जीवन - मरण
अछूते निकल जाते हैं वे
हर बार मृत्यु से
पात झर जाता है
पर जीवन शेष रह जाता है
वृक्ष रचाता है नव संसार
जब घटता है पतझर
नई कोंपलें फूटती हैं
वैसे ही जर्जर देह गिर जाती है
नया तन धरने
जब सताता हो मृत्यु का भय
तब जीते जी करना होगा इसका अनुभव
देह से ऊपर उठ
जैसे हो जाते हैं ऋषि पुनर्नवा
देह वृद्ध हो पर मन शिशु सा निष्पाप
या बालक सा अबोध
तब देह भी ढल जाती है उसके अनुरूप
चेतना के आयाम में पहुंचकर ही
नव निर्माण होता है अणुओं का
जैसे वृक्ष धारण करता है नव पात
योगी को मिलता है नव गात !