बुद्धि लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
बुद्धि लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

सोमवार, दिसंबर 6

एक अमिट मुस्कान छिपी है

एक अमिट मुस्कान छिपी है 

एक अमिट मुस्कान छिपी है 

उर अंतर की गहराई में, 

वह मनमोहन यही चाहता 

उसे खोज लें फिर बिखरा दें !


चलना है पर चल न पाए 

भीतर एक कसक खलती है, 

उस पीड़ा के शुभ प्रकाश में 

इक दिन हर बाधा टलती है !


मीलों का पथ तय हो जाता 

यदि संकल्प जगा ले राही, 

हाथ पकड़ लेता वह आकर 

जिसने उसकी सोहबत चाही !


अल्प बुद्धि छोटा सा मन ले 

जीवन को हम कहाँ समझते, 

जन्म-मरण सदा एक रहस्य 

आया माधव यही बताने  !


कण-कण में जो रचा बसा है, 

प्रीत सिखाने जग में आया 

अपनी शुभता करुणा से वह 

मानव को हरषाने आया !

सोमवार, अक्टूबर 18

लेकिन सच है पार शब्द के


लेकिन सच है पार शब्द के


कुदरत अपने गहन मौन में

निशदिन उसकी खबर दे रही,

सूक्ष्म इशारे करे विपिन भी 

गुपचुप वन की डगर कह रही ! 


पल में नभ पर बादल छाते

गरज-गरज कर कुछ कह जाते

पानी की बौछारें भी तो

पाकर कितने मन खिल जाते !


जो भी कुछ जग दे सकता है

शब्दों में ही घटता है वह,

लेकिन सच है पार शब्द के

जो निशब्द में ही मिलता है !


‘सावधान’ का बोर्ड लगाये

हर कोई बैठा है घर में,

मिलना फिर कैसे सम्भव हो

लौट गया वह तो बाहर से !


या फिर चौकीदार है बुद्धि

मालिक से मिलने ना देती,

ऊसर-ऊसर ही रह जाता

अंतर को खिलने ना देती !


प्राणों का सहयोग चाहिए

भीतर सखा  प्रवेश पा सके,

सच को जो भी पाना चाहे

मुक्त गगन सा गीत गा सके !


शुक्रवार, अक्टूबर 15

विजयादशमी


विजयादशमी 


आज विजयादशमी है !

आज भी तो रावण के पुतले जलेंगे,

क्या वर्ष भर हम रावण से मुक्त रहेंगे ?

नहीं,...तब तक नहीं

जब तक, दस इन्द्रियों वाले मानव का

विवेक निर्वासित किया जाता रहेगा,

और अहंकार

बुद्धि हर ले जाता रहेगा,

अब सीता राम का मिलन होता ही नहीं

यदि होता तो राष्ट्र आतंक के साये में न जीते

 विकास के नाम पर रसायन युक्त अन्न 

और हवा के नाम पर जहर न पीते

न होती विषमताएं समाज में

आखिर कब घटेगा दशहरा हमारे भीतर?

कब ?

तभी न, जब

विवेक का साथ देगा

वैराग्य 

दोनों प्राण के जरिये

बुद्धि  को मुक्त करेंगे

तब होगा रामराज्य

जर्जर हो यह तन, बुझ जाये मन

उसके पहले

जला डालें अपने हाथों

अहंकार के रावण, मोह के  कुम्भकर्ण

लोभ के मेघनाथ भी

उसी दिन होगी सच्ची विजयादशमी !

सोमवार, दिसंबर 28

अबूझ है मन

अबूझ है मन 

मुँह लगे सेवक सा कब 
हुकुम चलाने लगता है 
पता ही नहीं चलता 

कभी सपने दिखाता है मनमोहक 

कि आँखें ही चौंधियाँ जाएँ

और कभी आश्वस्त करता है 

पहुँचा ही देगा मंजिल पर 

मन की मानें तो मुश्किल 

मनवाएँ उससे यह उससे भी बड़ी 

बुद्धि भी है थक-हार कर खड़ी 

नींद में दुनिया की सैर कराता है 

जागने पर माया के फेर में पड़वाता है 

मासूम सा बना भजन भी गाता है 

कभी पुरानी गलियों में लौटा ले जाता है 

यह पिंजरे का पंछी 

उड़ना ही भूल गया 

इक आस की सींक पर बैठे-बैठे झूल गया

इसको तो बस देखते भर रहना है 

न भागना इससे, न डराना 

निरपेक्ष होना है 

यह मन भी उसी की माया है 

जिसने यहाँ सभी को जाया  है ! 

सोमवार, अगस्त 31

पांच दोहे

 पांच दोहे  

मेधा, प्रज्ञा, धी, सुमति, बुद्धि, ज्ञान हैं ‘नाम’ 

समझ मिली तो मुक्ति है, हो गए चार धाम !

 

प्रज्ञा ज्योति सदा जले, मार्ग दिखाती जाय 

धृति धीरज का नाम है, कुमति रहे नचाये 

 

जीवन को जो थामता, धर्म वही इक तत्व 

सुपथ पर ले जाये जो, प्रज्ञान वही समत्व 

 

मानव पशु में भेद क्या, धी प्रभु का वरदान 

वाणी में जो प्रकट हो, भीतर बिखरा मौन 

 

हर सुख का जो स्रोत है, उसे आत्मा जान 

हरि की धुन लगाए जो,मान उसे ही ज्ञान 


शनिवार, अगस्त 29

क्या है मेरे ‘मैं’ की परिभाषा

 

क्या है मेरे ‘मैं’ की परिभाषा 


 

इस पर ही जीवन भवन बनेगा 

देह मात्र की दीवारों पर यदि टिका तो 

जर्जर हो अति शीघ्र गिरेगा 

अहंकार ‘मैं’ बन कर बोले 

यह जरा ठेस से इत-उत डोले 

मन बुद्धि को ही ‘मैं’ मानो 

कारागार बनेगा जानो 

‘मैं’ को नभ तक विस्तृत कर लें 

छत हो अम्बर, धरा फर्श हो 

पर्वत, वन दीवारें कर लें 

नदियों को भीतर बहने दें 

फूलों को भी मीत बनाएं 

सीमाएं तज जाति-पांति की 

मानव की गरिमा फिर पाएं 

नहीं झुकें आपद के आगे 

नहीं व्यर्थ के गाल बजाएं 

‘मैं’ को पावन शुद्ध करे जो 

‘उसमें’ ही सारा जग पाएं !

 

सोमवार, दिसंबर 30

नये वर्ष की शुभकामनायें


नये वर्ष की शुभकामनायें 


जब तक हाथों में शक्ति है
जब तक इन कदमों में बल है,
मन-बुद्धि जब तक सक्षम हैं
तब तक ही समझें कि हम हैं !

जब तक श्वासें है इस तन में
जब तक टिकी है आशा मन में,
तब तक ही जीवित है मानव
वरना क्या रखा जीवन में !

श्वास में कम्पन न होता हो
मन स्वार्थ में न रोता हो,
बुद्धि सबको निज ही माने
स्वहित, परहित में खोता हो !

जब तक स्व केंद्रित स्वयं पर
तब तक दुःख से मुक्ति कहाँ है,
ज्यों-ज्यों स्व विस्तृत होता है
अंतर का बंधन भी कहाँ है !

जब तक खुद को नश्वर जाना
अविनाशी शाश्वत न माने,
तब तक भय के वश में मानव
आनंद को स्वप्न ही जाने !


शनिवार, मार्च 3

आनंद को स्वप्न ही जाने



आनंद को स्वप्न ही जाने


जब तक हाथों में शक्ति है
जब तक इन कदमों में बल है,
मन-बुद्धि जब तक सक्षम हैं
तब तक ही समझें कि हम हैं !

जब तक श्वासें है इस तन में
जब तक टिकी है आशा मन में,
तब तक ही जीवित है मानव
वरना क्या रखा जीवन में !

श्वास में कम्पन न होता हो
मन स्वार्थ में न रोता हो,
बुद्धि सबको निज ही माने
स्वहित, परहित में खोता हो !

जब तक स्व केंद्रित स्वयं पर
तब तक दुःख से मुक्ति कहाँ है,
ज्यों-ज्यों स्व विस्तृत होता है
अंतर का बंधन भी कहाँ है !

जब तक खुद को नश्वर जाना
अविनाशी शाश्वत न माने,
तब तक भय के वश में मानव
आनंद को स्वप्न ही जाने !

बुधवार, नवंबर 16

यह अमृत का इक सागर है


यह अमृत का इक सागर है

बुद्धि पर ही जीने वाले
दिल की दुनिया को क्या जानें,
वह कुएं का पानी खारा
यह अमृत का इक सागर है !

तर्कों का जाल बिछाया है
क्या सिद्ध किया चाहोगे तुम,
जो शुद्ध हुआ मन, सुमन हुआ
वह भूलभुलैया भ्रामक है !

शिव तत्व ही सत्य जगत का है
मानव के दिल में प्रकट हुआ,
बुद्धि भी नतमस्तक होती
छलके जब बुद्ध की गागर है !

दो आँसू बन के छलक गया  
भीतर जब नहीं समाय रहा,
लेकिन जग यह क्या समझेगा
सुख के पीछे जो पागल है !

टुकुर-टुकुर तकते दो नैना
भीतर प्रज्ज्वलित एक प्रकाश,
अक्सर दुनिया रोया करती
जब तक नभ केवल बाहर है !  

बुधवार, जून 22

तीन मुक्तक


तीन मुक्तक

सागर और लहरें
लहरों को सबने देखा है
सागर दिखता किसी एक को,
पार गया जो इन लहरों से  
सागर मिलता उसी नेक को !

खुद
बोझ उठाये है यह धरती
फिर भी तन है बोझ से हारा
मनन करे मन, बूझे बुद्धि
खुद को जाने किसने मारा ?

नारी
शक्ति की आकर जो धारे, सदा बहाए स्नेहिल धारे
शुभ ही झरता जिसके मन से, नारी जग को सदा संवारे,
नन्हीं थी तब स्मित फैलाया, हुई युवा संसार बसाया
माँ बन कर वह हुई प्रवाहित, स्वयं को एक आधार बनाया !


अनिता निहालानी
२२ जून २०११