नयन स्वयं को देखते न
हम हमीं को ढूँढते हैं
पूछते फिरते कहाँ हो ?
हम हमीं को ढूँढते हैं
पूछता ‘मैं’ ‘तुम’ कहाँ हो ?
खेल कैसा है रचाया
अश्रु हर क्योंकर बहाया,
नयन स्वयं को देखते न
रहे उनमें जग समाया !
अस्त होता कहाँ दिनकर
डोलती है भू निरंतर,
देह-मन को करे जगमग
आत्मा सदा दीप बन कर !
प्रश्नवाचक जो बना है
पूछता जो प्रश्न सारे,
भावना से दूर होगा
दर्द जो अब भरे आहें !
जो नचाती, घेरती भी
एक छाया ही मनस की,
दूर ले जा निकट लाती
लालसा जीवन-मरण की !
‘तू’ छिपा मुझी के भीतर
‘मैं’ मिले ‘तू’ झलक जाये
एक पल में हो सवेरा
भ्रम मिटाकर रात जाये !