खामोश, ख़ामोशी और हम की अगली कवयित्री हैं, ब्लॉग जगत की जानी-मानी
ऋता शेखर ‘मधु’. ऋता जी वनस्पति शास्त्र की शिक्षिका हैं. काव्य की सभी
विधाओं (हाइकू, हैगा, तांका, चोका, कविता, आलेख, लघुकथा, छंद) में लिखती हैं. इस
संकलन में इनकी दस रचनाएँ हैं. कृष्ण-राधा का प्रेम, प्रकृति चित्रण, नारी का
सौंदर्य तथा उसकी शक्ति, पीढ़ियों का अंतर, जीवन दर्शन, दान की महत्ता, कृष्ण की
भगवद्गीता इनकी कविताओं के विषय हैं. अपनी सहज, सरल प्रवाहमयी भाषा में इनकी कविताएं विषय को कई कोणों से बखूबी व्यक्त करती
चली जाती हैं.
थी नार नखरीली बहुत, पर, प्रीत से
प्रेरित हुई
वसुधा मिली थी भोर से जब, ओढ़ चुनरी लाल सी
पनघट चली राधा लजीली, हंसिनी की चाल सी
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भर नीर मटकी को उठाया, किन्तु भय था साथ में
चंचल चपल इत उत निहारे, हो न कान्हा घात में
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तब ही अचानक गगरी में, झन्न से कंकड़ी लगी
फूटी गगरिया, नीर फैला, रह गयी राधा ठगी
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बोलूं न कान्हा से कभी मैं, सोच कर के वह अड़ी
इस दृश्य को लखकर किसन की, जान साँसत में पड़ी
चितचोर ने झटपट मनाया, अब न छेडूंगा तुझे
ओ राधिके, अब मान भी जा, माफ़ भी कर दे मुझे
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ये प्रेम की बातें मधुरतम, सिर्फ वो ही जानते
जो प्रेम से बढ़कर जगत में और कुछ न मानते
ऋतुराज को आना पड़ा है
फिर वाटिका चहकी खुशी से, खिल उठे परिजात है
मदहोशियाँ फैली फिजाँ में, शोखियाँ दिन रात है
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मीठी बयारों की छुअन से, पल्लवित हर पात है
ना शीत है ना ही तपन है, बौर की शुरुआत है
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हुडदंग गलियों में मचा है, टोलियों के शोर हैं
क्या खूब होली का समाँ है, मस्तियाँ हर ओर हैं
पकवान थालों में सजे हैं, मालपुए संग हैं
नव वर्ष का स्वागत करें हम, फागुनी रस रंग हैं
क्षितिज पे धरा ही है,
फलक को झुका रही
किसी की बेबसी का तो, मजाक न उड़ाइए
न आप भी विधाता के, निशाना बन जाइए
सोच समझ कही तो, उँगलियाँ उठाइए
आपकी ओर भी है ये, इसे न भूल जाइए
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लदे वृक्ष फलों से जो, सदा ही वे झुक रहे
क्षितिज पे धरा ही है, फलक को झुका रही
चपल, चंचल चोर
ओ नार नवेली
तुम हो अलबेली
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मुखड़ा को चुराया चंदा से
बन गयी तुम चन्द्रमुखी
आँखों को चुराया हिरणों से
कहलाई तुम मृगनयनी
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हंसों की पतली ग्रीवा से
अपनी गर्दन को बना लिया
सफेदी चुरानी थी दूधों से
बैठ उसी में नहा लिया
इतनी सारी चोरी करके
बन गयी तुम रूपवती
यौवन की तरुणाई से
कवि की कविता बनी तुम ‘युवती’
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गजों से चुराई अलमस्त चाल
बन गयी तुम गजगामिनी
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मीठे स्वर को चुरा लिया
बन गई तुम कोकिलकंठी
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सितारों की चोरी करके
मांग को अपनी सजा लिया
फूलों से खुशबू चोरी कर
बगिया को अपनी महका लिया
ओ ममतामयी
तुम हो जननी
स्नेह से भरी
प्यार की धनी
ममत्व को कहीं से नहीं चुराया
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वात्सल्य प्रेम को अमर बनाया
ओ रूपसी
ओ गुणवती
ओ दयावती
क्रोध में चोरी करना नहीं
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ज्वालामुखी बनना नहीं
रौद्र मुखी कहलाना नहीं
नारी, स्वयंसिद्धा बनो
नारी
तू अति सुंदर है
तू अति कोमल है
सृष्टि की जननी है तू
उम्र के हर पड़ाव पर किन्तु
तेरे नयन गीले हैं क्यों ?
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तेरा यह क्रन्दन है व्यर्थ
जीती है तू सबके तदर्थ
तू खुद को बना ले इतना समर्थ
तेरे जीने का भी हो अर्थ
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तेरे भी अधिकार हैं सबके समान
नारी तू महान थी, महान है, रहेगी महान
नारी व्यथा की बातें हो गयीं पुरानी
नए युग में बदल रही है कहानी
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बेटियां होती हैं अब घर की शान
उन्हें भी पुत्र समान मिलता है मान
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सपने विस्तृत गगन में उड़ते हैं
इच्छाएं पसंद की राह चुनते हैं
नारियों के मुख पर नहीं छाई है वीरानी
वक्त बदल गया, अब बदल गयी है कहानी
आज का दर्द
दो पीढ़ियों के बीच दबा
कराह रहा है आज
पुरानी पीढ़ी है भूत का कल
नई पीढ़ी है भविष्य का कल
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न मानो तो बुजुर्ग रूठते
लगाम कसो औलाद भड़कती
क्या करूं कि सब हंसे
हाथ पर हाथ धरे
सोच रहा है आज
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पुराना कल बोले
मेरी किसी को चिंता नहीं
नया कल बोले
मेरी कोई सुनता नहीं
सुन सुन ये शिकवे
कान अपने
सहला रहा है आज
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दोनों कल चक्की के पाट
उनके बीच पिसते स्वयं को
साबुत बचा रहा है आज
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परम्परा मानता जर्जर कल
बदलाव चाहता प्रस्फुटित कल
दोनों के बीच चुपचाप
सामंजस्य बिठा रहा है आज
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कल और कल की रस्साकशी में
मन्दराचल पर्वत
बन जाओ तुम आज
कई अच्छी बातें ऊपर आएँगी
बीते कल का प्यार बनोगे
आगामी कल का सम्मान
आत्मा की बेड़ी
आत्मा है
बेड़ी रहित
अमर उन्मुक्त
अजर अनंत
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जगत की चौखट पर
रखते ही कदम
आरम्भ होती
बेड़ियों की श्रृंखला
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जन्म लेते ही
स्वतः जाती है जकड़
रक्त संबंध की बेडी
प्यार से निभाएं अगर
रहती है रिश्तों पर पकड़
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कुछ बेड़ियाँ होती भीषण
फैलाती भारी प्रदूषण
वे हैं-
कट्टर धर्म की बेड़ी
जातीयता की बेड़ी
अहम की बेड़ी
जलन की बेड़ी
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जीवन विस्तार को भोग
होगे पंचतत्व में विलीन
आत्मा फिर होगी
बेड़ी रहित
स्वछन्द और मुक्त
महादान
रखना था वचन का मान
दिव्य उपहार कवच कुंडल का
कर्ण ने दे दिया दान
अनोखे दान को मिला स्थान
दान कार्य जग में बना महान
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विद्या दान वही करते
जो होते स्वयं विद्वान
धनदान वही करते
जो होते हैं धनवान
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रक्त दान सभी कर सकते
क्योंकि सभी होते रक्तवान
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रक्त कणों का जीवन विस्तार
है सिर्फ तीन महीनों का
क्यों न उसको दान करें हम
पायें आशीष जरुरतमंदों का
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रक्तदान सा महादान कर
जीते जी पुण्य कमाओ
नेत्र सा अमूल्य अंग दान कर
मरणोपरांत दृष्टि दे जाओ
बारिश की प्रथम बूंद
घटा छाई घनघोर सखी री
नाचे मन का मोर
बूंद बूंद बरसा नीर सखी री
तन मन हुआ विभोर
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खिले सुमन सुंदर सखी री
जी चाहे लें बटोर
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आये किसी की याद सखी री
क्या संध्या क्या भोर
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बूंद बन गयी धारा सखी री
भूले ओर और छोर
आ झूला झूले सखी री
छू ले गगन की पोर
गीता प्राकट्य
बालवृद्ध नर नारी जाने
कथाओं का संग्रह है भारत
उन कथाओं में महाकथा है
नाम है जिसका महाभारत
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सबस बड़ा युद्ध धरती का
रणभूमि बन गया कुरुक्षेत्र
कौरव-पांडव का भिडंत हुआ
युद्धभूमि कहलाया धर्मक्षेत्र
युद्धक्षेत्र में किया अच्युत(कृष्ण)ने
दुविधा का समाधान
दिया उपदेश सांसारिकता का
वही बना गीता का ज्ञान
गान हुआ श्रीविष्णु के मुख से
श्री-मद-भगवद-गीता बना
पवित्र, श्रेष्ठ और महान
ऋता शेखर ‘मधु’. की कविताएँ पढ़ते और लिखते हुए एक मधुर अहसास से अंतर
भरा रहा, आशा है आप सभी सुधी पाठक गण भी इनका आनंद उठाएंगे. इनका इमेल पता है-hrita.sm@gmail.com