शुक्रवार, अप्रैल 30

घड़ी विचित्र यह दौर अनोखा

घड़ी विचित्र यह दौर अनोखा


जूझ रहा है देश आजकल 

जिस विपदा से वह है भारी,

तुच्छ हुई है सम्मुख उसके 

जो कुछ भी की थी तैयारी !


हैं प्रकृति के नियम अनजाने 

मानव जान, जान न जाने, 

घड़ी विचित्र यह दौर अनोखा 

कभी न पहले ऐसा देखा !


कोटि-कोटि जन होते पीड़ित 

उतनी हम सांत्वना बहायें,

भय आशंका के हों बादल 

श्रद्धा का तब सूर्य जलाएं !


पृथ्वी का जब जन्म हुआ था 

अनगिन बार बनी यह बिगड़ी,  

प्रलय भी झेली, युद्ध अनेक

 महामारियों की विपदा भी !


किन्तु सदा सामर्थ्यवान हो 

विजयी बन वसुधा उभरी है 

इसकी संतानों की बलि भी 

व्यर्थ नहीं कभी भी हुई है 


सब जन मिलकर करें सामना 

इक दिन तो यह दौर थमेगा, 

मृत्यु-तांडव, विनाशी-लीला  

देख-देख मनुज संभलेगा !


जीतेगी मानवता इसमें 

लोभी मन की हार सुनिश्चित, 

जीवन में फिर धर्म जगेगा 

मुस्काएगी पृथ्वी प्रमुदित !


 

मंगलवार, अप्रैल 27

पावन परिमल पुष्प सरीखा

पावन परिमल पुष्प सरीखा
एक चेतना! चिंगारी हूँ
एक ऊर्जा सदा बहे जो,
सत्य एक धर रूप हजारों
परम सत्य के संग रहे जो !

अविरत गतिमय ज्योतिपुंज हूँ
निर्बाधित संगीत अनोखा,
सहज प्रेम की निर्मल धारा
पावन परिमल पुष्प सरीखा !

चट्टानों सा अडिग धैर्य हूँ
कल-कल मर्मर ध्वनि अति कोमल,
मुक्त हास्य नव शिशु अधरों का
श्रद्धा परम अटूट निराली !

अन्तरिक्ष भी शरमा जाये
ऐसी ऊँची इक उड़ान हूँ,
पल में नापे ब्रह्मांडों को
त्वरा युक्त इक महायान हूँ !

एक शाश्वत सतत् प्रवाह जो 
शिखरों चढ़ा घाटियों उतरा,
पाया है समतल जिसने अब
सहज रूप है जिसका बिखरा !

सोमवार, अप्रैल 26

रहमतें बरसती हैं

 

रहमतें बरसती हैं

करें क़ुबूल सारे गुनाहों को हम अगर

रहमतें बरसती हैं, धुल ही जायेंगे 


हरेक शै अपनी कीमत यहाँ माँगे 

 भला कब तक चुकाने से बच पाएंगे 


 वही खुदा बसता सामने वाले में भी

 खुला यही राज कभी तो पछतायेंगे 


मांग लेंगे करम सभी नादानियों पर 

और अँधेरे में मुँह नहीं छुपायेंगे 


उजाले बिखरे हैं उसकी राहों में 

 यह अवसर भला क्यों चूक जायेंगे 


अपनी ख्वाहिशें परवान चढ़ाते आये 

अब उसी मालिक के तराने गाएंगे 


भूख से ज्यादा मिला प्यास फिर भी न बुझी 

 आखिर कब तक यह मृगतृषा बुझाएंगे 

 

शनिवार, अप्रैल 24

वासन्ती प्रभात

 वासन्ती प्रभात 

जन्म और मृत्यु के मध्य 

बाँध लेते हैं हम कुछ बंधन

जो खींचते हैं पुनः इस भू पर 

भूमिपुत्र बनकर न जाने कितनी बार बंधे हैं 

अब पंच तत्वों के घेरे से बाहर निकलना है 

पहले निर्मल जल सा बहाना है मन को 

फिर अग्नि में तपना है 

होकर पवन के साथ एकाकार 

घुल जाना है निरभ्र आकाश में 

फिर आकाश से भी परे 

उस परम आलोक में जगना है 

जहां कभी दिन होता न रात 

सदा ही रहता है वासन्ती प्रभात 

जहाँ द्रष्टा और दर्शन में भेद नहीं 

जहाँ दर्शन और दृश्य में अभेद है 

आनंद के उस लोक में 

जहां आलोक बसता है 

वाणी का उदय होता है 

मौन के उस अनंत साम्राज्य में 

जहाँ चेतना निःशंक विचरती है 

अहर्निश कोई नाम धुन गूँजती है 

शायद वही कृष्ण का परम धाम है 

जहाँ मन को मिलता विश्राम है !


शुक्रवार, अप्रैल 23

दीप आरती का जब जगमग

दीप आरती का जब जगमग

छायाओं के पीछे भागे 

जब सच से ही मुख मोड़ लिया, 

जीवन का जो सहज स्रोत था  

शुभ नाता उससे तोड़ लिया !


अर्ध्य चढ़ाते थे रवि को जब  

जुड़ जाते थे परम स्रोत से, 

तुलसी, कदली को कर सिंचित 

वृंदावन भीतर उगते थे !


कर परिक्रमा शिव मंदिर की 

खुद को भी तो पाया होगा,

दीप आरती का जब जगमग 

आत्म ज्योति को ध्याया होगा !


किन्तु बनाया साधन उनको

जो स्वयं में हैं अनुपम साध्य, 

नित्यकर्म का सौदा करके 

कहते भजा तुझको आराध्य !


यह तो जीवन का उत्सव  था 

ना यह  कला मांगने की थी ,

शुभ सुमिरन से मान मिलेगा 

ऐसी लघु बुद्धि तो नहीं थी !


जग छाया है कहाँ मिलेगी 

जबकि मन उजियार से प्रकटा, 

अंधकार के पाहन ने ही 

मार्ग सहज उजास का रोका !


 

बुधवार, अप्रैल 21

राम की छवियाँ जो हर मन में बसी हैं

 राम की छवियाँ जो हर मन में बसी हैं 

पैरों में पैजनियां पहने 

घुटनों-घुटनों चलते राम, 

माँ हाथों में लिए कटोरी

आगे आगे दौड़ते  राम !


गुरुकुल में आंगन बुहारते 

गुरू चरणों में झुकते राम, 

भाइयों व मित्रों को पहले 

निज हाथों से खिलाते राम !


ताड़का सुबाहु विनाश किया 

 यज्ञ की रक्षा करते राम, 

शिव का धनुष सहज ही तोडा 

जनक सुता को वरते राम !


जन-जन के दुःख दर्द को सुनें 

अयोध्या के दुलारे राम, 

राजा उन्हें बनाना चाहें  

पिता नयनों के तारे राम !


माँ की चाहना पूरी करने  

जंगल-जंगल घूमते राम, 

सीता की हर ख़ुशी चाहते 

हिरन के पीछे जाते राम !


जटायु को गोदी में लेकर 

आँसूं बहाते व्याकुल राम, 

खग, मृग, वृक्षों, बेल लता से 

प्रिया का पता पूछते राम !


शबरी के जूठे बेरों को 

बहुत स्वाद ले खाते राम, 

हनुमान कांधों पर बैठे 

सुग्रीव मित्र बनाते राम !


छुप कर बालि को तीर चलाया 

दुष्टदलन भी करते राम, 

हनुमान को दी अंगूठी 

याद सीता को करते राम !


सागर पर एक सेतु बनाया 

शिव की पूजा करते राम, 

असुरों का विनाश कर लौटे 

पुनः अयोध्या आते राम !


सारे भूमण्डल में फैली 

रामगाथा में बसते राम, 

जन्मे चैत्र शुक्ल नवमी को

मर्यादा हर सिखाते राम !



मंगलवार, अप्रैल 20

मत लगाना दिल यहां पर

मत लगाना दिल यहां पर 


ख्वाब है यह जिंदगी इक 

यह सुना है,

मत लगाना दिल यहां पर 

यह गुना है !


आएगी इक बाढ़ जैसी 

महामारी, 

था अंदेशा कुछ दिलों को 

त्रास भारी !


डोलती है मौत या फिर  

भ्रम हुआ है, 

व्यर्थ ही तो ज्यों सभी का 

श्रम हुआ है !


क्या करेंगे कल यहां 

सूझे नहीं, 

कब थमेगी आग यह 

बूझे नहीं !


जो हो रहा वह मान लें 

हों कैद सब, 

जो पल मिले जी लें उन्हें 

दे चैन रब !


 

सोमवार, अप्रैल 19

ज्यों धूप और पानी


ज्यों धूप और पानी


 

दिल में लरजता जो है 

 रग-रग में कम्प भरता,  

वह भिगो रहा अहर्निश 

जो लौ को ओट देता !


सम्भालता सदा है 

पल भर न साथ छोड़े, 

वह जिंदगी का मानी

धड़कन वही है तन में !


बरसता वही हर सूं

वह चाँद बन चमकता, 

गर ढूंढना उसे चाहें 

कोई पता ना देता !


ऐसे वह बंट रहा है 

ज्यों धूप और पानी, 

छुपा नहीं कहीं भी 

नजर आये न हैरानी ! 


महसूस करे कोई 

एक पल भी न बिसरता,  

जिसे पाके कुछ न चाहा

वैसा न कोई  दूजा  !


गर मिल गया किसी को 

कुछ और न वह मांगे, 

उसके ही संग सोये 

संग सुबह रोज जागे !


उसे क्या कोई कहेगा 

वह शून्य है या पूरा, 

हर होश वह भुला दे 

कोई जान न सकेगा !


उसे भूलना न सम्भव 

अनोखा निगेहबां हैं, 

मधुरिम वह स्वप्न देता 

हर दिल में आ बसा है !

 

रविवार, अप्रैल 18

श्वासें

श्वासें 


गा रही हैं नाम  

जिसे हम सुन नहीं पाते 

या कर देते हैं सुनकर भी अनसुना 

श्वासें कीमती हैं कितनी 

यह बात सिखा रहा है एक वायरस आज 

चेतना के समंदर में उठती-गिरती लहरों सी 

ही तो हैं ये श्वासें 

उथली और छोटी होंगी तो 

नाप नहीं पाएंगी गहराई उसकी 

तीव्र और कंपित होंगी 

तो मन को भयभीत बनाएंगी 

गहरा करें इन्हें 

उस परम की ऊर्जा भरें उनमें 

यही प्राणों का आयाम हमें मुक्त करता है

 भर देती हैं शक्ति से जब भीतर आती हैं 

बाहर जाती हुई समर्पित हो जाती हैं 

‘सो’ कहकर चेतना को भरतीं 

‘हम’ में स्वयं को अर्पित करतीं 

इन्हीं श्वासों का आवागमन ही जीवन है 

इनसे ही चलता मन है 

श्वासें हल्की और धीमी हो जाएँ 

एक लय में पिरो ली जाएँ 

तो टिक जाता है मन का अश्व भी  

और चैतन्य उसमें झलक जाता है ! 


 

गुरुवार, अप्रैल 15

यह विश्वास रहे अंतर में

यह विश्वास रहे अंतर में


शायद एक परीक्षा है यह

जो भी होगा लायक इसके, 

उसको ही तो देनी होगी 

शायद एक समीक्षा है यह ! 


जीवन के सुख-दुखका पलड़ा 

सदा डोलता थिर कब रहता, 

क्या समता को प्राप्त हुआ है

शेष रही अपेक्षा है यह !


तन दुर्बल हो मन भी अस्थिर 

किन्तु साक्षी भीतर बैठा, 

शायद यही पूछने आया 

क्या उसकी उपेक्षा है यह !


जिसने खुद को योग्य बनाया 

प्रकृति ठोंक-पीट कर जांचे,  

इसी बहाने और भी शक्ति

भीतर भरे सदिच्छा है यह !


यह विश्वास रहे अंतर में 

उसका हाथ सदा है सिर पर, 

पल-पल की है खबर हमारी 

शायद उसकी चिंता है यह ! 


हुए सफल निकल आएंगे 

हृदय को दृढ़तर पाएंगे, 

चाहे कड़ी परीक्षा हो यह 

कृपालु की दीक्षा है यह !


 

बुधवार, अप्रैल 14

वह मन को ख्वाब दे

वह मन को ख्वाब दे 


खोया हुआ सा लगता  

खोया नहीं है जो, 

जिसे पाने की तमन्ना 

पाया हुआ है वो ! 


वही श्वास बना तन में 

जीवन को आंच दे,

वही दौड़ता लहू संग  

वह मन को ख्वाब दे ! 


जो अभी-अभी यहीं था 

फिर ढक लिया किसी ने, 

जैसे छुप गयी किरण हो 

बदलियों के पीछे !


उसे ढूंढने न जाना 

जरा थमे रहना  

धीरे से उसके आगे 

दिले-पुकार रखना !


वह सुन ही लेता चाहे 

मद्धिम हो स्वर बहुत,  

सच्ची हो दिल की चाहत 

बस एक यही शर्त !


 

सोमवार, अप्रैल 12

नदी और जीवन

नदी और जीवन 


नदी ढूंढ लेती है अपना मार्ग 

सुदूर पर्वतों से निकल 

हजारों किलोमीटर की यात्रा कर 

बिना किसी नक्शे की सहायता के 

और पहुँच जाती है 

एक दिन सागर तक 

नदी अनवरत बहती है 

कभी दौड़ती हुई 

कभी मंथर 

समतल धरा पर थोड़ा विश्राम 

लेती होती है प्रतीत 

पर भीतर-भीतर गतिमान है 

नदी एक जीवन की तरह है 

जीवन जो कभी टकराता है 

बाधाओं रूपी चट्टानों से 

कभी सिमट जाता है कन्दराओं में  

अंधेरी सीलन भरी 

पा जाता है कभी खुला मार्ग 

दूर तक सपाट और कभी ढलान

 जिस पर फिसलता जाता है 

पर हर जीवन भी एक न एक दिन 

पा लेता है गंतव्य 

चाहे हजारों जन्म लेने पड़ें 

हर दो जन्मों के मध्य कुछ आगे बढ़ता है !

कभी विकारों की दलदल में फँसता है 

कभी द्वेष के रेगिस्तानों में झुलस जाता है 

फिर किसी जन्म में शीतल छाँव मिलती है 

दोनों तटों पर घने वृक्षों की 

तो एक दिशा पा लेता है  

 संयम और विश्वास के तटों के मध्य बहता हुआ 

पहुँच जाता है अनंत में 

जल जो मुक्त हुआ था सागर से वाष्प बनकर 

वही तो हिम शिलाओं पर बरस कर 

दौड़ता है पुनः अपने घर की ओर 

जीवन जो प्रकटा है अनंत से 

वही तो पुनर्मिलन चाहता है 

घर जाना है दोनों को 

वही पूर्ण विश्राम है 

उसी में छिपा राम है !