इतनी भीड़-भाड़ में ऐसा होना स्वाभाविक ही था। 

इसके बाद हम त्रेता युग में भगवान राम द्वारा वानरों की प्यास बुझाने के लिए बने कूप को देखने गये, जिसे अतल कुँआ कहते हैं। जिसमें उन्नीस किमी दूर किसी जल स्रोत से निरंतर जल आता है। रात्रि भोजन एक शाकाहारी भोजनालय में किया, जिसका नाम था ‘मैंगो इण्डियन वेजीटेरियन रेस्टोरें’ वहाँ मीठा आम भी खाया। पूरे श्रीलंका में हर कहीं आम के वृक्ष फलों से लदे हुए हैं। कोलंबो शब्द का अर्थ भी है, आम के वृक्षों वाला बंदरगाह ! 



सोमवार, नवंबर 24

रामायण - मिथक से परे इतिहास की झलक - ४

रामायण - मिथक से परे इतिहास की झलक

भाग - ४

आज सुबह हम जल्दी उठ गये थे, साढ़े पाँच बजे समुद्र तट पर सूर्योदय देखने जाना था। बादलों के कारण सूर्यदेव के दर्शन तो नहीं हुए, पर हमने समुद्र स्नान का आनंद लिया। तट पर योगासन किए और भ्रमण  के साथ दौड़ भी लगायी। वृक्ष के एक तने पर बैठे हुए एक-दूसरे की तस्वीरें खींचीं।अब समूह के कुछ लोगों से परिचय बढ़ रहा है। साढ़े नौ बजे हम होटल से निकले तो पहला पड़ाव था भगवान विष्णु और देवी लक्ष्मी को समर्पित त्रिंकोमाली का लक्ष्मी नारायण पेरूमल कोविल मंदिर, जो एक भव्य मंदिर है।यह मंदिर भगवान विष्णु और देवी लक्ष्मी को समर्पित है और अपनी जटिल द्रविड़ वास्तुकला और आध्यात्मिक महत्व के लिए जाना जाता है। इस मंदिर में हिंदू पौराणिक कथाओं को दर्शाने वाली विस्तृत नक्काशीदार मूर्तियाँ हैं।मंदिर का वातावरण शांत और आध्यात्मिक था।इसके विशाल प्रांगण में हमने कुछ समय बिताया। 

इसके बाद हम शिव का प्रसिद्ध थिरुकोनेश्वर मंदिर देखने गये, यहाँ शंकरी देवी शक्ति पीठ भी है। इस स्थान को दक्षिण कैलाश भी कहते हैं।वहाँ शिव की अति सुंदर भव्य और विशाल प्रतिमा थी। ऐसी मान्यता है कि रावण ने इसका निर्माण कराया था। एक पौराणिक कथा के अनुसार पार्वती ने भवन निर्माण के लिए इस स्थान का चुनाव किया था। गृहप्रवेश की पूजा के लिए पार्वती ने रावण को आमंत्रित किया। रावण इस भव्य इमारत को देखकर मंत्रमुग्ध हो गया और दक्षिणा स्वरूप इस भवन की मांग कर दी। देवी पार्वती ने उसकी इच्छा पूर्ण की, पर बाद में उसे अपनी भूल का अहसास हुआ। उसने देवी से क्षमा मांगी तथा  प्रार्थना की कि वे यह स्थान छोड़ कर न जाएँ। पार्वती शंकरी देवी के रूप में यहीं स्थिर हो गयीं। भगवान शिव उनके संग यहाँ थिरुकोनेश्वर अर्थात पर्वतों के देव के रूप में निवास करते हैं।

इसी मंदिर के निकट एक ऐसी जगह और है जिसका नाम रावण से जुड़ा है।इसे रावण वेट्टा कहते हैं ।ऐसा माना जाता है कि रावण ने अपनी तलवार से इस चट्टान को काटा था। मंदिर के पीछे एक स्थान पर लकड़ी के कई छोटे छोटे पालने लटक रहे थे।माधवानंद जी ने बताया,  संतान प्राप्ति के लिए लोग यहाँ मन्नत माँगते हैं। 

शंकरी देवी मंदिर थिरुकोनेश्वर मंदिर के परिसर में ही स्थित है। वह चतुर्भुजी खड़ी मुद्रा में हैं। उनके चरणों के निकट ताम्बे का दो आयामी श्री चक्र है। वहीं उनकी प्रतिमा के सामने तीन आयामी श्री चक्र खड़ा है।ऐसी मान्यता है कि सती का एक पैर यहाँ गिरा था। आदि शंकराचार्य ने अपने एक स्तोत्र में अठारह शक्ति पीठों में सर्वप्रथम इसी शक्ति पीठ का उल्लेख किया है।हमने काफ़ी समय इस मंदिर के प्रांगण में बिताया और देवी की आरती में भी भाग लिया।दीवारों पर विभिन्न देवी-देवताओं की सुंदर आकृतियाँ बनी थीं। 

कुछ आगे जाकर हमने भद्रकाली मंदिर के दर्शन भी किए, जो नगर के मध्य स्थित था। बाहर से यह किसी  दक्षिण भारतीय मंदिर के समान दिखाई दे रहा था। प्रवेश द्वार से भीतर प्रवेश करते ही कक्ष में चारों ओर तीन आयामी मूर्तियाँ दिखायी देती हैं। समूह के सभी लोग उन्हें देखकर आश्चर्य से भर गये।अनेक विचित्र आकार की मूर्तियाँ छत पर भी बनी थीं। चौखटों, दीवारों और स्तंभों पर भी रंग-बिरंगी देवी-देवताओं व प्राणियों की आकृतियाँ बनी हुई थीं। यह मंदिर चोल वंश से पूर्व का है। इसका अर्थ है, मंदिर हज़ार वर्ष से भी अधिक प्राचीन है।

अंत में हम कन्निया उष्ण जल-स्त्रोत देखने गये, जो प्रकृति का एक करिश्मा जान पड़ता है। वहाँ कई माताएँ अपने बच्चों को गर्म जल से स्नान करवा रही थीं। पास-पास बने कुछ सात चौकोर जल कूप थे। जिनकी गहराई अधिक नहीं थी। उनके भीतर गुनगुने से लेकर विभिन्न तापमान का जल भरा था। एक दूसरे के समीप स्थित कुल ७ चौकोर कुँए हैं जिनमें विभिन्न तापमान के गर्म जल स्त्रोत हैं। इनकी गहराई अधिक नहीं है। केवल ३ से ४ फीट हो सकती है। इन कुओं के समीप खड़े होकर भीतर झांकने पर इनके तल स्पष्ट दिखाई पड़ते हैं। इनके भीतर पर्यटकों ने अनेक सिक्के डाले हुए हैं।ऐसी मान्यता है कि रावण ने अपनी माँ के अंतिम संस्कार के लिए इन जल स्रोतों को उत्पन्न किया था। यह भी कहा जाता है कि रामायण में इसका उल्लेख गोकर्ण तीर्थ के एक भाग के रूप में किया गया है। त्रिंकोमाली खाड़ी का एक अन्य नाम गोकर्ण भी है। 

अभी कुछ देर पहले हम नार्थ गेट होटल पहुँचे हैं। जो जाफना में स्थित है। कई वर्षों पूर्व यहाँ गृह युद्ध चल रहा था, पर अब पूर्णत: शांति है। कल हमें एक और शक्ति पीठ नाग द्वीप देखने जाना है। 


बुधवार, नवंबर 19

रामायण - मिथक से परे इतिहास की झलक - ३

रामायण - मिथक से परे इतिहास की झलक 

भाग - ३


आज मंदारा रोजेन रिजॉर्ट में हमारी पहली और अंतिम सुबह है।यह स्थान श्री लंका के याला राष्ट्रीय उद्यान में आता है। सुबह उठने से पूर्व ही छतों पर बंदरों की उछलकूद की आवाज़ें सुनायी देने लगीं थीं। बाहर निकले तो चार-पाँच मोर इधर-उधर उड़ते दिखायी दिये। आम के बगीचों में कच्चे-पक्के नीचे गिरे थे। हमने कई तस्वीरें उतारीं, एक मोर नृत्य की मुद्रा में पंख फैलाए खड़ा था। एक परिचारिका किसी वृक्ष से फूल तोड़ रही थी,सारा वातावरण रामायण में पढ़े अशोक वाटिका वाले प्रसंग की याद दिला रहा था,जब हनुमान ने वाटिका तहस-नहस कर दी थी और त्रिजटा सीता के लिए फूल ले जाती थी। 

कल शाम लगभग सात बजे हम कतरगाम पहुँचे थे।यह स्थान श्रीलंका के उवा प्रांत के मोनारागला जिले में स्थित है; जो श्रीलंका के दक्षिण-पूर्वी क्षेत्र में लोकप्रिय याला राष्ट्रीय उद्यान से सटा हुआ एक तेज़ी से विकसित होता हुआ शहर है। हिंदू इसे कार्तिकेय ग्राम कहते हैं। कतारगाम श्रीलंका के बौद्ध, हिंदू और स्वदेशी वेद्दा, सभी लोगों के लिए एक पवित्र तीर्थस्थल है। दक्षिण भारत के लोग भी वहाँ पूजा करने आते हैं। इस शहर में एक विशाल मंदिर है, जो शिव-पार्वती के पुत्र स्कंद कुमार को समर्पित है। जिसे श्रीलंका के संरक्षक देवताओं में से एक के रूप में जाना जाता है। 

होटल में समान आदि रखकर व रात्रि भोजन के पश्चात हम सभी कार्तिकेय के मंदिर के दर्शन के लिए रवाना हुए। हवा शीतल थी और वातावरण में शांति थी। मार्ग में कुछ फलों की दुकानें खुली हुई मिलीं। उन्हें नीचे से ऊपर कलात्मक ढंग से ऐसे सजाया गया था मानो मिठाई की दुकानें हों।हमने गौड़ किया कि यहाँ मंदिरों में फलों को चढ़ाया जाता है।हमारा समूह पहुँचा तो पुजारी व कुछ कर्मियों के अलावा मंदिर में कोई नहीं था। मंदिर के विशाल द्वार से प्रवेश करते ही उसकी भव्यता का अंदाज़ा हो रहा था।सामने विशाल मैदान है।दाँयी तरफ़ एक मस्जिद है। बाँयी ओर एक बौद्ध स्तूप स्थित है। सामने मुख्य मंदिर की दीवार पर मोर  और हाथियों की सुंदर आकृतियाँ उकेरी हुई थीं। इस मंदिर के भीतरी कक्ष में मुख्य देवता कार्तिकेय एक यंत्र के रूप में पर्दे के पीछे स्थापित हैं, जिस पर मुरुगन और उनकी दोनों पत्नियों की आकृतियाँ बनी हैं। बाहर पर्दे पर केवल उनके सुंदर चित्र ही देखे जा सकते हैं। जिसमें मध्य में मुरूगन और दोनों और देवसेना व वल्ली के चित्र हैं। निकट ही भगवान गणेश को समर्पित एक मंदिर है। कतारगामा स्थित किरी वेहेरा स्तूप श्रीलंका के उन सोलह पवित्र स्थलों में से एक है जहाँ बुद्ध आये थे। यह स्थान बौद्ध धर्म और हिंदू धर्म के बीच घनिष्ठ और सुंदर संबंध को दर्शाता है। छठी शताब्दी ईसा पूर्व में देवताओं के सेनापति और प्रसिद्ध युद्ध देवता कार्तिकेय के पूर्ण अवतार राजा महासेना बुद्ध से मिले और उन्होंने त्रिरत्नों में शरण ली। इस मुलाकात के बाद राजा ने बुद्ध की यात्रा के उपलक्ष्य में इस स्तूप का निर्माण कराया। बुद्ध और भगवान मुरुगन के बीच स्थापित इस संबंध ने इस क्षेत्र में बौद्ध और हिंदू भक्तों के बीच घनिष्ठऔर शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व को संभव बनाया।यह स्थान विभिन्न पृष्ठभूमियों और धर्मों के लोगों के बीच शांति और सहिष्णुता का संचार करता है।

मंदिर से कुछ दूरी पर माणिक्य गंगा या रत्नों की नदी नामक एक पवित्र स्नान स्थल है। स्थानीय निवासियों का मानना है कि इसमें स्नान करने से व्यक्ति के सभी रोग दूर हो जाते हैं क्योंकि इसमें रत्नों की प्रचुर मात्रा होती है और जंगल में बहने वाली नदी के किनारे लगे पेड़ों की जड़ों के औषधीय गुण भी इसमें समाहित होते हैं।

आज सुबह नाश्ते के बाद हम सभी आज के पहले पड़ाव ‘रावण एला या प्रपात’ के लिए रवाना हुए।कतरगाम से लगभग तीन घंटे की यात्रा के बाद हम वहाँ पहुँचे। कहा जाता है रावण ने सीता माँ को इस झरने के पीछे स्थित गुफाओं में छिपा दिया था, जिसे अब रावण एला गुफा के नाम से जाना जाता है। उस समय यह गुफा घने जंगलों से घिरी हुई थी। यह भी माना जाता है कि सीता माँ इस झरने के जल से बने कुंड में स्नान करती थीं। यह स्थान एक पहाड़ी पर स्थित है और झरने के निकट तक जाने के लिए मार्ग तथा सीढ़ियाँ बनी हैं। दूर ऊँचे पर्वत से गिरता हुआ जल प्रपात बहुत आकर्षक लग रहा था। रावण जलप्रपात से थोड़ी ही दूरी पर, रावण गुफा स्थित है। गुफा तक पहुँचने के लिए चट्टान पर खुदी हुई लगभग सात सौ सीढ़ियाँ चढ़नी पड़ती हैं।हमने दूर से ही उस गुफा के दर्शन किए। गुफा के निकट ही एक सुंदर मंदिर भी है।

हमारा अगला पड़ाव था श्रीलंका का सुंदर पहाड़ी शहर नुवारा एलिया, इसका शाब्दिक अर्थ है रोशनी का शहर ! नुवारा एलिया औपनिवेशिक-युग के आवासों, हरे-भरे  चाय बागानों और ठंडी जलवायु के कारण जाना जाता है। लगभग 6,128 फीट की ऊंचाई पर स्थित इस शहर में रामायण में वर्णित अशोक वाटिका है, जहाँ सीता माँ को बंदी बना कर रखा गया था।श्रीलंका में ऐसे पाँच स्थान हैं, जहाँ सीता माँ को रखा गया था। हम वहाँ पहुँचे तो वर्षा हो रही थी, तापमान पंद्रह डिग्री था।सीता अम्मन मंदिर में सीता माता के सुंदर विग्रह के दर्शनों का अवसर मिला। इस मंदिर को "सीता एलिया" के नाम से भी जाना जाता है, और इसके पास एक नदी भी है जिसके बारे में कहा जाता है कि सीता माता यहाँ स्नान करती थीं। मंदिर में सीता, राम, लक्ष्मण और हनुमान की पाँच हज़ार वर्ष पुरानी मूर्तियाँ हैं। वहाँ की प्रथा के अनुसार समूह की महिलाओं ने उनके सुंदर विग्रह का आलिंगन किया। यहाँ का मुख्य आकर्षण एक चट्टान पर हनुमानजी के पैरों के निशान हैं। 

इसके बाद हमारी बस गायत्री पीठम पहुँची, जहाँ गायत्री देवी का मंदिर है। यह स्थान श्रीलंका का एक आध्यात्मिक केंद्र है, जिसे श्री लंकाधीश्वर मंदिर भी कहा जाता है। यह संत मुरुगेसु सिद्धार द्वारा स्थापित किया गया था और यहाँ देवी गायत्री और लंकाधीश्वरके रूप में भगवान शिव की पूजा की जाती है। इस स्थान का रामायण से भी गहरा संबंध है, क्योंकि माना जाता है कि यहीं पर रावण के पुत्र इंद्रजीत ने भगवान शिव की तपस्या की थी। युद्ध में जाने से पहले इंद्रजीत को भगवान शिव ने आशीर्वाद दिया था।मंदिर में 108 'बाणलिंग' स्थापित हैं, जिन्हें संत मुरुगेसु महर्षि जर्मनी से वापस लाए थे।हमने वहाँ एक संग्रहालय में संत के जीवन से जुड़ी कई वस्तुओं व चित्रों को देखा। 



गायत्री पीठम के बाद हम उस स्थान पर पहुँचे जहाँ देवी सीता ने अग्नि परीक्षा दी थी। सीता माता की अग्नि परीक्षा का स्थान
श्रीलंका के दिवुरुम्पोला में माना जाता है। इस स्थान को 'शपथ का स्थान' भी कहते हैं।दिवुरुम्पोला नुवारा एलिया से लगभग 18 किलोमीटर दूर है। इस स्थान पर एक मंदिर है, जिसे "दिवुरुम्पोला प्राचीन मंदिर" कहा जाता है। इस मंदिर परिसर में एक विशेष स्थान को चिन्हित किया गया है, जहाँ सीता माता ने अग्निपरीक्षा दी थी।यह स्थल हिंदू और बौद्ध दोनों धर्मों की सांस्कृतिक छाप को दर्शाता है और श्रीलंका के महत्वपूर्ण ऐतिहासिक और धार्मिक स्थलों में से एक है। आज भी स्थानीय लोग विवाद सुलझाने के लिए इस मंदिर में आकर सौगंध दिलवाते हैं।इस परिसर में एक बोधिवृक्ष है, जो बोध गया के उसी श्री महाबोधि वृक्ष का वंशज माना जाता है जिसके नीचे बैठकर भगवान बुद्ध को परम ज्ञान की प्राप्ति हुई थी। निकट ही एक बौद्ध स्तूप भी था।यहाँ हमने सम्राट अशोक की पुत्री संघमित्रा की एक सुंदर प्रतिमा के दर्शन भी किए।