गुरुवार, अप्रैल 28

नीड़ बनाना चाहे चिड़िया

नीड़ बनाना चाहे चिड़िया

जाने बनी है किस माटी की
बड़ी हठीली, जिद की पक्की,
नन्हीं जान बड़ी फुर्तीली
लगती है थोड़ी सी झक्की !

सूखे पत्ते, घास के तिनके
सूखी लकड़ी, कपड़े लत्ते
चोंच में भर-भर लाती चिड़िया
नीड़ बनाना चाहे चिड़िया !

बाहर पूरी कायनात है
चाहे जहाँ बनाये घर वो  
न जाने क्यों घर के भीतर
बसना उसको भाए अब तो !

पूजा वाली शेल्फ पे बैठी
कभी ठिकाना अलमारी पर
इधर भगाया उधर आ गयी
विरोध जताती चीं चीं कर !  

हार गए सभी किये उपाय
तोड़ दिया घर कितनी बार
लेकिन उसका धैर्य अनोखा
फिर-फिर लाती तिनके चार !

बंद हुआ जो एक मार्ग तो
झट दूजा उसने खोज लिया
खिडकी की जाली से आयी 
कैसे निज तन को दुबलाया !

शायद उसको जल्दी भी हो
अब नयी जगह ढूंढे कैसे
अप्रैल आधा बीत गया है
घर बस जाये जैसे तैसे !

अनिता निहालानी
२९ अप्रैल २०११ 

बुधवार, अप्रैल 27

बस यूँ ही पुकारा करते हैं






बस यूँ ही पुकारा करते हैं


जीने की तमन्ना दिल में है, जीने का सबब मालूम नहीं
जीने का सलीका सीखा नहीं, बस वक्त गुजारा करते हैं I

ऊपर ऊपर से सहला दें, दिल छू लें ऐसे बोल कहाँ
कभी हाथ बढा के रोका नहीं, बस यूँ ही पुकारा करते हैं I

कुदरत के पुजारी बनने का, दावा करते जो थकते नहीं
साथी बन गए लुटेरों के, क्या खूब नजारा करते हैं I

जो दीनो-धर्म की बातें करें, कण-कण में रब है समझाएं
परहेज उन्हें भी गैरों से, रब का बंटवारा करते हैं I

जन्मों तक साथ निभाने की, कसमें खाना तो सीख लिया
सुख था तो साथ गंवारा था, गर्दिश में किनारा करते हैं I

अनिता निहालानी
२७ अप्रैल २०११

सोमवार, अप्रैल 25

आँख मुंदी और मुक्त हो गए



आँख मुंदी और मुक्त हो गए

आँख मुंदी और मुक्त हो गए, ऐसा भला कहीं होता है
तोड़ सकें जीते जी पहरे, ऐसा यहाँ नहीं होता है I

मन के बंधन, तन आलम्बन, रगीं दुनियावी आकर्षण
छोड़ दे  सकें हँसते-हँसते, ऐसा भला कहीं होता है I

कतरा-कतरा कर जो जोड़ा, चाहे कितनों का दिल तोड़ा
उसे लुटा दें निज हाथों से, ऐसा यहाँ नहीं होता है I

दासों का सा बीता जीवन, सदा सहा निज मन का शासन
दें आज्ञा अपने स्वामी को, ऐसा भला कहीं होता है I

मुक्ति को आदर्श बनाया, पर जीवन भर उसे भुलाया
उड़ ही जाएँ खग पिंजरों के, ऐसा सदा नहीं होता है I

अनिता निहालानी
२५ अप्रैल २०११  

शनिवार, अप्रैल 23

बादल बरसा बरसा बादल

आज यहाँ फिर बारिश हो रही है... जोरदार बारिश...


दिल तो बादल है  



दिल है बादल, बादल दिल है
दोनों की इक ही मंजिल है,
खुद से दूर बसे जा दोनों
पीड़ा विरही की हासिल है !

सूरज सुलग रहा ज्यों नभ में
दिल में भी तो लगी आग थी,
नीर उड़ा ले गयी हवाएं
श्वासें नमी ले गयीं दिल की !

उमड़-घुमड़ नयनों से बरसी
वही अमल जलधार बनी है,  
भीतर छाया था तनाव सा  
नभ में ज्यों कैनात तनी है !  

नन्हा सा दिल बिछड़ा खुद से
सँग संसार के उड़ता-फिरता,
पुनः सताती विरह की पीड़ा
रह-रह कर कई बार बरसता !

गरज-गरज कर बरसे बादल
जैसे कोई दिल हो पागल,
प्रथम कालिमा छायी उदासी
धूमिल सी ज्यों प्यास रुआंसी !

फिर अश्रु से आँख भर आयी
अंतहीन तब फूटी रुलाई,
रुकने का क्यों नाम न लेती
ताल-तलैया सब भर देती !

सुबक-सुबक ज्यों रोता बच्चा
बादल भर जाता चहबच्चा
कभी डराता, कभी लुभाता
ओले, वृष्टि सब बरसाता !

बरस रहा अनवरत आज है
जाने इसमें क्या राज है,
सँग बूंदों का बजे साज है
घन बादल का बजे बाज है !

बिछड़ा था जो जल सागर से
बरस-बरस घर आया नभ से,
बादल सागर का था अपना
दूर हुआ ज्यों कोई सपना !


अनिता निहालानी
२३ अप्रैल २०११


  ... 

शुक्रवार, अप्रैल 22

कैसा यह गोरख धंधा है


कैसा यह गोरख धंधा है

शासन में गोरख धंधा है
हर कोई मांगे चंदा है,
"ए राजा’ को महल दिया
रोटी को तरसे बंदा है I

यहाँ पैसे वाले एक हुए
धन के बल पर नेक हुए,
मिलजुल कर सब मौज उड़ाते
शर्म बेच कर फेक हुए I

हड़प लिये करोड़ों गप से
जरा डकार नहीं लेते,  
अरबों तक जा पहुंची बोली
बस बेचे देश को देते I  

है जनता भोली विश्वासी  
थोड़े में ही संतोष करे
सौंप दी किस्मत जिन हाथों में
वे सारे अपनी जेब भरें I

सदा यही होता है आया
कुछ खट-खट कर श्रम करते
कुछ शातिर बन जाते शासक
बस पैसों में खेला करते I

जागें अब भी कुछ तो सोचें
अपनी किस्मत खुद ही बदलें
जेल ही जिनका असली घर है
ऐसे राजाओं से बच निकलें I

अनिता निहालानी
२२ अप्रैल २०११




बुधवार, अप्रैल 20

अम्बर से बूंदें जब आतीं



अम्बर से जब बूँदें आतीं

बरस रहीं हैं झर-झर बूँदें
बरस रहा है अमि नभ घट से,
चक्र सृष्टि का, चक्र वृष्टि का
जाने कौन? चलाया किसने?

सागर से जन्मी जो बदली
गर्भित हुई स्वयं मृदु जल से,
बरस पर्वतों पर शुभ धारा
चली नदी पुनः सागर होने !

टप टप टप टप शोर मचातीं
तड़ तड़ तड़ तड़ धार बहातीं,
इसे भिगोतीं उसे भिगोतीं
पंछी फूल सभी हर्षातीं !

कण-कण वसुधा का महकातीं
अम्बर से जब बूँदें आतीं,
पाट दरारें समतल करती
शीतलता पा भूमि सरसती !

मानो कोई नृत्य उमगता
नभ से जब जलधार फूटती,
वसुंधरा ज्यों बांह पसारे
अम्बर को अंतर में धरती !

वर्षा वारिद सिंचित करता
पोर-पोर भूमि का हुलसता,
झोली भर भर धान्य लुटाता
फूल-फलों से जग भर देता !

मुखरित होते गान अनोखे
चातक, मोर, पपीहा, दादुर, 
कहीं कूकती श्यामा कोकिल
मधुर कूजती मैना, बुलबुल !

पत्ते नाचें, पुष्प विहँसता 
धुला-धुला घर-आंगन लगता,
संग भीगता हँसता बालक
छप-छप कर तन मन हर्षाता !

जंगल-जंगल वृक्ष झूमते
उपवन-उपवन पुष्प नाचते,
गांव-गांव में उत्सव मनता
शहर-शहर में छाते तनते ! 


अनिता निहालानी 
२० अप्रैल २०११









सोमवार, अप्रैल 18

मृणाल ज्योति संस्था द्वारा बीहू नृत्य

प्रिय ब्लॅागर साथियों,  मृणाल ज्योति से मैंने  आपका परिचय विश्व विकलांग दिवस ,३ दिसम्बर की पोस्ट में कराया था , बीहू के अवसर पर ये बच्चे भला कैसे पीछे रहते , अपनी संस्था के लिये धन एकत्र करने  हेतु निकल पड़े अपनी टोली लेकर मनोहारी नृत्य दिखाने,प्रस्तुत हैं कुछ तस्वीरें !   
बीहू की मस्ती छाई , मन भावन ऋतु है आई


ढोल बजे मृदंग बजे, तुरही और खरताल बजे
बंसी की धुन मोहक है
गीत सुरीले गूंज रहे  

कदम सभी के थिरक रहे नैनों से भी पुलक बहे

शनिवार, अप्रैल 16

पुष्प बिखेरे सुरभि सुवासित


पुष्प बिखेरे सुरभि सुवासित

ओस की मोती जैसी बूंदें
सजा गयी हैं कोमल तन को,
सद्यस्नात पुष्प अति मनहर
भा जाता हर निर्मल मन को !

खिलकर कृत-कृत्य हो जाता
तप करता है वह मिटकर,
चढ़ जाता है उन चरणों पर
हो जाता अर्पित वह हंसकर !

अंतर हरा-भरा हो जाता
खुशियों की फसल लहराए,
पुष्प बिखेरे सुरभि सुवासित
जग को अपना आप चढ़ाए !

चलता-फिरता देवालय है  
अति पावन एक शिवालय है,
बहती प्रेम की गंगा जिससे
यह ऐसा एक हिमालय है !

अनिता निहालानी
१६ अप्रैल २०११

बुधवार, अप्रैल 13

बैसाखी के शुभ अवसर पर आप सभी को हार्दिक बधाई !

आयी बैसाखी

जब बजे ढोल, नाचे कृषक
झूमी फसलें, उर में पुलक !
‘नब बर्ष’ हुआ बंगाल में जब
‘पुत्तांडु’ तमिल मनायें सब
केरल में है ‘पूरम विशु’
आसाम में ‘रंगाली बीहू’ !
गुरूद्वारों में रौनक छायी
तब प्यारी बैसाखी आयी !
धूम मचाती भाती हर मन
जन्म खालसा हुआ इसी दिन
अमृत छका पंच प्यारों ने
गुरुसाहब की याद दिलाने
भंगड़ा गिद्दा होड़ लगाते
घर बाहर रोशन हो जाते !
सब के मन पर मस्ती छायी  
तब प्यारी बैसाखी आयी !

अनिता निहालानी
१३ अप्रैल २०११

मंगलवार, अप्रैल 12

रामनवमी के शुभ अवसर पर आप सभी को शुभकामनाएँ !

भीतर कोई जाग गया है

भीतर कोई जाग गया है
जला के कोई आग गया है,
दिव्य अनल शीतल, शुभकारी
दिप-दिप होती अंतर बारी !

जब हम नयन मूंद सो जाते
स्वप्नलोक में दौड़ लगाते,  
तब भी कोई रहे जागता   
खैर हमारी रहे मांगता !

कोई घेरे हर पल हमको
साया कोई साथ लगा है,
सदा निगाहें पीछा करतीं
अंतर में वह प्रीत पगा है !

माँ सा ध्यान रखे है सबका
फिर क्यों दिल में द्वंद्व सहें,  
सौंप सभी कुछ रहें मुक्त हो,
प्रीत में उसकी गीत कहें !

मधुरिम वंशी धुन हो जाएँ
उसकी हाँ में हाँ मिलाएं,
मुक्त गगन सा जीना सीखें
उन पलकों में रहना सीखें !

कैसा अदभुत खेल रचाया
अपनी माया में भरमाया,
मकड़ी जैसे जाल बनाती
संसार स्वयं से उपजाया !

अनिता निहालानी
१२ अप्रैल २०११  

शनिवार, अप्रैल 9

खोना ही असली पाना है

खोना ही असली पाना है

जाने कितने दीप जलाये
जाने कितने पुष्प चढ़ाये
आतुर अंतर को समझाने
मोती से अश्रु बिखराए !

धूल भरी राहों को नापा
भयावह जंगल भी पाए
मनचाही मंजिल को पाने
शूलों से भी पग बिंधवाये !

किन्तु मिटी न चाहत उर की
मंजिल भी पीछे तज आये
रीता मन रीते कर बांधे
खुद से मिलकर भी घबराए !

त्याज्य हुईं तृष्णाएं जिस क्षण
अंतर में उपवन उग आये
खोना ही असली पाना है
जीवन पग पग पाठ पढ़ाये !

अनिता निहालानी
९ अप्रैल २०११