नया दिन
मिलता है कोरे काग़ज़ सा
हर नया दिन
जिस पर इबारत लिखनी है
ज्यों किसी ख़ाली कैनवास पर
रंगों से अनदेखी आकृति भरनी है
धुल-पुंछ गयीं रात की बरसात में
मन की गालियाँ सारी
नए ख़्यालों की जिनसे
बारात गुजरनी है
हरेक दिन
एक अवसर बनकर मिला है
कई बार पहले भी
कमल बनकर खिला है
हो जाता है अस्त साथ दिनकर के
पुनः उसके उजास में
कली उर की खिलनी है
जीवन एक अनपढ़े उपन्यास की तरह
खुलता चला जाता है
कौन जाने किस नए पात्र से
कब मुलाक़ात करनी है
हर दिन कोई नया ख़्वाब बुनना है
हर दिन हक़ीक़त भी
अपनी राह से उतरनी है
अनंत सम्भावनाओं से भरा है जीवन
कौन जाने कब किसकी
क़िस्मत पलटनी है !