एक कहानी
हम हिमाचल के बाशिंदे हैं I पिताजी व्यापारी हैं I हम दो भाई हैं I मैं छोटा हूँ, स्कूल तथा कॉलेज में मैं बहुत शरारती छात्र हुआ करता था I हम कुछ मित्रों का एक गैंग था, जो धमाचौकड़ी मचाने में सबसे आगे रहता था I अन्य छात्रों की ऐसी परेशानियों को हल करने का भी हमें शौक था जिसमें कुछ दादागिरी करने का मौका मिले I बड़े भाई से सदा मेरी स्पर्द्धा चलती रहती थी I वह जो करते वही मैं भी करना चाहता I ऐसे तो अध्यात्म में मेरी कोई विशेष रुचि नहीं थी, यहाँ तक की टीवी पर कोई दाढ़ीवाले बाबाजी प्रवचन दे रहे हों तो मैं चैनल बदल देता था I किसी बाबा की आँखों में नहीं देखता था इस डर से कि कहीं वह सम्मोहित न कर दें, लेकिन एक बार जब मैं कुछ दिनों के लिये बाहर गया था भैया ने ‘आर्ट ऑफ लिविंग’ का बेसिक कोर्स कर लिया, लौटा तो मैंने भी कोर्स करने की जिद की I पिताजी ने कहा तुम अभी छोटे हो, २० वर्ष के होने पर ही कोर्स कर सकोगे पर मैं इतनी प्रतीक्षा नहीं कर सकता था, सो फार्म में अपनी उम्र ज्यादा लिखवा कर चला गया I कोर्स में कुछ समझ में नहीं आता था I हर दिन कुछ गृहकार्य दिया जाता था पर मैंने वह भी नहीं किया, लेकिन ‘सुदर्शन क्रिया’ करने के बाद भीतर कुछ ऐसा परिवर्तन हुआ जो शब्दों में कहा नहीं जा सकता I मैं जब छठी-सातवीं का विद्यार्थी था तो अक्सर मन में कई विचार उठते थे..... इस सामान्य से प्रतीत होने वाले जीवन के पीछे अवश्य कुछ और भी है... केवल खाना-पीना, पढ़ना और सो जाना मात्र इतना ही तो जीवन का उद्देश्य नहीं हो सकता..... मन में प्रश्न भी उठते थे कि कौन सी शक्ति इस ब्रह्मांड का नियंत्रण कर रही है? मन में इतने विचार कहाँ से आते हैं? जीवन में एक नियमितता कहाँ से आती है? लगता था कि कई बातें एक अंतराल के बाद पुनः घटित हो रही हैं, लेकिन कारण समझ से बाहर था I इन सवालों का जवाब खोजने निकला तो शिक्षकों व मातापिता दोनों ने कहा इस उम्र में ऐसी बहकी-बहकी बातें क्यों करते हो, पढ़ने में मन लगाओ I धीरे-धीरे मन में सवाल उठने बंद हो गए और मैं अपनी सामान्य दिनचर्या में व्यस्त हो गया I
सन् २००२ कि बात है गुरूजी हिमाचल आ रहे थे, सत्संग स्थल हमारे निवास से आधे घंटे की दूरी पर था I जब मित्रों ने कहा सत्संग चलते हैं तो पहले मैंने मना कर दिया क्योंकि एक तो पिताजी कहीं भी आसानी से जाने नहीं देते थे, दूसरे मुझे डर था कि सत्संग में जाने से हमारी इमेज खराब हो जायेगी, लोग क्या सोचेंगे? कौन हमसे मदद माँगने आयेगा? पर मित्रों ने जोर दिया और किसी तरह पिताजी को राजी कर हम वहाँ पहुँचे I मैं गुरूजी के आने से पहले मंच पर बायीं ओर बैठ गया बल्कि यह कहना सही होगा कि मुझे बैठा दिया गया I मन में तर्क-वितर्क चल रहे थे I लोग भजन गा रहे थे और मस्त थे, तार्किक बुद्धि ने सोचा बिना किसी कारण ये इतने प्रसन्न क्योंकर हैं ? तभी गुरूजी का प्रवेश हुआ, वे हाथ में पकड़ी माला को घुमाते हुए लगभग नाचते हुए से आये और आसन पर आराम से बैठ गए I बुद्धि ने कहा कि सत्संग में बड़े-बड़े वीआईपी आये हैं, गुरूजी उनको सम्बोधित करके जरूर कोई गूढ़ ज्ञान की चर्चा करेंगे किन्तु यहाँ तो बात ही कुछ और थी I एकदम अनौपचारिक ढंग से गुरूजी ने पूछा, ‘हाँ, सब कैसे हो? खुश हो? सबने ‘हाँ’ में उत्तर दिया, मेरे मन में विचार चलने लगे कैसे गुरु हैं यह?, कि तभी वे मेरी दिशा में पलटे एक पल रुके, फिर सामने देखा.. अगले ही पल फिर पलटे और उंगली से अपनी ओर आने का इशारा किया I मेरे सामने जो मित्र था मैंने उसे कहा, “जाओ गुरूजी तुम्हें बुला रहे हैं, शायद उन्हेँ पानी चाहिए” वह गया और लौट आया, गुरूजी ने फिर कहा, “नहीँ तुम इधर आओ” मेरी बायीं ओर दूसरे मित्र थे उन्हें मंजीरे देकर भेज दिया, पर गुरूजी ने कहा, “तुम जो चश्मा लगाये हो इधर आओ,” मैंने इधर-उधर देखा यकीन नहीं हो रहा था कि मुझ अनजान को वह क्यों बुला सकते हैं I डरते-डरते उनके पास गया, उन्होंने पूछा, “हाँ, हनी कैसे हो? कुछ बोलना चाहा पर जवाब तो कुछ सूझा नहीं, भीतर प्रश्न उठा, आप को मेरा नाम किसने बताया? गुरूजी ने फिर कुछ सामान्य प्रश्न किये, खुश हो? पढ़ रहे हो? बिजनेस भी कर रहे हो? धीरे-धीरे मन संयत हुआ और जवाब दिए पर तार्किक मन भीतर सवाल कर रहा था हजारोँ लोग बैठे हैं और गुरूजी इतनी साधारण बातें कर रहे हैं I अंत में उन्होंने आश्रम आने का निमंत्रण दिया, मैंने घबरा कर ‘हाँ’ में सर हिला दिया I अपनी जगह आकर बैठा तो लगा जैसे कोई स्वप्न देखा हो, लेकिन भीतर कुछ बदल गया था I सत्संग के बाद घर पहुँचा तो कितने ही दिनों तक गुरूजी की याद बनी रही फिर अपनी पढ़ाई में व्यस्त हो गया I
२००३ आया, कॉलेज में अवकाश था I बैंगलोर आश्रम में एडवांस कोर्स होने वाला था I एक बार फिर मित्रों ने कहा बैंगलोर चलना है I पिताजी को मनाना आसान नहीं था, मन में विचार भी चल रहे थे कि यदि छुट्टियों में यहीं रहा तो पिताजी दुकान पर बिठा देंगे I बैंगलोर जाकर कोर्स नहीं भी किया तो कम से कम एक नया शहर घूमने को मिलेगा, सो युक्ति से पिताजी को मनाया और मुझे तब महसूस हुआ कि जरूर कोई और भी चाहता है कि मैं बैंगलोर आकर कोर्स करूँ, कि कोई शक्ति है जो मुझे एक पूर्व निर्धारित मार्ग पर ले जा रही है I हम कुछ मित्र रवाना हुए I यात्रा के दौरान जैसा कि सभी के साथ होता है मन में विचारों की रेल भी चलती रही I इसे मैं why-why माइंड कहता हूँ, आश्रम कैसा होगा? क्या रहने के लिये वहाँ कुटीर होंगे? क्योंकि एक सुविधाजनक वातावरण में मैं बड़ा हुआ था, सदा ए सी में सफर करना, अपनी ही वस्तुएं इस्तेमाल करना, अपने ही बिस्तर पर सोना, ये मेरी प्राथमिकताएँ थीं I किताबों में पढ़ी प्राचीन कथाओं के अनुसार झोपड़ियों वाले आश्रम का एक चित्र मन में बन गया था, किन्तु जैसे ही बैंगलोर आश्रम में कदम रखा मन में सन्नाटा छा गया I सारे विचार एकाएक रुक गए I शाम का समय था आश्रम में उत्सव का माहौल था I देखते ही देखते बत्तियां जल उठीं और सारा आश्रम सुंदरता का मूर्तिमान रूप बन सज उठा I भीतर से आवाज सुनाई दी “धरती पर कहीं स्वर्ग है तो यहीं है” I अगले दिन से कोर्स शुरू हो गया, जिसमें मुझे मित्रों से अलग कर दिया गया I मौन का पालन भी करना था, मन में आशा लेकर गया था कि गुरूजी से भेंट होगी, पर अभी तक नहीं हुई थी, सो उदासी महसूस कर रहा था I एक संध्या मैं बालकनी में बैठा था गुरूजी ने ऊपर देखकर हाथ हिलाया तो मैंने भी सबके साथ हाथ हिलाया, मुझे लगा गुरूजी को मेरा स्मरण कहाँ होगा, अगले दिन मैं दूसरी तरफ बैठा गुरूजी ने फिर मुझे देख कर हाथ हिलाया, इसके बाद एडवांस कोर्स बहुत अच्छा लगने लगा I पूर्ण मौन चल रहा था जो मुझे भीतर से जोड़ रहा था, कई प्रश्न पुनः उठने लगे जिनके जवाब भी भीतर से मिलने लगे I लगा ऐसा बहुत कुछ है जो दिखाई नहीं देता, सुनाई नहीं देता, बचपन के अधूरे सवालों के भी कुछ-कुछ जवाब मिलने लगे थे I
कोर्स के बाद सब प्रतिभागियों की विदाई से पहले गुरूजी एक-एक कर सबसे मिल रहे थे मैं एक कोने में था वहीं से हाथ हिलाकर विदा ली तो गुरूजी ने हाथ की उंगलियां मोड़ कर जैसे मेरे अभिवादन का जवाब दिया मन में आया कहीं गुरूजी मुझे बुला तो नही रहे फिर सोचा इतने सारे लोग प्रतीक्षा में खड़े हैं I मैं कुछ ही दूर गया था कि एक शिक्षक दौड़ते हुए आये और बोले, “गुरूजी तुम्हेँ बुला रहे हैं” मैं उनके साथ लौटा तो उन्होंने एक रेलिंग का मार्ग रोक कर मुझे वहीं गुरूजी की प्रतीक्षा करने को कहा I अनेक लोग मेरे पीछे खड़े थे, गुरूजी वहीं से आने वाले थे I हाथ में पकड़ी माला घुमाते हुए अपने चिर-परिचित अंदाज में वह आये और अचानक मेरा हाथ पकड़ कर भागने लगे, वहाँ खड़े लोग भी हमारे पीछे भागने लगे, पूरी भगदड़ मच गयी I मुझे विश्वास ही नहीं हो रहा था, कुछ दूर जाकर उन्होंने कहा, “जा रहे हो? मत जाओ, आश्रम में रुक जाओ” I
मैंने कहा, “कल तो मेरी वापसी की टिकट बुक है, जाना ही होगा” I
वे बोले, “कल हम दो सप्ताह के लिये तमिलनाडु जा रहे हैं, लौट कर तुमसे मिलेंगे” I
मन ने झट प्रतिक्रिया की, मुझे अकेला छोड़ कर खुद तो जा रहे हैं, फिर रुकने को भी कह रहे हैं !
गुरूजी बोले, “ऐसा करो तुम भी मेरे साथ चलो” मुझे एक और झटका लगा पहले आश्रम में आकर बिना कुछ किये भीतर मौन का अनुभव, कोर्स के दौरान गुरूजी का मुझे पहचानना, मेरा हाथ पकड़ कर भगाते हुए ले जाना और अब अपने साथ यात्रा का निमंत्रण! तब मेरी उम्र भी कम थी टीनएजर के ख़िताब से अभी निकला भर था I किसी तरह मैंने इतना ही कहा कि मुझे सोचना पड़ेगा I हम आगे बढ़े गुरूजी से मिलने आये एक परिवार में एक छोटी लड़की परीक्षा के आनेवाले परिणाम के भय से रो रही थी, गुरूजी ने कहा, “क्यों रोती है? तू तो हर सुबह ‘ओम नमो शिवाय’ का जप करती है न?” लड़की रोना भूल कर आश्चर्य से बोली आपको कैसे पता? मुस्कुराते हुए गुरूजी कहने लगे, ”मुझे सब पता है I फिर मुझे बोले, “कल सुबह सात बजे फ्लाइट है तुम छह बजे तैयार रहना” मैंने फिर कहा, “मैं सोच के बताऊँगा” आँखों के सामने पिताजी का चेहरा आ रहा था कितनी मुश्किल से कुछ दिनों के लिये आज्ञा मिली थी अब दो हफ्ते और घर से दूर रहने पर वे अवश्य ही बहुत नाराज होंगे I लौट कर मित्रों को बताया तो उनका चेहरा देखने लायक था, उन्हें मुझसे ईर्ष्या भी हो रही थी और वे खुश भी थे I रात भर सोचता रहा जाऊँ या न जाऊँ, मैं जानना चाहता था कि गुरु क्या होते हैं? गुरु तत्व क्या है ? अंततः निर्णय लिया कि जाना चाहिए, सुबह साढ़े छह बजे मैं निर्धारित जगह पर पहुँचा तो पता चला गुरूजी चले गए हैं, रात भर जगने के कारण आधा घंटा देर तो मुझे हो ही गयी थी I मैं अपना सामान उठाये पीछे लौट ही रहा था कि एक बार फिर एक वरिष्ठ शिक्षक आये और बोले तुम हमारे साथ ट्रेन से चल रहे हो, तुम्हारा टिकट बना हुआ है, मैं एक बार फिर आश्चर्य से भर गया, मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा था, वह शिक्षक बोले, “गुरूजी जानते थे कि तुम देर से आओगे इसीलिए तुम्हारा ट्रेन का टिकट बनवाया है I”
तमिलनाडु पहुँचे तो गुरूजी का व्यस्त कार्यक्रम आरम्भ हुआ, सत्संग, सभाएँ, उदघाटन समारोह, मीटिंग्स, आदि आदि में सारा समय निकल जाता था I मैं गुरूजी का बैग और आसन लेकर उनकी कार में पीछे बैठता था I सब कुछ ठीक था पर एक तो दक्षिण भारतीय भोजन फिर उसमें मुझे वहाँ लाल चावल मिलते थे, ठीक से खा नहीं पाता था कई बार भूख मिटती नहीं थी संकोच के कारण किसी से कह भी नहीं पाता था I एक दिन गुरूजी ने बुलाया और पूछा, ”ठीक से खा नहीँ रहे हो? मैं चौंका किसने कहा होगा वही प्रश्न उठाने वाला मन सामने आ गया और गुरु की क्षमता पर सहज ही विश्वास नहीं हुआ लेकिन उसके बाद हर दिन मेरे लिये उत्तर भारतीय भोजन की व्यवस्था होने लगी I यात्रा के दौरान एक बार कई गाडियों का काफिला जा रहा था, गुरूजी ने अपनी गाड़ी एक कच्चे रस्ते पर मोड़ने को कहा, एक कुटीर के सामने हमारी कार रुकी, एक बुजुर्ग महिला आयी और बोली कबसे मैं आपकी प्रतीक्षा कर रही थी I गुरूजी ने उसे कुछ फल व पैसे दिए, कुछ दिनों बाद पता चला कि उनकी देह शांत हो गयी I
हम यात्रा के दौरान किसी एक स्थान पर ज्यादा नहीं रुकते थे, मेरे सारे कपड़े मैले हो गए थे, धोने का समय ही नहीं मिला था I मैं चिंतित था कि कल गुरूजी के साथ क्या पहन कर जाऊँगा, तभी दरवाजे पर किसी ने खटखटाया, गुरूजी बुला रहे हैं, मैं फिर डरते डरते उनके पास गया, कहीं कोई भूल तो नहीं हो गयी, एक धोती और अंगवस्त्र देते हुए वे बोले, “कल इसे पहन लेना” आश्चर्य से मैं कुछ देर मौन खड़ा रहा, यह बात तो अभी तक किसी से कही भी नहीं थी, मैंने कहा, “पर मुझे तो यह पहनना नहीं आता, तो वे कहने लगे इस धोती को साड़ी की तरह पहन लेना और ऊपर से अंगवस्त्र डाल लेना I अगले दिन समुद्र तट पर कार्यक्रम था लोग फूल, मालाएं व उपहार दे रहे थे जिन्हें मैं गुरूजी के हाथ से लेकर कार में रख कर आता थोड़ी देर में पुनः गुरूजी का हाथ भर जाता वह मुझे पकड़ा देते, रेत पर धोती पहन कर भागना बड़ा कठिन लग रहा था, डर था कहीं धोती में पैर न फंसे I गुरूजी को अब मंच पर जाना था, मुझे आगे जाकर आसन बिछाना था, पर लोगों का हुजूम मुझे आगे जाने से रोक रहा था, लगभग भीड़ को धकेलते हुए जब मैं तेजी से आगे बढा तो अचानक मेरी धोती खुल गयी, बहुत शर्म आयी, पर इतनी भीड़ में किसी का ध्यान हम पर नहीं था लोग गुरूजी की झलक पाने को बेताब थे जो अभी आने वाले थे, मैंने आसन बिछाने का काम किसी अन्य सहयोगी को सौंपा और किनारे पर जाकर धोती ठीक करने लगा, गुरूजी मंच पर पहुँच गए मैं भी अपनी जगह पर जाकर बैठ गया, रैम्प पर चल कर जब वह लौटे तो माइक हटा कर मुस्कुराते हुए बोले, “अब सब टाइट है न ?” मैं शर्म से पानी-पानी हो गया, कहाँ मैं सोच रहा था अच्छा हुआ किसी ने देखा नहीं, गुरूजी तो काफी पीछे थे, अब लगता है गुरूजी ठीक कहते हैं, “God Loves Fun” I
उसी टूर की बात है, एक शाम दिन भर का थका मैं एक हाल में जमीन पर ही अपने बैग पर सर रखकर लेट गया, सबके लिये कमरे नहीं थे, मुझे मच्छर भी काट रहे थे, माँ की याद भी आ रही थी, अपने घर का सुविधाजनक वातावरण छोड़ कर यहाँ अकेले सोया हूँ, मन बहुत उदास था, सोचते-सोचते नींद आ गयी I सुबह क्या देखता हूँ एक वरिष्ठ शिक्षक भी मेरे निकट ही फर्श पर सोये हैं I उनसे पूछा आपको तो सोने का स्थान मिला था फिर यहाँ कैसे? उनका जवाब सुनकर मेरी आँखों से अश्रुपात होने लगा, वे बोले आधी रात को गुरूजी का फोन आया, हनी हाल में अकेला रो रहा है, उसके पास जाओ I मुझे लगा कोई है जो माँ से भी ज्यादा ध्यान रखता है I पल भर में सारा दर्द कृतज्ञता में बदल गया I
यात्रा समाप्त हुई और मैं घर लौटा, बहुत कुछ बदल चुका था, जीने में आनंद आ रहा था I पहले मन में क्रोध था, हिंसा थी, गुस्सा आने पर हाथ में पकड़ी वस्तु तक तोड़ देता था, why-why मन अब vow-vow मन में बदल चुका था I प्रश्न वाचक चिन्ह ? का घुमाव सीधा होकर विस्मय बोधक ! चिन्ह में परिवर्तित हों गया था I खुशी-खुशी कॉलेज गया, कोर्स कर लिया था, गुरूजी के साथ रहा था मन एक अद्भुत आनंद व शक्ति का अनुभव कर रहा था I पहले ही दिन कुछ लडके मुझे पकड़ कर रैगिंग के लिये ले गए, मन में जरा भी डर नही था, उन्होंने व्यर्थ के सवाल पूछने शुरू किये, व्यर्थ के काम करने को कहे, मैंने मना किया तो दस-बारह लड़कों ने पकड़ लिया और उनके नेता ने लोहे की एक चेन निकल ली I गुरूजी ने कहा था कि यदि किसी के मन, वाणी और भाव से हिंसा विलीन हो जाती है तो उसके सामने हिंसक प्राणी भी हिंसा त्याग देता है I मुझे जरा भी भय नहीं लग रहा था, भीतर गुरूजी के वचनों के प्रति विश्वास था, अचानक उस लडके ने मारने के लिये उठाया हाथ नीचे कर लिया, कॅालर से पकड़ कर धक्का दिया और वे सब चले गये I उस दिन मुझे पता चला कि सबसे बड़ी ताकत क्या है? कि वे ज्यादा शक्तिशाली थे या म्रेरे भीतर का प्रेम व आनंद!