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सोमवार, जुलाई 28

अंश

अंश 

सुबह-सुबह जगाया उसने 

कोमलता से, 

छूकर मस्तक को,

जैसे माँ जगाती है 

अनंत प्रेम भरे अपने भीतर 

याद दिलाने, तुम कौन हो ?

उसी के एक अंश 

उसके  प्रिय और शक्ति से भरे  

बन सकते हो, जो चाहो 

रास्ता खुला है, 

जिस पर चला जा सकता है 

 ऊपर से बहती शांति की धारा को 

धारण करना है 

जिसकी किरणें छू रही हैं

 मन का पोर-पोर 

अंतर के मंदिर में 

अनसुने घंटनाद होते हैं 

  जलती है ज्योति

  बिन बाती बिन तेल 

हो तुम चेतन 

इस तरह, कि अंश हो

उसी अनंत का !


बुधवार, नवंबर 13

ऋण

ऋण 


पिता आकाश है, माँ धरा 

जो अपने अंश से 

पोषण करती है संतान का 

पिता सूरज है, माँ चंद्रमा 

जो शीतल किरणों से 

हर दर्द पर लेप लगाता है 

पिता पवन है, माँ अग्नि 

जो नेह की उष्मा से 

जीवन में रंग भरती है 

पिता सागर है, माँ नदिया 

जो मीठे जल से प्यास बुझाती है 

पिता है, तो माँ है 

आकाश के बिना धरा कहाँ होगी 

अंततः सूरज से ही उपजा है चाँद 

वाष्पित सागर ही नदी है 

दोनों पूरक हैं इकदूजे के 

और इस तरह हर कोई 

ऋणी है माँ-पिता का ! 


मंगलवार, अक्टूबर 24

विजयादशमी

विजयादशमी 

माँ को पूज कर राम ने

पाया विजय का वरदान, 

किया विनाश दशानन का 

मिला दुनिया में सम्मान !


राम तभी अवतार बने 

जिस पल निज शीश झुकाया, 

विधिपूर्वक करी प्रार्थना 

अहम् भाव पूर्ण मिटाया !


सीता से फिर हुआ मिलन 

दोनों के सब कष्ट मिटे, 

सेना में जय घोष उठा 

अंधकार के मेघ छँटे !


हम निज अल्प प्राप्ति पर भी 

गर्वित हों कब शोभा दे,   

माँ की शक्ति से ही सदा 

तन-मन का अस्तित्व रहे !


वही करावन हारा है 

उसी को सौंपें हर भार 

हल्के हो जगत में रहें 

यदि करना स्वयं उद्धार !



रविवार, अक्टूबर 15

माँ प्राण का आधार भी है


माँ प्राण का आधार भी है 

 

जो थामती है हर विपद में 

 दे ज्ञान दीपक पथ दिखाती,

माँ प्राण का आधार भी है 

  रात्रि बनकर  विश्राम देती !


सौंदर्य की देवी कहाए

इस जगत को आकार देती, 

शिव से मिलन की प्रेरणा दे 

ले कर स्वयं कैलाश जाती !


अपार ऊर्जा धारे देवी 

 दर्शन परम अनंत कराती, 

 जगत दात्री बनी सिद्धि रिद्धि

निःशंका जो सदा विचरती !


महातपस्विनी जगत माता  

पराम्बा, जया, महायोगिनी, 

शिव प्रिया,  अंबा, महागौरी 

जगत तोषिणी दिव्यतोषिणी !


शुक्रवार, सितंबर 22

संग-साथ

 संग-साथ 


प्रेम का अदृश्य वस्त्र 

ओढ़कर हम चलते हैं 

जीवन के उतार-चढ़ाव के मध्य 

जो कभी भी पुराना नहीं होता 

तो कोई साथ-साथ चलता है 

हर धूप हर तूफ़ान से 

सामना करते हुए 

वह हमें देखता है !

शांति की एक धार 

भिगो जाती है 

जब हमारी दुआओं में 

फ़िक्र सारी कायनात की 

भर जाती है

एक माँ के दिल की तरह 

तब हम उसे अपने भीतर 

धड़कता हुआ पाते हैं !

जो जानता है बारीकियाँ  

हर शै की 

वह पढ़ लेता है 

छोटी से छोटी ख्वाहिश 

जो भीतर जन्म लेती है 

और हम मुक्त होकर 

विचरते हैं जगत में 

जैसे कोई बादल 

अनंत आकाश में 

 या मीन सागर में !


सोमवार, अगस्त 21

माता भूमिः पुत्रोऽहं पृथिव्याः

माता भूमिः पुत्रोऽहं पृथिव्याः

धरती हमें धरती है 

माँ की तरह 

पोषित करती है 

फल-फूल, अन्न,  शाक से 

क्षुधा हरती है 

वे पात्र जिनमें ग्रहण किया भोजन 

वे घर जो सुरक्षा दे रहे 

वे वस्त्र जो बचाते हैं 

सजाते हैं ग्रीष्म, शीत, वर्षा से 

सभी तो धरती माँ ने दिये 

अनेक जीवों, प्राणियों का आश्रय धरा 

उसने कौन सा दुख नहीं हरा 

अंतरिक्ष की उड़ान के लिए मानव ने 

ईंधन कहाँ से पाया 

आलीशान पोत बनाये 

समान कहाँ से आया 

धरा से लिया है सदा हमने 

कृतज्ञ होकर पुकारा है कभी माँ ! 

विशाल है धरा 

जलाशयों, सागरों 

और पर्वतों का आश्रय स्थल 

भीतर ज्वाला की लपटें 

तन पर हिमाच्छादित शिखर 

रेतीले मैदान और ऊँचे पठार 

वह सभी कुछ धारती है 

निरंतर घूमती हुई 

अपनी धुरी पर 

सूर्य की परिक्रमा करती है 

हरेक का जीवन संवारती है 

उसका दिल इतना कोमल है कि 

एक पुकार पर पसीज जाता है 

धरती को अपना नहीं अपने बच्चों का 

ख़्याल घुमाता है !


शुक्रवार, अगस्त 18

वर्तमान भविष्य के हाथों में

वर्तमान भविष्य के हाथों में

नवजात शिशु की पकड़ भी 

कितनी मज़बूत है 

मुट्ठी में अंगुली थमाकर देखती है माँ   

 जकड़ लेता है 

दृढ़ता से

मुस्कान थिर है 

नींद में भी उसकी

माँ को लगता है 

जैसे वर्तमान ने 

भविष्य के हाथों में 

स्वयं को सौंप दिया हो ! 


बुधवार, नवंबर 9

भारत



भारत 

‘देने’ को कुछ न रहा हो शेष 
जब आदमी के पास 
तब कितना निरीह होता है वह 
देना ही उसे आदमी बनाये रखता है 
मांगना मरण समान है 
खो जाता जिसमें हर सम्मान है !
देना जारी रहे पर किसी को मांगना न पड़े 
ऐसी विधि सिखा रहा आज हिंदुस्तान है !
पिता जैसे देता है पुत्र को 
माँ  जैसे बांटती है अपनी सन्तानों को 
उसी प्रेम को 
भारत के जन-जन में प्रकट होना है 
ताकि ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ 
मानने वाली इस संस्कृति की 
बची रहे आन, आँच न आए उसे !
जहां अनुशासन और संयम 
केवल शब्द नहीं हैं शब्दकोश के 
यहां समर्पण और भक्ति
 कोरी धारणाएं नहीं हैं !
यहां परमात्मा को सिद्ध नहीं करना पड़ता 
वह विराजमान है घर-घर में 
कुलदेवी, ग्राम देवी और भारत माता के रूप में 
वह देश अब आगे बढ़  रहा है !
और दिखा रहा है सत्मार्ग 
विश्व को अपने शाश्वत ज्ञान से ! 

शनिवार, नवंबर 5

धरती

धरती 


धरती माँ है 

माँ की तरह 

धरती है अपनी कोख में संतति 

हज़ारों सूक्ष्म जीव 

कीट, मीन, तितलियाँ, पशु-पंछी

वन-जंगल और ‘मानव’ को भी 

जो घायल कर रहा है उसे 

कंक्रीट के जंगल उगाता  

जीते-जागते पर्यावरण को नष्ट करके 

धरा के गर्भ से तेल उलीच 

समंदरों को विषैला बनाता  

हज़ार जीवों के प्राण ले 

अतिक्रमण करता ही जा रहा है मानव 

धरती झेल रही थी 

तप्त हो रही अब  

 स्वस्थ नहीं है वह

भूमिकंप शायद उसकी

 कंपकंपाहट  है 

असमय वर्षा से 

मानो कोई सहला रहा है उसे 

अब भी समय है, चेते 

  संयमित हो यदि विकास

और  पीड़ा न दे उसे 

तो रह सकता है सुरक्षित

मानव ! वरना …. 


गुरुवार, मई 27

बदलती भूमिका


बदलती भूमिका


बदल रही हैं भूमिकाएँ कोरोना काल में 

सुबह-सवेरे उठकर रसोई घर संभालते

फिर हाट-बाजार, करते मोल-तोल सब्जियों का 

कपड़े सुखाने, सफाई करने में भी परहेज नहीं रहा 

फोन पर रेसिपी का आदान-प्रदान करते भी

 देखा जा सकता है आजकल उन्हें 

आधी रात को उठकर बच्चों को सुला भी देते 

और स्त्रियां आजादी की साँस ले रही हैं 

वह घर में बैठकर कनेक्टेड हैं दुनिया-जहान से 

वर्क फ्रॉम होम ने उन्हें दी है फुर्सत 

वरना सुबह भागते हुए गुजरती थी 

घर का काम अकेले ही निपटा कर 

ऑफिस के लिए निकलती थीं 

पापा दिन भर रहते हैं घर पर 

अब वह भी माँ की तरह लगते हैं बच्चों को 

शिकायत का डर नहीं रहा अब 

मिल बैठ कर सब हँसते हैं !

पुरुषों ने सम्भाल ली है घर की कमान 

लॉक डाउन का एक असर यह भी है कि 

उनका रुतबा हो गया है कुछ हद तक समान !



 

सोमवार, मार्च 8

अमृत स्रोत सी

अमृत स्रोत सी



एक दिन नहीं 

वर्ष के सारे दिन हमारे हैं,

हर घड़ी, हर पल-छिन 

हमने जगत पर वारे हैं !


माँ सी ममता छिपी नन्ही बालिका में जन्मते ही 

बहना के दुलार का मूर्त रूप है नारी 

सारे जहान से अनायास ही नाता बना लेती 

चाँद-सूरज को  बनाकर भाई

पवन सहेली संग तिरती  !


हो बालिका या वृद्धा  

सत्य की राह पर चलना सिखाती  

नारी वह खिलखिलाती नदी है

जो मरुथल में फूल खिलाती !

धरती सी सहिष्णु बन रिश्ते निभाए 

परिवार की धुरी, समर्पण उसे भाए !


स्वाभिमान की रक्षा करना

सहज ही है आता  

श्रम की राह पर चलना भी सुहाता 

अमृत स्रोत सी जीवन को पुष्ट करती है 

आनंद और तृप्ति के फूल खिलाती 

सुकून से झोली भरती है !