स्वर्ण रश्मियों सा छू लेता
माँ शिशु को आँचल
में छुपाती
आपद मुक्त बनाती राहें,
या समर्थ
हथेलियाँ पिता की
थामें उसकी
नन्हीं बाहें !
वैसे ही सिमटाये
अपने
आश्रय में कोई
अनजाना,
उस अपने को, जिसने
उसकी
चाहत को ही निज
सुख माना !
अपनाते ही उसको पल में
बंध जाती है अविरत डोर,
वंचित रहे अपार
नेह से
जो मुख न मोड़े उसकी ओर !
जो बेशर्त बरसता
निशदिन
निर्मल जल धार की
मानिंद,
स्वर्ण रश्मियों
सा छू लेता
अमल पंखुरियों को
सानंद !
कर हजार फैले चहूँ ओर
थामे हैं हर
दिशा-दिशा से,
दृष्टिगोचर कहीं
ना होता
पर जीवन का अर्थ
उसी से !