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बुधवार, अक्टूबर 14

जीवन - मरण

 जीवन - मरण 

अछूते निकल जाते हैं वे  

हर बार मृत्यु से 

पात झर जाता है 

पर जीवन शेष रह जाता है

वृक्ष रचाता है नव संसार 

जब घटता है पतझर

नई कोंपलें फूटती हैं 

वैसे ही जर्जर देह गिर जाती है  

नया तन धरने  

जब सताता हो मृत्यु का भय 

तब जीते जी करना होगा इसका अनुभव 

देह से ऊपर उठ 

जैसे हो जाते हैं ऋषि पुनर्नवा 

देह वृद्ध हो पर मन शिशु सा निष्पाप 

या बालक सा अबोध 

तब देह भी ढल जाती है उसके अनुरूप 

चेतना के आयाम  में पहुंचकर ही 

नव निर्माण होता है अणुओं का 

जैसे वृक्ष धारण करता है नव पात 

योगी को मिलता है नव गात !


गुरुवार, मई 28

शिशु भाव में कोई मानव

शिशु भाव में कोई मानव


नन्हा शिशु निःशंक हो जाता 
माँ के आँचल में आते ही ! 

जब से उसने आँखें खोलीं 
सम्मुख उसे खड़ा ही पाया,
साधन बनी मिलन का जग से
सब से परिचय था करवाया !

बालक यदि सदा शिशुभाव में 
माँ का आश्रय लेकर रहता, 
व्यर्थ अनेकों उपद्रवों से
खुद को सदा बचाये रखता !

किन्तु उसका यह अबोध मन 
माँ से भी विद्रोह करेगा, 
जिसने उसको जन्माया है 
उस जननी पर क्रोध करेगा !

जिसने सदा ही सुहित चाहा  
उसकी आज्ञा ठुकरायेगा, 
निश्च्छल निर्मल प्रेम को उसके 
समझ देर से ही पायेगा !

चाहे कितनी देर हुई हो 
माँ का दिल प्रतीक्षा करता,
परमात्मा का प्रेम वहीं तो 
सहज विशुद्ध रूप में बसता !

शिशु भाव में कोई मानव 
जब मन्दिर के द्वारे जाता 
सदा भवधरण की बाँहों का 
खुला निमंत्रण वह पा जाता !



शनिवार, दिसंबर 28

कुदरत की रीत अनोखी है

कुदरत की रीत अनोखी है

जो खाली है वह भरा हुआ
जो कुछ भी नहीं वही सब कुछ,
कुदरत की रीत अनोखी है
जो लुटा रहा वह ही पाता !  

जो नयन मुँदे वे सब देखें
उस की यह कैसी चतुराई,
थम जाता जो वह ही पहुँचा
जो हुआ मौन सब कह जाता !

जो जाने कुछ वह क्या जाने
ज्ञानी बालक सम बन जाता,
पा लेता सब कुछ खोकर भी
यह राज न जगत समझ पाता !

जो दूर बहुत वह निकट अति
जो स्वयं से प्रीत करे न थके,
पाकर जिसको मन खो जाये
 फिर कौन यह भेद कहे जाता ! 

शनिवार, अक्टूबर 13

नहीं अचानक मरता कोई


नहीं अचानक मरता कोई


नव अंकुर ने खोली पलकें
घटा मरण जिस घड़ी बीज का,
अंकुर भी तब लुप्त हुआ था
अस्तित्त्व में आया पौधा !

मृत्यु हुई जब उस पौधे की
वृक्ष बना नव पल्लव न्यारे,
यौवन जब वृक्ष पर छाया
कलिकाएँ, पुष्प तब धारे !

किन्तु काल न थमता पल भर
वृक्ष को भी इक दिन जाना है,
देकर बीज जहां को अपना
पुनः धरा पर ही आना है !

नहीं अचानक मरता कोई
जीवन मृत्यु साथ गुंथे हैं,
पल-पल नव जीवन मिलता है
पल-पल हम थोड़ा मरते हैं !

शिशु गया, बालक जन्मा था
यौवन आता, गया किशोर
यौवन भी मृत हो जायेगा
मानव हो जाता जब प्रौढ़ !

वृद्ध को जन्म मिलेगा जिस पल
कहीं प्रौढता खो जायेगी,
नहीं टिकेगी वृद्धावस्था
इक दिन वह भी सो जायेगी

पुनः शिशु बन जग में आये
एक चक्र चलता ही रहता,
युगों-युगों से आते जाते
जीवन का झरना यह बहता !

रविवार, जुलाई 10

उन सब बच्चों को समर्पित, जिनका आज जन्म दिन है और जो घर से दूर हैं !

प्रिय पुत्र के जन्मदिवस पर


तुम आये जीवन में जिस पल
जगमग मन में हुआ उजाला,
अपने ही तन की माटी से
गढ़ डाला जब रूप निराला !

उस नन्हें तन के भीतर से  
तुम झांक रहे जैसे गोपाला,
सुंदर मुखड़े से नित अपने
सबको मोहित कर डाला !

बालक हुए किशोर बने तुम
बड़े प्रेम से हमने पाला,
युवा हुए हो, दूर गए अब
घर को सूना कर डाला !

है जोश और धैर्य अनोखा
और भ्रमण का शौक बड़ा,
हो एकांत प्रिय, तुम मौनी
अंतर है मजबूत गढ़ा !

जीवन में कुछ पाना तुमको
तुच्छ नहीं वह श्रेष्ठ धर्म हो,
सुख आनंद से खिले रहो तुम
सदा सुघड़ तुमसे हर कर्म हो !