गुरुवार, नवंबर 30

गुलमर्ग की यादें -१


चिनार की छाँव में

गुलमर्ग की यादें -१


आज हम गुलमर्ग आ गये हैं। इतिहास के पन्नों में झांका तो पता चला,  श्रीनगर से तकरीबन 55 किलोमीटर की दूरी पर स्थित गुलमर्ग का असली नाम गौरीमर्ग था जो यहाँ के चरवाहों ने इसे दिया था। 16वीं शताब्‍दी में सुल्‍तान युसुफ शाह ने इसका नाम गुलमर्ग रखा। आज यह मात्र पहाड़ी पर्यटक स्थान नहीं है, बल्कि यहाँ विश्‍व का सबसे बड़ा गोल्‍फ कोर्स है और यह देश का प्रमुख स्‍की रिज़ाॅर्ट भी है।​​इसकी सुंदरता के कारण इसे धरती का स्‍वर्ग भी कहा जाता है। फूलों के प्रदेश के नाम से मशहूर यह स्‍थान बारामूला ज़िले में स्थित है। यहाँ के हरे भरे ढलान यात्रियों को अपनी ओर खींचते हैं। समुद्र तल से इसकी ऊँचाई 2730 मी.है। हर बरस सर्दी के मौसम में यहाँ बड़ी संख्‍या में पर्यटक आते हैं। । 



यहाँ हमारा निवास होटल रोजवुड में है।होटल की इमारत लकड़ी की बनी है और वास्तुकला के हिसाब से बहुत सुंदर है। होटल के निकट ही एक झरना बह रहा है, जिसकी आवाज़ कमरों तक आ रही है।  सुबह लगभग सवा दस बजे हम पहलगाम से रवाना हुए थे।चिनार रिजॉर्ट में बिताये दो दिन एक मधुर याद बनकर ह्रदय में अंकित हो गये हैं। मार्ग में सर्वप्रथम हम सेब के बगीचे देखने के लिए रुके। कश्मीरी सेब की मिठास से भला कौन अपरिचित है? एक बगीचे की मालकिन से मुलाक़ात हुई, वह एक छोटे से कमरे में सेब की ताजी फसल तुड़वा कर रख रही थी। लाल गालों वाले उसके दो बच्चे भी वहाँ थे। हमने उनसे सेब ख़रीदे और उनके साथ तस्वीरें भी खिंचवायीं।एक दुकान पर सेब का रस मिल रहा था, सेब का अचार, जैम आदि भी ख़रीदे। एक वृक्ष पर चढ़ा छोटा सा बच्चा बड़ी कुशलता से सेब उतार रहा था, जिसका एक वीडियो हमने बना लिया। 



भारत में सबसे अधिक सेब का उत्पादन जम्मू कश्मीर में होता है. सेब उगाना कश्मीर में लाखों किसानों के लिए आय और आजीविका पैदा करने का एक बहुत महत्वपूर्ण संसाधन रहा है।देश के कुल सेब उत्पादन में जम्मू कश्मीर का अकेले का 70.54 फीसदी का योगदान है.यहाँ सेब की 113 किस्में उगायी जाती हैं। कश्मीर के सेब लाल और चिकनी त्वचा वाले होते हैं जो गुणवत्ता और स्वाद के मामले में बेहतर हैं। इनका कुरकुरा, मीठा और रसदार स्वाद तो आनंदित करता ही है, साथ ही ये विटामिन सी, फाइबर, और एंटीऑक्सीडेंट के अच्छे स्रोत हैं।



हमारा दूसरा पड़ाव था एक कार्पेट सेंटर, जहां कश्मीरी शालें, पैपिये मैशे ( काग़ज़ की लुगदी), अखरोट की लकड़ी के सामान तथा हस्तकला के कई अन्य उत्पाद भी मिलते हैं। कश्मीरी क़ालीन का इतिहास भी बहुत पुराना है, सेंटर के मालिक ने हमारे समूह को कारख़ाना दिखाया, जहां हथकरघे पर हाथ से क़ालीन बुने जा रहे थे।वहाँ रेशम के धागों तथा सूती धागों से कार्पेट बनाये जाते हैं। जिनकी क़ीमत हज़ारों से लेकर लाखों में होती है। हमने एक छोटा आसननुमा कार्पेट ख़रीदा और दो शालें भी। पश्मीना और तूत की शालें भी हमने देखीं, जो बहुमूल्य ऊन से बनी गई थीं, जिनका निर्यात विदेशों में भी होता है। कश्मीर के कालीन मुख्य रूप से शुद्ध ऊन, शुद्ध रेशम और कभी-कभी ऊन और रेशम के मिश्रण का उपयोग करके बनाए जाते हैं। अपनी असाधारण कारीगरी के कारण दुनिया भर के पारखी लोगों द्वारा सबसे अधिक मांग वाली कलाकृतियों में से एक हैं।कश्मीर के गलीचे नीले, लाल, हरे जैसे रंगों में पारंपरिक रूप से पुष्प डिजाइनों में बनाए जाते हैं जिनमें आम तौर पर कमल, मोर, अन्य पक्षी, चिनार के पत्ते व वृक्ष शामिल होते हैं। कश्मीर लोककथाओं में यह अक्सर कहा जाता है कि एक घर, उसकी आत्मा अर्थात एक कश्मीरी कालीन के बिना अधूरा है। इनको बनाने की कला को पहली बार लगभग 400 साल पहले भारत में मुगल शासकों द्वारा बढ़ावा दिया था। 


दोपहर के भोजन का वक्त हो चला था जब हम दुकान से बाहर निकले। ड्राइवर एक ढाबे पर ले गया, जहां गर्म भोजन मिल रहा था। राजमा व पालक पनीर यहाँ बहुत प्रचलित है। इसके बाद हम टनमर्ग में एक ऐसी दुकान पर रुके जहां गुलमर्ग में बर्फ पर चलने के लिए गमबूट  किराए पर मिलते हैं। सभी ने अगले दिन के लिए अपने साइज के जूते लिए। ठंड अब बढ़ने लगी थी, आगे का रास्ता पहाड़ी था। गुलमर्ग पहुँच कर सबने कहवा पिया और पैदल ही घूमने निकल पड़े।किंतु ठंड के कारण चलना कठिन लग रहा था, तभी एक जीप हमारे निकट आकर रुकी।  ड्राइवर ने स्थानीय दर्शनीय स्थल दिखाने का प्रस्ताव रखा जो हमने मंज़ूर कर लिया । गाड़ी में बैठे  हुए स्ट्राबेरी वैली, स्वीट पोटैटो वैली, लेपर्ड वैली दूर से दिखाईं, वहाँ ऑफ रोड गाड़ियाँ ही चलती हैं। महाराजा पैलेस, महारानी का मंदिर, बच्चों का पार्क, गोल्फ क्लब आदि दिखाते हुए वह गुलमर्ग का इतिहास तथा साल भर चलने वाली गतिविधियों के बारे में बता रहा था। ​​महारानी मंदिर, जो  शिव मंदिर के रूप में भी जाना जाता है, का निर्माण महाराज हरि सिंह ने अपनी पत्नी महारानी मोहिनी बाई सिसोदिया के लिए किया था। यह मंदिर हरियाली के मध्य एक छोटी सी पहाड़ी पर स्थित है और गुलमर्ग के सभी कोनों से दिखाई देता है।महाराजा पैलेस भी 19वीं सदी की शुरुआत में महाराज हरि सिंह द्वारा बनाया गया था।एक ऊँचे स्थान पर ले जाकर उसने पूर्णिमा के उगते हुए चाँद के दर्शन भी कराये। शाम घनी हो गई थी, जब बाहर कुछ भी दिखायी नहीं दे रहा था, तब वह हमें  कहानियाँ सुनाकर व्यस्त रखना चाहता था। उसने बताया कैसे गाँवों में लोग जंगली जानवरों के आने के डर से शाम होते ही घर बंद कर लेते हैं। वहाँ भूत-प्रेत से भी लोग डरते हैं। हमने अगले दिन करने वाली गंडोला राइड के बारे में भी पता किया और होटल लौट आये। 



बुधवार, नवंबर 29

पथ दिखाता चाँद नभ में

पथ दिखाता चाँद नभ में 


एक ज़रिया है कलम यह

हाथ भी थामे इसे जो, 

कौन जो लिखवा रहा है 

लिख रहा जो कौन है वो !


भाव बनकर जो उमड़ता 

बादलों सा कभी उर में, 

लहलहाती है फसल फिर 

अक्षरों की तब मनस में !

 

कभी सूखा मरुथलों सा 

ज्यों शब्द भी गुम हो गये,

हाथ में अपने कहाँ कुछ 

थाम ली  जब डोर  उसने !


चाह फिर क्योंकर जगायें 

हो रहा जो वही शुभ है, 

पथ दिखाता चाँद नभ में 

सूर्य  उतरा धरा पर है !


सोमवार, नवंबर 27

बेताब वैली में एक दोपहर


चिनार की छाँव में -भाग चार


बेताब वैली में एक दोपहर


पहलगाम में आज हमारा दूसरा दिन है। इंटरनेट पर इसके इतिहास के बारे में कुछ रोचक जानकारी मिली। 14वीं शताब्दी तक पहलगाम और आसपास का क्षेत्र हिंदू शासकों के नियंत्रण में था। 1346 में शम्सुद्दीन ने इस क्षेत्र पर कब्ज़ा कर लिया और उसके राजवंश ने मुगलों के आक्रमण तक इस क्षेत्र पर शासन किया। 1586 में पहलगाम और कश्मीर का पूरा क्षेत्र अकबर के नियंत्रण में आ गया। 18वीं सदी में शासक अहमद शाह दुर्रानी के आक्रमण के बाद यह अफगानिस्तान का हिस्सा बन गया। 19वीं शताब्दी की शुरुआत में, रणजीत सिंह ने इसे अपने सिख राजवंश में मिला लिया, लेकिन कुछ दशकों बाद अंग्रेजों ने इस पर नियंत्रण कर लिया।किंतु पहलगाम पर अंग्रेजों का अधिक समय तक अधिकार नहीं रहा।19वीं शताब्दी में ही उन्होंने पहलगाम के साथ-साथ कश्मीर को 7.5 मिलियन रुपये में गुलाब सिंह को बेच दिया, जो कश्मीर के राजा बने। इस संधि के अनुसार कश्मीर और पहलगाम के क्षेत्र ब्रिटिश शासन के दौरान स्वतंत्र राज्य के रूप में बने रहे, और भारत के विभाजन तक ऐसा ही रहा। आजादी के समय हरिसिंह यहाँ के राजा थे। सीमापार से आये कबालियों के आक्रमण से इसकी रक्षा के बाद से यह स्वतंत्र भारत का हिस्सा बन गया।


आज सुबह छह बजे से पहले ही नींद खुल गई थी। पहलगाम की  सुप्रसिद्ध अरु वैली, बेताब वैली और चंदनवाड़ी देखने के लिए सभी उत्सुक हैं। पहले होटल के आसपास की जगहें घूमकर देखी, साढ़े दस बजे ड्राइवर आ गया, उसने बस स्टैंड तक ले जाकर ट्रेवलर रोक दी, जब तक लोकल गाड़ी आती, हमने निकट स्थित गौरी-शंकर मंदिर में दर्शन करने का निर्णय लिया। एक-एक कर सभी ने शिव जी को जल अर्पित किया। पुजारी जी से प्रसाद लिया। घर से इतनी दूर कश्मीर में छोटे पर इतने सुंदर मंदिर में पूजा करने का अवसर मिलेगा, यह अप्रत्याशित था।निकट ही एक गुरुद्वारा भी था, जिसके बाहर एक पाठी धूप का आनंद ले रहे थे, हमारे पास समय नहीं था, सो दूर से ही मत्था टेककर हम वाहन में बैठ गये।  


पहलगाम से लगभग १२ मील दूर स्थित अरु नदी के किनारे स्थित अरु घाटी अपनी सुंदरता के लिए जानी जाती है, जहॉं हरे-भरे घास के विशाल मैदान, अनेक झीलें, बर्फ से ढके पर्वत और आकाश को छूते देवदार के वृक्षों कीलंबी क़तारें पर्यटकों का मन मोह लेती हैं।सर्दियों में जब अरु में भारी बर्फबारी होती है, तो स्कीइंग और हेली स्कीइंग का अभ्यास किया जाता है। हमने काफ़ी समय वहाँ घूमते हुए और प्रकृति के नज़ारों को निहारते, फ़ोटोग्राफ़ी करते हुए बिताया। कुछ  व्यापारी यहाँ भी अपने सामान बेच रहे थे।घोड़े और खच्चर वाले भी दूरस्थ बर्फ से ढके स्थानों तक ले जाने का आग्रह कर रहे थे, किंतु हमने अपने पैरों पर भरोसा करना ही बेहतर समझा। एक घंटा वहाँ बिताकर हम बेताब वैली के लिए निकल पड़े।  


लिद्दर नदी के किनारे स्थित “बेताब वैली” में बेताब नाम की एक फ़िल्म की शूटिंग हुई थी, इस घाटी का मूल नाम हजन घाटी है। यह पहलगाम से 15 किमी दूर स्थित है।यह अमरनाथ यात्रा के रास्ते में पहलगाम व चंदनवाड़ी के मध्य में स्थित है। यह घाटी भी बर्फ से पर्वतों और घने वनों से घिरी हुई है, जहां से हिमालय का मनोरम दृश्य दिखाई देता है। हरे-भरे घास के मैदानों में बहती हुई नदी और पृष्ठभूमि में बर्फ से ढके पहाड़ों के कारण यह पर्यटकों को आकर्षित करती है। घाटी देवदार के पेड़ों के घने जंगल से ढकी हुई और रंग-बिरंगे फूलों से सुसज्जित है। हम एक जगह नदी तक उतर कर गये और शीतल जल का स्पर्श किया। कश्मीर की पोशाक पहन कर आने यात्री तस्वीरें खिंचवा रहे थे, हरी पृष्ठभूमि में टंगे लाल, गुलाबी शोख़ रेशमी रंग के वस्त्र मन को अत्यन्त मोह रहे थे।  


इसके बाद ड्राइवर हमें चंदनवाड़ी ले गया। लिद्दर नदी के पास पहलगाम से लगभग 16 किलोमीटर दूर स्थित एक और अनोखे पर्यटन स्थल चंदन वाड़ी की ऊँचाई २, ८९५ मीटर है। चंदनवारी नवंबर से मई तक बर्फ से ढका रहता है। यहाँ से अमरनाथ की यात्रा आरम्भ होती है।अमरनाथ यात्रा के समय पहली रात तीर्थयात्री यहीं बिताते हैं। यहाँ रात्रि निवास के लिए कैंप लगाए जाते हैं।यह यात्रा जून में शुरू होती है और अगस्त में समाप्त होती है।यहाँ से ग्यारह किलोमीटर दूर प्रसिद्ध शेषनाग झील है, जिससे आगे जाकर ‘पंचतरणी’ अमरनाथ यात्रा का अंतिम पड़ाव है। शाम के साढ़े चार बजे थे जब हम वापस चिनार रिजॉर्ट लौटे। गर्म कहवा पीकर ऐसा लगा जैसे काफ़ी थकान दूर हो गई।  




क्रमश:

शुक्रवार, नवंबर 24

स्वप्न और जागरण

स्वप्न और जागरण 

जाग गया जो

वह देख सकता है 

 जूझ रहा है कैसे 

सोया हुआ व्यक्ति

दु:स्वप्नों से !

सुख की चाह की ख़ातिर 

दुख देता है औरों को 

पर बोता है बीज दुख के

 ख़ुद के लिए 

शिशु के रुदन के प्रति भी 

नहीं पिघलता जो दिल 

घिरा नहीं क्या घोर तमस से 

आत्मा का स्पर्श हुए बिना 

सत्य दिखाई नहीं देता 

अभाव और दुखों से जूझते जन 

निज सुख के आगे देख नहीं पाता 

 परम का स्पर्श मिल जाता है जब

करुणा जागती है उसी क्षण

कोई उम्मीद न करे औरों से 

ख़ुदा होने की 

चढ़ाना होगा सूली पर सदा 

ख़ुद को ही 

औरों को न वेदी पर तुम बिठलाओ 

ख़ुद के भीतर ही देवता को पाओ 

ख़ुदा से मिलने की कोई और तो रीत नहीं 

ख़ुद से बढ़कर मिलती कहीं भी प्रीत नहीं 

स्रोत भीतर प्रेम का है 

दिल की राह से जाना होगा 

वहीं से झरती है संग करुणा

 गंगा ज्ञान, भक्ति यमुना 

और कर्म की वरुणा ! 


बुधवार, नवंबर 15

चिनार की छाँव में - तृतीय भाग

चिनार की छाँव में - तृतीय भाग

पहलगाम की सैर


दोपहर के भोजन का समय हो चला था, अत: मार्ग में पड़ने वाले एक ढाबे में रुके, जहाँ स्वादिष्ट शाकाहारी भोजन बड़े स्नेह से परोसा जा रहा था। हमारा अलग पड़ाव था आठवीं शताब्दी में बना अनंतनाग जिले के अवंतीपुर में झेलम नदी के किनारे  स्थित एक प्राचीन विष्णु मंदिर अर्थात अवंती स्वामी मंदिर।जिसके मुख्य प्रांगण में एक बड़े आयताकार भूभाग के मध्य में एक मंदिर है। मुख्य मंदिर के चारों कोनों पर चार छोटे मंदिर हैं। आंगन की परिधि के चारों ओर कमरे बने हैं तथा खंभे हैं, और एक विशाल द्वार है। इस मंदिर में पत्थर की दीवारों पर अति सुंदर मूर्तियां बनी हुई हैं जो वास्तुशिल्प और कला का उत्कृष्ट नमूना हैं। प्रवेश करते ही एक गाइड हमारे साथ हो लिया और कहानी सी सुनाते हुए मन्दिर के इतिहास के बारे में बताने लगा।उसने विष्णु, भूदेवी तथा लक्ष्मी देवी की मूर्तियों को भी दिखाया। बालकृष्ण की एक मुस्कुराती हुई मूर्ति ने सबका मन मोह लिया। मध्यकाल में हुए विदेशी आक्रमणों तथा मौसम की मार द्वारा ये मंदिर खंडहरों में तबदील हो गए हैं। फिर भी कुछ मूर्तियाँ अभी भी अपनी आनंद मुद्राओं के द्वारा आकर्षित करती हुई बची हुई हैं तथा भारत के गौरवशाली अतीत की गाथा सुना रही हैं।  इस नगर की स्थापना का श्रेय उत्पल वंश के पहले राजा अवंती वर्मन (855-883 ईसवी) को दिया जाता है।​​राजा ने अवन्तिपुर में दो भव्य मंदिरों की स्थापना की थी। एक भगवान विष्णु का मंदिर, जिसे अवंती स्वामी मंदिर कहते हैं और दूसरा भगवान शिव का मंदिर, जिसे अवंतीश्वर मंदिर कहते हैं। मंदिर में कर्मचारी रख-रखाव का कार्य भी कर रहे थे, जिसमें ब्रश की सहायता से मूर्तियों पर लगी मिट्टी को धीरे-धीरे हटाया जाता है। सुंदर बगीचा भी थी, जिससे वातावरण अति शांत और  मनोहर लग रहा था।पर्यटक अपनी-अपनी रुचि के अनुसार स्थान पर खड़े होकर तस्वीरें उतार रहे थे।


इसके बाद हम पहलगाम के मुख्य बाज़ार में आ गये और यहाँ पहला पड़ाव था फूलों और हरियाली से भरा एक सुंदर बगीचा, जहाँ लोग कश्मीरी ड्रेस पहन कर तस्वीरें खिंचवा रहे थे। इसके बाद पोनी पर बैठ कर ‘बैसरन’ नामक स्थान देखने गये, जिसे यहाँ मिनी स्विट्ज़रलैंड कहते हैं। हम छह लोगों में से पाँच ने ही घुड़सवारी करने का निर्णय लिया। रास्ता बेहद ऊँचा-नीचा, फिसलन भरा था। कहीं घाटियाँ थीं तो कहीं खड़ी चढ़ाई। पाँच लोगों के साथ केवल दो ही घोड़े वाले चल रहे थे, यानी तीन घोड़े अपने सवारों को अपने-आप ही ठीक रास्ते पर ले जा रहे थे। कुल मिलकर यात्रा बहुत ही रोमांचक थी, मंज़िल पर पहुँचने तक मार्ग में चार-पाँच जगह रोककर कुछ दर्शनीय स्थान भी दिखाये। जिनमें घाटी में बहती हुई लिद्दर नदी का दृश्य अति सुंदर था। बैसरन पहुँचे तो लगा जैसे किसी कल्पना लोक में आ गये हों। मीलों दूर तक फैले हरे-भरे मैदान व चारागाह, चारों ओर बर्फ से ढके नीले पर्वतों की उच्च शृंखलाएँ। देवदार के वृक्षों की घनी क़तारें और एक तरफ़ बहती निर्मल नदी की कल-कल ! अनेक यात्री वहाँ आये हुए थे, समान बेचने वाले भीठे और कहवा बेचने वाले भी। कुछ खेलों की भी व्यवस्था थी । इधर-उधर घूमते और तस्वीरें खींचते हुए हमने काफ़ी समय वहाँ बिताया। जब ठंड बढ़ने लगी तो वापसी की याद आयी, वापसी की यात्रा भी कम रोमांचक नहीं थी,उतरते हुए घोड़ा झुक जाता था तब ख़ुद को उस पर बैठाये रखने के लिए शरीर को पीछे की तरफ़ खींच कर रखना होता है, यह घोड़ेवाला बताता जा रहा था।पहलगाम बाज़ार में उसी स्थान पर हमारा ड्राइवर इंतज़ार कर रहा था। शाम होते-होते हम होटल लौट आये और कुछ देर विश्राम करके स्वादिष्ट कश्मीरी रात्रि भोज का आनंद लिया।  

 


मंगलवार, नवंबर 14

जलें दीप जगमग हर मग हो


जलें दीप जगमग हर मग हो

पूर्ण हुआ वनवास राम का, 
सँग सीता के लौट रहे हैं
अचरज देख हुआ लक्ष्मण को,
द्वार अवध के नहीं खुले हैं !

अब क्योंकर उत्सव यह होगा,
दीपमालिका नृत्य करेगी,
मंगल बन्दनवार सजेंगे 
रात अमावस की दमकेगी! 

हमने भी तो द्वार दिलों के 
कर दिये बंद डाले ताले,
राम हमारे निर्वासित हैं, 
जब अंतरदीप नहीं बाले !

राम विवेक, प्रीत सीता है, 
दोनों का कोई मोल नहीं
शोर, धुआँ तो नहीं दिवाली, 
जब सच का कोई बोल नहीं !

धूम-धड़ाका, जुआ, तमाशा, 
उत्सव का कब करें सम्मान
पीड़ित वातावरण प्रदूषित  
देव संस्कृति का है अपमान !

जलें दीप जगमग हर मग हो,
अव्यक्त ईश का भान रहे
मधुर भोज, पकवान परोसें, 
मनअंतर में रसधार बहे !

शुक्रवार, नवंबर 10

चिनार की छाँव में


यात्रा विवरण - द्वितीय भाग

चिनार की छाँव में


सुबह साढ़े आठ बजे हाउसबोट से उस शिकारे पर सारा सामान रखवाया गया, जो हमें घाट संख्या नौ पर ले जाने आया था।गर्म कपड़ों के कारण छोटे-बड़े सूटकेस व बैग कुल मिलाकर दो दर्जन से ज़्यादा नग हो गये थे। शिकारे में अब भी काफ़ी जगह थी, एक अन्य हाउसबोट से तीन जन के एक परिवार को भी सामान सहित उसमें बैठाकर नाविक हमें झील से गुजार कर ले जाने लगा। सुबह का वातावरण, हवा में ठंडक और धुंध के कारण सब कुछ एक स्वप्निल दृश्य सा उपस्थित कर रहा था। बीती शाम को रोशनियों से झील जगमगा रही थी। सड़क किनारे व पंक्तिबद्ध खड़ी अनेकों नावों में लगी रंगीन बत्तियाँ पानी में झिलमिला रही थीं, पर सुबह के समय पानी में उगी वनस्पतियाँ, कमल के हरे विशाल पत्ते, कुमुदनी के झुरमुट और बीच-बीच में तैरती हुईं मुर्ग़ाबियाँ और बत्तख़ें डल झील के सौंदर्य को बढ़ा रही थीं।रास्ते में नावों पर फूल बेचने वाले एक व्यक्ति से बात हुई। उसने बताया, छह किलोमीटर दूर  एक गाँव में उसके खेत हैं। कड़कती हुई सर्दी में वह सुबह ही फूल व बीज बेचने निकल जाता है।घाट पर टेम्पो ट्रैवलर का ड्राइवर ज़फ़र प्रतीक्षा कर रहा था, वह अगले एक सप्ताह हमारे साथ रहने वाला है। 


हमारा पहला पड़ाव श्रीनगर से सिर्फ 20 किलोमीटर की दूरी पर एक छोटा शहर पोंपोर था, पूरे कश्मीर में यही एक स्थान है, जहाँ केसर की खेती होती है। ड्राइवर हमें एक बड़ी दुकान में ले गया, जिससे होकर हम खेतों तक पहुँच गये। एक किसान ने बताया,  केसर विश्व का सबसे कीमती पौधा है। केसर यहां के लोगों के लिए वरदान है। क्योंकि केसर की कीमत बाज़ार में दो से ढाई लाख रुपये प्रति किलो है।उसने कुछ पौधे एक गमले में उगाये  थे, हमने देखा, केसर के पौधे में घास की तरह लंबे, पतले व नोकदार पत्ते निकलते हैं। खेतों में अभी फूल नहीं आये थे। पंपोर के खेतों में शरद ऋतु आते ही केसर के बैंगनी रंग के फूल खिलने लगते हैं। इनके भीतर लाल या नारंगी रंग के तीन वर्तिकाग्र पाए जाते हैं। यही केसर कहलाता है। लाल-नारंगी रंग के आग की तरह दमकते हुए केसर को संस्कृत में 'अग्निशाखा' नाम से भी जाना जाता है।इन फूलों की इतनी तेज़ खुशबू होती है कि आसपास का क्षेत्र महक उठता है। केसर की गंध तीक्ष्ण और स्वाद कटु होता है। केसर को निकालने के लिए पहले फूलों को चुनकर किसी छायादार स्थान में बिछा देते हैं। सूख जाने पर फूलों से केसर को अलग कर लेते हैं। उस दुकान में केसर के अलावा विभिन्न सूखे मेवे, अखरोट, गुलाबज़ल, बादाम, कहवा पाउडर व मिश्रण और केसर मिलाकर बनाये कई अन्य उत्पाद भी मिले। दुकान के कर्मचारी बहुत अच्छी तरह हरेक खाद्य वस्तु को ख़रीदने से पहले खाकर देखने को कह रहे थे।मामड़ा बादाम, काग़ज़ी अखरोट, ब्लू बेरी का स्वाद भी सबने  लिया, केसर व बादाम युक्त कहवा पीया। 


श्रीनगर से पहलगाम जाते वक़्त रास्ते में बहुत सी दुकानों में और सड़क किनारे भी क्रिकेट के बल्ले टंगे दिख रहे थे। हम आगे चले तो ड्राइवर कश्मीर विलो क्रिकेट बैट्स की एक दुकान में ले गया; उसके पीछे ही फ़ैक्ट्री थी। वहीं विलो के कुछ पेड़ भी लगे थे, जिसकी लकड़ियों को काट कर सुखाने के लिए छत पर रखा गया था।विश्व में इंग्लैंड के बाद कश्मीर दूसरा सबसे बड़ा स्थान है, जहां विलो का पेड़ उगता है। इन पेड़ों को तैयार होने में लगभग 10 से 12 साल लग जाते हैं। पेड़ के तने से लकड़ी के समान टुकड़ों को  काटकर सुखाया जाता है, इसमें लगभग डेढ़ साल का समय लगता है फिर बैट तैयार कर के बाज़ार में आता है।एक औसत पेड़ से लगभग 100 से लेकर 200 तक बैट निकल जाते हैं। हमने एक कक्ष में बनते हुए बैट भी देखे तथा पुत्र के लिए एक बैट ख़रीदा। जिसे हल्का करने के लिए उसके ऊपरी भाग से कुछ लकड़ी को निकल दिया गया था तथा नमी को और कम करने के लिए हल्की आग से गुजारा गया था। दुकानदार ने कहा, बैट हमारे घर पहुँचने से पहले ही कोरियर द्वारा पहुँच जाएगा। इसके बनाने में हाथों की कलाकारी भी ज़रूरी है और खास मशीनों का इस्तेमाल भी होता है।


क्रमश:


मंगलवार, नवंबर 7

चिनार की छाँव में

यात्रा विवरण - प्रथम भाग




चिनार की छाँव में 

एक बार कश्मीर जाने का ख़्वाब मन में न जाने कब से पल रहा था, पर पिछले कुछ दशकों में वहाँ के हालात देखते हुए इतने वर्षों में हम इस ख़्वाब को कभी हक़ीक़त में नहीं उतार पाये थे ।आज कश्मीर और शेष भारत के मध्य सभी दीवारें गिर रही हैं; मानवता और सांप्रदायिक सद्भाव की जीत हुई है।आतंकवाद का भयावह समय अतीत की बात हो चुका है।अमरनाथ यात्रा में लाखों लोग नि:शंक होकर शामिल हो रहे हैं। कश्मीर भारत का ताज है, और आज शान्तिप्रिय बन समृद्धि की राह पर चलकर वह पुन: अपनी  चमक वापस पा रहा है। पाँच साल पहले आर्टिकल ३७० हटने के बाद वहाँ विकास का एक नया क्रम आरंभ हुआ है; साथ ही जान-पहचान वाले कुछ लोगों की मुस्कुराती हुई तस्वीरें सोशल मीडिया पर देखकर और समाचारों में वहाँ की बदली हुई फ़िज़ाँ के बारे में पढ़-सुनकर, एक शाम जुलाई के महीने में एक मित्र परिवार के साथ बातों-बातों में हमने भी कश्मीर यात्रा का टिकट कटा लिया। एक महीने बाद हम दो मित्र दंपतियों में एक अन्य दंपत्ति आ जुड़े। उन्हें चेन्नई से आकर दिल्ली से हमारे साथ श्रीनगर जाना था। इस तरह छह लोगों (गोपाल-ललिता, राघव-शांति और हम दोनों) का समूह मन में आशा और विश्वास भरे २६ अक्तूबर की सुबह अपने गंतव्य की ओर चल पड़ा। 


सुबह तीन बजे हम बंगलुरू हवाई अड्डे के लिए रवाना हुए।इस बात का हमें जरा भी अंदाज़ा नहीं था कि सुरक्षा जाँच के बाद प्रस्थान द्वार के पास बैठे हुए, बैंगलुरु के नये भव्य टर्मिनल के हॉल के शीशे की जो दीवार दूधिया दिखायी दे रही है, वह उसका स्वाभाविक रंग नहीं बल्कि बाहर का घना कोहरा है। कोहरे के कारण सभी उड़ानें काफ़ी देर से चलीं। लगभग पाँच घंटे हमने वहीं बिताये, जबकि हमारे चेन्नई वाले सहयात्री दिल्ली पहुँच कर श्रीनगर के लिए निकल पड़े थे। एयर इंडिया ने सुबह का स्वादिष्ट नाश्ता भी कराया और श्रीनगर के लिए वैकल्पिक उड़ान में सीट सुरक्षित करने में बहुत सहायता की।शाम को साढ़े छह बजे जब हम डल झील पर अपने निर्धारित हाउसबोट पर पहुँचे, राघव व शांतिजी  ने हमारा स्वागत किया, वे शिकारा पर झील की सैर करके लौट आये थे।सर्वप्रथम हमें गर्मागर्म कश्मीरी पेय कहवा पेश किया गया। रात्रि भोजन भी स्वादिष्ट था, जो साथ ही लगे एक अन्य हाउसबोट के एक कक्ष में परोसा गया था। देखते ही देखते हाउसबोट में ही कुछ दुकानें भी लग गयीं। नजीर अहमद कई प्रकार के कश्मीरी वस्त्र लाया था। हम सभी ने एक या दो शालें और स्टोल ख़रीदे।


आज यात्रा का दूसरा दिन है और हाउसबोट में रहने का पहला अवसर।नक्काशीदार लकड़ी से बना यह हाउसबोट कलात्मक सुंदर मोटे क़ालीनों, रेशमी पर्दों तथा लकड़ी के आकर्षक फ़र्नीचर के कारण किसी राजभवन के कक्ष सा प्रतीत होता है।अभी सुबह के साढ़े चार ही बजे हैं। ठंड की अधिकता के कारण हमारी नींद जल्दी खुल गई है। वैसे यहाँ का न्यूनतम तापमान फ़िलहाल आठ डिग्री है। विद्युत कंबल ऑन कर देने के कारण अब बिस्तर काफ़ी गर्म हो गया है और कमरे में ठंड का अहसास नहीं हो रहा है।अजान की लयबद्ध आवाज़ें आ रही हैं। हम बाहर निकले तो कुछ दुकानदार डल झील में शिकारों पर घूमते हुए फूल, फूलों के बीज, ऊनी वस्त्र, कहवा आदि बेचने आ गये।  नाश्ते के समय भी एक व्यापारी अखरोट की लकड़ी की बनी वस्तुएँ दिखा रहा था। हाउसबोट से ही शंकराचार्य मंदिर का सुंदर नजारा भी दिख रहा है, जो एक ऊँचे पर्वत पर स्थित है। खीर भवानी के एक मंदिर की बात भी यहाँ के एक कर्मचारी ने बतायी। आज आठ बजे हमें पहलगाम के लिए रवाना होना है, जो यहाँ से ज़्यादा दूर नहीं है। चार-पाँच घंटों में हम वहाँ पहुँच जाएँगे।   

क्रमश:


सोमवार, नवंबर 6

दिवाली आयी लिए ख़ुशियाँ

दीपावली और भाईदूज पर 

हार्दिक शुभकामनायें 

घर-बाहर निर्मल प्रकाश मय 

दिप-दिप दीप जलें हर आँगन, 

स्वच्छ चमकता हो हर कोना 

भर जायें  ख़ुशियाँ हर दामन !


द्वार सजा हो रंगोली से 

दीपक जलते हों चौबारे, 

दिवाली आयी लिए ख़ुशियाँ 

जगमग करतीं हो दीवारें !


रहे धरा पर नहीं तमस अब 

माँ लक्ष्मी का लगेगा फेरा, 

जहां सरसता हो जीवन में 

वहीं लगायेंगी वह डेरा !


जहाँ बँटे हर भाव ह्रदय का

 शेष रहे जब शून्य कृपणता,

अनजाने नहीं पथ रह जायें

बिखरे प्रेम सुरभि के जैसा !

 

पर्व अनोखा ले आता फिर 

भाईदूज- प्रीत का बंधन, 

केसर, अक्षत, रोली टीका 

या मस्तक पर महके चंदन !


जीवन पथ हो सदा प्रकाशित 

यही कामना करता है उर, 

आरोग्य का पाएँ वरदान 

 दूर रहे दुख अंधकार हर !