शनिवार, दिसंबर 31

नए वर्ष की शुभकामनाएँ

नए वर्ष की शुभकामनाएँ 


हम भारत की आवाज़ बनें 

उसकी ऊँची परवाज़ बनें,

नए वर्ष में नए हौसले 

भर उर में नव आग़ाज़ बनें !


कोने-कोने में फहराएँ 

योग-धर्म की ध्वजा पताका, 

युद्ध काल रोकें मानव हित  

मिल प्रगति का खींचें खाका !


नृत्य, कलाएँ, वाद्य हमारे 

उपजे सभी पावन स्रोत से, 

वास्तुकला विश्वकर्मा देव  

औषधियाँ धन्वन्तरि लाए !


पावन कण-कण है भारत का 

सुर ताल दे विद्यादायिनी, 

श्री लक्ष्मी ऐश्वर्य लुटातीं 

वीरता की देवी भवानी !


माँयें हैं मदालसा जैसी 

ब्रह्म ज्ञान पुत्रों को देतीं, 

यहाँ पुत्रियाँ सावित्री सी 

निज वर अपने मत से चुनतीं !


भारत की महान विरासतों 

के संवाहक हम बन जाएँ, 

ज्ञान  और विज्ञान क्षेत्र में 

राह विश्व को यही दिखाए !


सत् के पथ पर चलना होगा 

वरना जीवन अति कठोर है, 

धर्म रीत को चुनना होगा 

अन्यथा भावी अति घोर है !


शुक्रवार, दिसंबर 30

नए तराने गाएँ मिलकर

नए तराने गाएँ मिलकर 


नए वर्ष में आओ ! साथी  

 नए-नए हो जाएँ खिलकर,

नया सृजन हो, नए गीत कुछ 

नए तराने गाएँ मिलकर  !


नए विचारों से महकाएँ, 

आंगन अपने बासी  मन का

नए भाव  से भरें हृदय को, 

दामन ख़ुशियों से  जीवन का !


नई सोच हो, हृदय  मुक्त हो,

 सभी पूर्वाग्रह से अब तो,

नई कोंपलें फूटें उर में, 

नए रास्ते खोजें अब तो !


नए शब्द हों, नए इरादे,

 नया-नया हो क्रम जीवन का,

नई पुलक हो, नव उमंग हो, 

नया राग हो नादाँ मन का !


नए साल में, नए ताल में,

 नया-नया सुर वादन छेड़ें,

नई थाप हो, नई धुनें हों, 

नूतन अंतर प्रीत उलेड़ें !


अब तक सच माना था जिसको,

 परखें उस अपने जीवन को,

जो असत्य हो, झट से तज दें, 

झिझके नहीं हृदय  पल भर को !


गुरुवार, दिसंबर 29

सदा रहे जो

सदा रहे जो 


यहाँ-वहाँ, इधर-उधर 

उलझे हैं जो धागे मन के 

उन्हें समेटें 

बाँधें फिर समता खूँटे से

 डोर तान लें 

आज किसी का सम्बल पाया 

कल जब छलती होगी माया 

सदा रहे जो 

ऐसा इक आधार जान लें 

बाहर जग यह छिटक रहा है 

भीतर से एक द्वार खान लें !

जब निज का यह अंग बनेगा 

भेद कहीं तब कहाँ  रहेगा 

सारे उसके ही प्रतिनिधि  यहाँ 

यही जान बस उन चरणों के  

गा गान लें ! 


मंगलवार, दिसंबर 27

उजियारा मन बाती कारण


उजियारा मन बाती  कारण


देह दीप माटी का जैसे

उजियारा मन बाती  कारण, 

स्नेह प्राण का, ज्योति आत्म की 

जग को किया  उसी ने धारण !


दीपक छोटे, बड़े क़ीमती 

मन भी भिन्न क्षमता की  बात, 

प्राणों में बल घटता-बढ़ता 

किंतु ज्योति है एक दिन-रात !


उसी ज्योति की ओर चले थे 

ऋषि ने जब तमसो गाया था, 

वही ज्योति शुभ मार्ग दिखाती 

महाजनों को जो भाया था !





शनिवार, दिसंबर 24

ज्योति कमल नित नए खिलाता

ज्योति कमल नित नए खिलाता


वह अनंत ही, सांत बना है 

भरमाता खुद को, माया से 

सत्य मान जो, भ्रमित हो गया 

डर जाता है, जो छाया से !


नित  प्रेम जो, मोह में फँसता

सदा शांत, पर द्वेष जगाए 

जीवन विमल अमृत सा बरसे, 

अनजाने में गरल बनाए !


सुख की चाह सदा भरमाती 

खुद से दूर चला जाता है, 

अपने भीतर भर भंडारे 

उर चिर तृषित  छला जाता है !


जो हल्का है लघु तिनके सा 

भारी भीषण हिम पर्वत सा, 

दूर अति नक्षत्र अनंत सा 

श्वासों से भी निकट बसा है !


जिसका होना वही जानता

बिरला कोई  ही लख पाता,

गुनगुन भँवरे सा गाता है 

ज्योति कमल नित नए खिलाता !


शुक्रवार, दिसंबर 23

अरूप

अरूप


वह जो अरूप है भीतर 

अकारण सुख है 

उसकी मुस्कान थिर है 

चिर बसंत छाया रहता है उसके इर्दगिर्द 

अनहद राग बजता है अहर्निश 

जगत से उपराम हुआ 

कोई उस राम से मिलता है 

किसी-किसी के हृदय में 

उसकी चाहत का फूल खिलता है 

प्रपंच से परे वह समाधि में लीन है 

जैसे हिमालय के शिखर पर शिव आसीन है 

आत्मा के अनन्त सागर में उठने वाली लहरों को ही 

निहारते हैं हम 

जो कहीं नहीं जातीं

व्यर्थ ही सिर टकराती हैं 

भँवर उठते हैं कहीं तूफान 

कहीं बहते चले आते हैं फूल 

कहीं बहाया गया उच्छिष्ट 

अनदेखा ही रह जाता है वह अनूप 

वह जो अरूप है भीतर !


बुधवार, दिसंबर 21

कान्हा बंसी किसे सुनाए

कान्हा  बंसी किसे सुनाए


वरदानों से झोली भर दी 

पर हमने क़ीमत कब जानी, 

कितनी बार मिला वह प्रियतम 

किंतु कहाँ सूरत पहचानी !


आस-पास ही डोल रहा है 

जैसे मंद पवन का झोंका, 

कैसे कोई परस जगाए 

बंद अगर है हृदय झरोखा !


रुनझुन का संगीत बज रहा 

पंचम  सुर में कोकिल गाए, 

कानों में है शोर जहाँ का 

कान्हा  बंसी किसे सुनाए !


एक नज़र करुणा से भर के 

दे देती प्रकृति पुण्य प्रतीति, 

राहों के पाहन चुन-चुन कर 

जीवन में मधुरिम रव भरती !


अमर  अनंत धैर्यशाली वह 

हुआ सवेरा जब जागे तब,

आनंद लोक निमंत्रण देता 

लगन लगे मीरा वाली जब !




मंगलवार, दिसंबर 20

तुम किससे भाग रहे हो

    

 


तुम किससे भाग रहे हो 

तुम किससे भाग रहे हो 

और किसकी ओर भाग रहे हो 

सच से भाग रहे हो 

तो अंतत: सच तुम्हें ढूँढ ही लेगा 

मृत्यु से भागता है आदमी 

पर उसके और मृत्यु के मध्य

फ़ासला निरंतर कम होता है 

जरा से भागता है युवा बना रहने को पर उसके 

कदम बुढ़ापे की आहट ही फैलाते हैं 

यश  से भागता हुआ व्यक्ति 

सम्मानित किया जाता है 

अपमान से भयभीत ही शिकार होता है अपमान का 

हम जिससे भी दूर जाएँ 

वह हमें छोड़ता नहीं  

क्योंकि उसका सिरा

हम खुद ही थामे रहते हैं 

परमात्मा से भागता हुआ व्यक्ति 

स्वयं को उसी के द्वार पर पाता है 

नास्तिक ही आस्तिक बन जाता  है 

हर बार, क्योंकि ईश्वर दाएँ भी है बाएँ भी 

आगे और पीछे भी 

ऊपर भी नीचे भी 

असम्भव है उससे बचना 

वह घेरे हुए है अब ओर से !


शुक्रवार, दिसंबर 9

चिड़िया और आदमी


चिड़िया और आदमी


चिड़िया भोर में जगती है 

उड़ती है, दाना खोजती है 

दिन भर फुदकती है 

शाम हुए नीड़ में आकर सो जाती है 

दूसरे दिन फिर वही क्रम 

नीले आसमान का उसे भान नहीं 

हरे पेड़ों का उसे भान नहीं 

हवाओं,सूरज, धूप का उसे भान नहीं 

परमात्मा का उसे भान नहीं 

पर वह मस्त है अपने में ही मग्न 

और उधर आदमी 

उठता है चिंता करता है 

चिंता में काम करता है 

चिंता में भोजन खाता है 

चिंता में ही सो जाता है 

उसे भी नीला आकाश दिखायी नहीं देता 

हज़ार नेमतें दिखाई नहीं देतीं 

परिजन व आसपास के लोग दिखाई नहीं देते 

बस स्वार्थ सिद्धि में लगा रहता है 

तब आदमी चिड़िया से भी छोटा लगता है 


मंगलवार, दिसंबर 6

सुदूर कहीं ज्योति की नगरी

सुदूर कहीं ज्योति की नगरी 


झांक रहा कोई भीतर से 

भारी पर्दे क्यों लटकाए, 

बाहर अबद्ध  गगन बुलाता 

  पिंजरे में विहग घबराए !


विमुक्त करो मानस शक्ति को 

जो अनंत बन खिलना चाहे, 

संकरे पथ सीली धरा  को 

तज भूमा से मिलना चाहे !


वक्त बीतता जाता है अब 

पल भर भी की ना  देर करो, 

रस्ता दो उर की  नदिया को 

अब सिंधु मिलन की टेर भरो !


पलकों में सुख  स्वपन क़ैद हैं 

हृदय कमल भी सुप्त हैं अभी, 

सुदूर कहीं ज्योति की नगरी 

गहन तिमिर में पड़े हैं सभी !


अब राहों को खुद गढ़ना है 

नियति स्वयं  हाथों में लेकर, 

सोए-सोए युग बीते हैं 

स्वर्णिम पथ पर जाना जगकर !




रविवार, दिसंबर 4

लहरें और सागर



लहरें और सागर


लहर पोषित करती है स्वयं को 

सागर पूर्णकाम है 

लहार  चाह से भरी  है 

सागर  तृप्त  है

लहर दौड़ लगाती है 

शायद दिखाना चाहती है शौर्य तटों को 

सागर के सिवा कोई दूसरा नहीं 

दिखाए भी किसे 

लहर विशिष्ट है 

सागर निर्विशेष 

वह शुद्ध, बुद्ध 

मुक्त, तृप्त और आनंद स्वरूप है 

लहर की नज़र सदा अन्य पर रहती है 

सागर स्वयं में ठहरा है 

जब तक मिला नहीं सागर भीतर 

मन की लहर ही चलाती है 

सुख-दुःख झूले में झुलाती है 

सागर जुड़ा है अस्तित्व से 

लहर दूरियाँ बढ़ाती है 

सदा किसी तलाश में लगी 

कुछ न कुछ पाने की जुगत लगाती 

सागर में होना 

जगत नियंता के चरणों में बैठना है 

लहर से सागर की खोज एक यात्रा है 

 आनंद से भर  सकता है 

इस यात्रा का हर पल

यदि कोई लहर थम जाए 

और जान ले अपना सागर होना

 पल भर के लिए  !