बुद्ध का निर्वाण
एक बार देख मृत
देह
हो गया था बुद्ध
को वैराग्य अपार
हजार मौतें नित्य
देख हम
बढ़ा रहे सुविधाओं
के अंबार
जरा-रोग ग्रस्त
देहों ने उन्हें
कर दिया दूर
भोग-विलास से
हम विंडो शॉपिंग
के भी बहाने हैं ढूँढ़ते
बढ़ती जा रही है
दरार आज
धनी और निर्धनों के मध्य
जितनी बढ़ती है
संख्या आलीशान महलों की
बढ़ जातीं उसी अनुपात से
शहर में
झुग्गी-झोपड़ियाँ भी !
राजा जब बन जाता
था परिव्राजक
तो खुल जाते
भंडार भी वणिकों के
आम जनता के लिए
पर जहाँ शासक बैठा
हो बना अट्टालिकाएं
वहाँ बटोरने लगते
हैं व्यापारीगण अपनी तिजोरियां
कुछ भी नहीं कह
पाता राजा
सिवाय आँख मूंद
लेने के...
ली थी वन की राह
बुद्ध ने
मात्र अपने
निर्वाण के लिए ?
नहीं, मंशा थी कुछ और
नहीं है धन ही सब
कुछ दुनिया में
दान का महत्व
सिखाने हित
वे बन बैठे थे
स्वयं दानी
सेवा का उपदेश ही
नहीं दिया
वर्षों तक विहार
किया
हम जो देखना ही
भुला बैठे हैं गावों की ओर
खत्म कर रहे हैं वनों
को
होकर दूर बुद्ध
की शिक्षाओं से
एक बार फिर से
वैराग्य की अलख तो जगानी ही होगी
भोगी बने मनों को
योग की सच्ची राह दिखानी होगी
तभी मनेगी सच्ची
बुद्ध पूर्णिमा !