घड़ी विचित्र यह दौर अनोखा
जूझ रहा है देश आजकल
जिस विपदा से वह है भारी,
तुच्छ हुई है सम्मुख उसके
जो कुछ भी की थी तैयारी !
हैं प्रकृति के नियम अनजाने
मानव जान, जान न जाने,
घड़ी विचित्र यह दौर अनोखा
कभी न पहले ऐसा देखा !
कोटि-कोटि जन होते पीड़ित
उतनी हम सांत्वना बहायें,
भय आशंका के हों बादल
श्रद्धा का तब सूर्य जलाएं !
पृथ्वी का जब जन्म हुआ था
अनगिन बार बनी यह बिगड़ी,
प्रलय भी झेली, युद्ध अनेक
महामारियों की विपदा भी !
किन्तु सदा सामर्थ्यवान हो
विजयी बन वसुधा उभरी है
इसकी संतानों की बलि भी
व्यर्थ नहीं कभी भी हुई है
सब जन मिलकर करें सामना
इक दिन तो यह दौर थमेगा,
मृत्यु-तांडव, विनाशी-लीला
देख-देख मनुज संभलेगा !
जीतेगी मानवता इसमें
लोभी मन की हार सुनिश्चित,
जीवन में फिर धर्म जगेगा
मुस्काएगी पृथ्वी प्रमुदित !