गुरुवार, जनवरी 31

अबूझ है हर शै यहाँ



 अबूझ है हर शै यहाँ

नहीं, कुछ नहीं कहा जा सकता
हुआ जा सकता है
खोया जा सकता है
डूबा जा सकता है
नहीं, कुछ नहीं कहा जा सकता
फूल के सौंदर्य के बारे में
पीया जा सकता है
मौन रहकर
नहीं खोले जा सकते जीवन के रहस्य
जीवन जिया जा सकता है
नृत्य कहाँ से आता है
कौन जानता है ?
थिरका जा सकता है
यूँ ही किसी धुन, ताल पर
कहाँ से आती है मस्ती
कबीर की
वहाँ ले जाया नहीं
खुद जाया जा सकता है
डोला जा सकता है
उस नाद पर
जो सुनाया नहीं जा सकता
सुना जा सकता है
प्रकाश की नदी में डूबते उतराते भी
बाहर अँधेरा रखा जा सकता है
नहीं ही जो कहा जा सकता
उसके लिए शब्दों को
विश्राम दिया जा सकता है !

सोमवार, जनवरी 28

नन्ही नव्या के लिए


परिवार में नए मेहमान का आना सदा ही हर्ष का कारण होता है, फिर मेहमान जब चौथी पीढ़ी की प्रथम कन्या हो तो खुशियाँ और भी बढ़ जाती हैं, माँ होतीं तो कुछ ऐसे ही आशीर्वाद अपनी बड़ी पुत्री(यानि मेरी दीदी)की पहली पोती नव्या को देतीं, जिसने अपने देश से दूर नार्वे में छब्बीस जनवरी को जन्म लिया है. यह कविता माँ को भी समर्पित है, उनकी वंश बेलि ही तो फल-फूल रही है.


नन्ही नव्या के लिए

नन्हा तन तुम्हारा नव्या
अधखुली पलक, रंगत गोरी,
तुम हुई साक्षी जिस पल से
बिन देखे बंधी प्रीत डोरी !

रोने के स्वर में छुपा ओम
मुस्काती हो जैसे योगी,
काले कुंतल, काली आँखें
ऐसी तुम ऐसी ही होगी !

नाता प्रेम का तुमसे जोड़ा
पाकर परिजन विमुग्ध हुए,
जीवन के सुंदर उत्सव में
इक नया रंग लख मुग्ध हुए !

हो गार्गी, तुम कल्याणी
शुभ आत्मा नव तन धारे
आनंदी, पावन गायत्री सी
देख तुझे गए सब मन वारे !

तन कोमल सा लघु अंग तेरे
मुस्कान कल्पना से बढकर,
लक्ष्मी ! तू वरदान स्वरूपा
आयी रूप बालिका धरकर !

चन्द्र कला सी बढती जा
जीवन शोभित हो तुझसे,
माँ की गोद में फूल सी महके
पिता दुआएं दिल दे से !

शुक्रवार, जनवरी 25

गणतन्त्र दिवस पर शुभकामनाओं सहित


गणतन्त्र 

भारत एक स्वप्न है
परमात्मा का...
युगों पूर्व देखा गया
गणदेवता, गणपति व
स्वप्न गणनायक का.. !
जहाँ समानता हो
स्त्री और पुरुष में
निर्धारित हों भले ही
अधिकार क्षेत्र उनके !
भय नहीं प्रेम जहाँ
राज्य करे दिलों पर
न हो सम्मानित कोई अन्यायी
कभी भारत भू पर !
संवेदनाएं फलें फूलें
शुभता हो जागृत
ऐसी जहाँ हवा चले  
हर जीवन का हो स्वागत !
विकास नित मूल्यों का
रचे जाएँ मानवता के कीर्तिमान
धन नहीं, ज्ञान का हो सम्मान !
विश्वगुरु भारत बने
पथप्रदर्शक, ज्योति दीपक
आत्मा में रत रहे !
हो लक्ष्मी जहाँ हर गृह स्वामिनी..
जिए अपनी गरिमा में
अधिकार हो अपने तन पर
हर स्त्री को, अपनी कोख पर
इस स्वप्न को हमें सत्य बनाना है
सेवा और त्याग को
फिर से जिलाना है
सादगी को अपनाना है
तभी सत्य होगा यह स्वप्न
तभी गणतन्त्र बनेगा भारत !

बुधवार, जनवरी 23

एक शब्दों का गलीचा


एक शब्दों का गलीचा

गुनगुनाहट, चहचहाहट, मुस्कुराहट चाहिए
हो मगर खालिस न कोई भी बनावट चाहिए !

इक सलीका जिंदगी में इक तरावट चाहिए
हो तमस कितना घना बस एक आहट चाहिए !

लघु सा छिड़काव जल का पांखुरी से करे पावन
एक हाला रौशनी का एक दीवट चाहिए !

बिना माँगे ही बरसती नेमतों की बदलियाँ
बस यहाँ सारे जहां से इक लगावट चाहिए

ज्यों तरंगें उठ रहीं हल्के पवन के स्पर्श से
कृत्य की बस चेतना में छटपटाहट चाहिए

खिल रहे ज्यों कमल सरवर पंक में भी मुस्कुरा  
मन को वैसा ही जुनूं वैसी कसावट चाहिए !

हो विरोधी या समर्थक ऊर्जा ही बांटते
सफर चलता ही रहे न कोई रुकावट चाहिए !

फूल-कांटे संग ही शोभित जहां में हो रहे
पंछियों को गीत सुनने हित बुलाहट चहिये !

शाप या वरदान दोनों मील के पत्थर ही हैं
मंजिलों से पूर्व न कोई थकावट चाहिए !

एक शब्दों का गलीचा चैन से दिल सो सके
प्यार के ताने-बाने में इक बुनावट चाहिए !

सोमवार, जनवरी 21

कवि रजनीश तिवारी का काव्य संसार- खामोश,ख़ामोशी और हम में


खामोश, ख़ामोशी और हम के अगले कवि हैं, शिक्षा और पेशे से इलेक्ट्रिकल इंजीनियर श्री रजनीश तिवारी, तिवारी जी को लेखन के साथ फोटोग्राफी भी भाती है, इस संकलन में इनकी छह कवितायें हैं.
सभी जीवन के विविध रंगों को उजागर करती हैं.
पहली कविता एक बूंद में कवि सुबह सवेरे ओस की एक बूंद को देखकर हुई अनुभूति को व्यक्त करता है, जीवन का एक रहस्य जैसे वह बूंद परत दर परत खोलती जाती है.
एक बूंद

ओस की इक बूंद
जमकर घास पर
सुबह सुबह
मोती हो गयी
...
..
फिर वो बूंद
सूरज की किरणों
पर बैठ उड़ गयी
..
कुछ पलों का जीवन
और दिल पर ताजगी भरी
नमकीन अमिट छाप
एक बूंद छोड़ गयी
..
एक बूंद में होता है सागर
..
भरा होता है एक बूंद में
दर्द जमाने भर का
..
प्यार की एक बूंद का नशा उतरता नहीं
..
एक बूंद जिंदगी बना देती है
बूंद-बूंद चखो जाम जिंदगी का
बूंद बूंद जियो जिंदगी
जीवन में लोग अक्सर धोखा खाते हैं, क्योंकि मानव जो है वह उसे स्वीकार नहीं जो होना चाहता है, वही दिखाने का प्रयास उसे छल करने पर विवश कर देता है, इसी कटु सच्चाई को बयान करती है दूसरी कविता छलावा   
छलावा

तुम्हें जो खारा लगता है
वो सादा पानी होता है
... ..
मेरे आंसू क्या सस्ते हैं
जो गैरों के दर्द पर रोयें
दिल नहीं दिखावा है
वही भीतर से रोता है
...
परेशान खुद से ही हूँ मैं
तुम्हारी सुध मैं कैसे लूँ
मुझे फुर्सत कहाँ, तुम्हारी
तकलीफों पर मैं रोऊँ

होता वो नहीं हरदम
नजरों से जो दिखता है
..
खुद को दोष क्या दूँ मैं
शिकायत क्या करूं तेरी
मुझे हर कोई मुझ जैसा
खुद में खोया लगता है

सपने देखना किसे नहीं भाता, कुछ तो सारा जीवन सपनों को देखने में ही बिता देते हैं..कवि ने सपनों का कच्चा चिट्ठा खोल कर रख दिया है सपनों का हिसाब-किताब नामक कविता में-

सपनों का हिसाब-किताब

कल रात बैठा लेकर
सपनों का हिसाब-किताब
अरमान, तमन्नाएँ, सपने
और हासिल का कच्चा चिट्ठा लिए
सोचता रहा कहाँ खर्च किया
पल दर पल खुद को
....
न जाने कितने पन्ने भरे मिले
सपने में ही जीने की दास्ताँ लिए
...
कई मौसम चले गए
टूटे बिखरे सपनों को समेटने में
.. ..
कई बार आंधी-तूफान और बारिश में
सपनों की पोटली सम्हालने
और बचाने में वक्त लगा
...
न जाने कितनी बार बाढ़ में
सपनों को दबाए हुए बगल में
मीलों और बरसों बहता रहा हूँ
... ...
कई बार ऊब भी हुई है सपनों से
तब गठरी छोड़ कर बस की खिडकी से
नीले अनंत आसमान में देखने का दिल किया
...
तैयारी या इंतजार में रहे अक्सर
और हर बार कुछ पल ही जिए
सपनों को सच होता देखते
हाँ, सपनों का खाता खत्म न हुआ

स्मृतियों को बार बार जीना मानव का स्वभाव है, सजीव या निर्जीव जिनसे उसका नाता रहा हो उसकी यादों में वह जिन्दा रहता है, कुछ ऐसा ही अनुभव कवि करता है दिल का रिश्ता में
दिल का रिश्ता

आज छूकर देखा
कुछ पुरानी दीवारों को
..
आज एक पुराने फर्श पर
फैली धूल पर चला
उस परत के नीचे
अब भी मौजूद थे
मेरे चलने के निशान
...
किये साफ कुछ वीरानगी के दाग
बिखरे हिस्सों को समेटा
...
जी उठी दीवार
साँस लेने लगी जमीन
..
खट्टी-मीठी यादों की गंध
फ़ैल गयी हर कोने
दिल का रिश्ता
सिर्फ दिल से ही नहीं
दीवारों से भी होता है

जीवन विरोधी मूल्यों से बना है, काले की पृष्ठ भूमि पर ही सफेद उभर कर आता है, कवि का होना इन्हीं विरोधी भावों पर आधारित है, अपना परिचय देते समय वह एक साथ शांति का सागर और ज्वालामुखी दोनों होना स्वीकारता है
परिचय

पर्वत मैं हूँ स्वाभिमान का
मैं प्रेम का महासमुद्र हूँ
मैं जंगल हूँ भावनाओं का
एकाकी मरुथल हूँ मैं,
... ...
हूँ घाट एक रहस्यों का
संबंधों का महानगर हूँ मैं

झील हूँ मैं एक शांति की
मैं उद्वेगों का ज्वालामुख हूँ
.. ..

हूँ गुफा एक वासनाओं की
भयाक्रांत वनचर हूँ मैं

दावानल हूँ विनाशकारी
मैं शीतल मंद बयार हूँ
..

हूँ इस प्रकृति का एक अंश
सूक्ष्म, तुच्छ मनुष्य हूँ मैं,

कशमकश में कवि अपने लिखने की विभिन्न मुद्राओं को अंकित करता जाता है, हर रचनाकार की तरह वह समझ नहीं पाता कभी चाहने पर भी पंक्ति उतरने से इंकार करती है और कभी सहज ही लेखन घटता है
कशमकश

कभी विचार करते हैं क्रन्दन
और फिर मैं लिखता हूँ
... ..
कभी लिखता हूँ तो कुछ उतरता नहीं ख्यालों में
..
मैं कभी महसूस करता हूँ
किसी क्षण का कंपन
...
कभी चलती है कलम बिना किसी झंकार के
..
कभी लिखते हुए महसूस होता है स्याही का नृत्य
..
कभी जो सोच में घटता है, अहसास में नहीं होता
कभी अहसास का चेहरा ही नहीं पढ़ा जाता
... ...
कभी सोच, सिर्फ सोच रह जाती है संवेदना शून्य
...
कभी सोचता हूँ कुछ, लिख जाता हूँ कुछ और
...
कभी लाइनें ही टकरा जाती हैं आपस में
लड़ बैठती हैं और शब्द भाग जाते हैं

इसी कशमकश में रोज
किसी कविता का करता हूँ नामकरण
या फिर उसे देता हूँ मुखाग्नि  


कवि रजनीश तिवारी जी की कविताएँ काव्य का सुखद अनुभव तो कराती ही हैं, जीवन की सच्चाइयों से भी रूबरू कराती हैं, जीवन सूत्रों को प्रस्तुत करती हैं. आशा है आप सभी सुधी पाठक गण भी इनका रसास्वादन कर आनन्दित होंगे. इनके ब्लॉग का नाम है रजनीश का ब्लॉग- http://rajneesh-tiwari.blogspot.com
इनका इमेल पता है- rajneeshtiwari@live.in





शुक्रवार, जनवरी 18

जहाँ हैं हम अक्सर वहाँ नहीं होते


जहाँ हैं हम अक्सर वहाँ नहीं होते, तभी तो उसके दरस नहीं होते
जिंदगी कैद है दो कलों में, आज को दो पल मयस्सर नहीं होते


जनवरी की रेशमी, गुनगुनी धूप
सहलाती है तन को
बालसूर्य की लोहित रश्मियाँ
लुभाती हैं मन को..
रह-रह के भर जाती है
कुसुम गंध नासपुटों में
बोगेनविला की पत्तियों से
टपकती ओस की बूँदे
अंतर भिगाती हैं..
झरे हुए पुष्पों की पंखुरियाँ
बिछ जाती हैं जब धरा पर
जीवन को उसकी सुंदरता का
अहसास हैं कराती
अम्बर की नीलिमा
लिए जाती है स्वप्न लोक
कूजन खगों की
ज्यों लोरी सुनाती है
पत्तों की सरसराहट, ज्यों
पवन पायल छनकाती है
गुलाबी रंगत कलिका की
कराती है मिलन का अहसास
हर शै कुदरत की ओ खुदा !
तेरी याद है दिलाती
इतनी सुंदर थी यह दुनिया
क्या पहले भी...
तुझसे इश्क के बाद
नजर जो आती है
दूब के तिनके की हरी नोक भी
सुख सरिता बहाती है यहाँ
सड़क पर जाते हुए
हरकारे की आवाज भी
कैसी जगाती है हूक
श्रमिक की खुरपी मानो
जन्नत का संदेश सुनाती है
रचा जा रहा है हर पल
कुछ न कुछ, यह बात
आज समझ में आती है
सूर्य की आभा में लॉन की घास
जब चमचमाती है
वृक्षों की डालियाँ अनोखी
छटा भर मुस्काती हैं !