मंगलवार, अप्रैल 30

वृद्धावस्था




वृद्धावस्था 

नहीं भाता अब शोर जहाँ का
अखबार बिना खोले पड़ा रह जाता है
टीवी खुला भी हो तो दर्शक
सो जाता है
गर्दन झुकाए किसी गहन निद्रा में
आकर्षित नहीं कर पाते मनपसंद पकवान भी
नहीं जगा पाते ललक भीतर
न ही भाता है निहारना आकाश को
कुछ घटता चला जाता है अंतर्मन पर
ऊर्जा चुक रही है
शिथिल हो रहे हैं अंग-प्रत्यंग
दर्द ने अब घर बना लिया है स्थायी...
झांकता ही रहता है किसी न किसी खिड़की से तन की
छड़ी सहचरी बनी है
कमजोरी से जंग तनी है
दवाएं ही अब मित्र नजर आती हैं
रह-रह कर बीती बातें यद आती हैं
जीवन की शाम गहराने लगी है
नीड़ छोड़ उड़ गए साथी की पुकार भी
अब बुलाने लगी है
रंग-ढंग जीवन के फीके नजर आते हैं
कोई भाव भी नजर नहीं आता सपाट चेहरे पर
कोई घटना, कोई वाकया नहीं जगाता अब खुशी की लहर
क्या इतनी बेरौनक होती है उसकी आहट
इतनी सूनी और उदास होती है
रब की बुलाहट
क्यों न जीते जी उससे नाता जोड़ें
आखिरी ख्वाब से पहले उसकी भाषा सीखें
मित्र बनाएँ उसे भी जीवन की तरह
तब उसका चेहरा इतना अनजाना नहीं लगेगा
उसका आना इतना बेगाना नहीं लगेगा !






शुक्रवार, अप्रैल 26

ऐसी हो अपनी पूजा


ऐसी हो अपनी पूजा


लक्ष्य परम, हो मन समर्पित
 हृदयासन पर वही प्रतिष्ठित !

शांतिवेदी, ज्ञानाग्नि प्रज्वलित
भावना लौ, प्रेम पुष्प अर्पित !

पुलक जगे अंतर, उर प्रकम्पित
सहज समाधि, अश्रुधार अंकित !

छंटें कुहासे, करें ज्योति अर्जित
आनंद प्रसाद पा, बीज प्रस्फुटित !

मिले समाधान, लालसा खंडित
सुन-सुन धुन, मन प्राण विस्मित !

अव्यक्त व्यक्त कर, अंतर हर्षित
दृष्टा को दृश्य बना, आत्मा शोभित 

बुधवार, अप्रैल 24

जिंदगी अनमोल मोती सी जड़ी है


जिंदगी अनमोल मोती सी जड़ी है


मर गए जो वे सहारा ढूंढते हैं
जिंदगी तो पांव अपने पर खड़ी है

इक पुराना, इक नया कल बाँधता
जिंदगी इस पल में जीने को अड़ी है

क्यों गंवायें रंजिशों में फुरसतें
पास अपने कुल मिला कर दो घड़ी है

एक दिन उसका भी होगा सामना
मौत भी तो जिंदगी की इक कड़ी है

एक लम्हा ही इबादत का सहेजें
पास उसके एक जादू की छड़ी है

मुस्कुराहट का कवच पहना भले हो
इक नुकीली पीर अंतर में गड़ी है

स्वप्न सजते थे सुहाने जिसमें कल
उस नयन में अश्रुओं की इक लड़ी है

दूर तक पसरा है आंचल प्रीत का
जिंदगी अनमोल मोती सी जड़ी है

सोमवार, अप्रैल 22

जैसे कोई गीत सुरीला


जैसे कोई गीत सुरीला


शशि, दिनकर नक्षत्र गगन के, धरा, वृक्ष, झोंके पवन के
बादल, बरखा, बूंद, फुहारें, पंछी, पुष्प, भ्रमर गुंजारें

लाखों सीप अनखिले रहते, किसी एक में उगता मोती
लाखों जीवन आते जाते, किसी एक में रब की ज्योति

उस ज्योति को आज निहारें, परम सखा सा जो अनंत है
जीने की जो कला सिखाता, यश बिखराता दिग दिगन्त है

जैसे कोई गीत सुरीला, मस्ती का है जाम नशीला
तेज सूर्य का भरे ह्रदय में, शिव का ज्यों निवास बर्फीला

कोमल जैसे माँ का दिल, दृढ जैसे पत्थर की सिल
सागर सा विस्तीर्ण है जो, नौका वही, वही साहिल

नृत्य समाया अंग-अंग में, चिन्मयता झलके उमंग में
दृष्टि बेध जाती अंतर मन, जाने रहता किस तरंग में

लगे सदा वह मीत पुराना, जन्मों का जाना-पहचाना
खो जाता मन सम्मुख आके, चाहे कौन किसे फिर पाना

खो जाते हैं प्रश्न जहाँ पर, चलो चलें उस गुरुद्वार पर
चलती फिरती चिंगारी बन, मिट जाएँ उसकी पुकार पर

जैसे शीतल सी अमराई, भीतर जिसने प्यास जगाई
एक तलाश यात्रा भी वह, मंजिल जिसकी है सुखदाई

नन्हे बालक सा वह खेले, पल में सारी पीड़ा लेले
अमृत छलके मृदु बोलों से, हर पल उर से प्रीत उड़ेंले

वह है इंद्रधनुष सा मोहक, वंशी की तान सम्मोहक
है सुंदर ज्यों ओस सुबह की, अग्नि सा उर उसका पावक

मुस्काए ज्यों खिला कमल हो, लहराए ज्यों बहा अनिल हो
चले नहीं ज्यों उड़े गगन में, हल्का-हल्का शुभ्र अनल हो

मधुमय जीवन की सुवास है, अनछुई अंतर की प्यास है
पोर-पोर में भरी पुलक वह, नयनों का मोहक उजास है

प्रिय जैसे मोहन हो अपना, मधुर-मधुर प्रातः का सपना
स्मृति मात्र से उर भीगे है, साधे कौन नाम का जपना

धन्य हुई वसुंधरा तुमसे, धन्य-धन्य है भारत भूमि
हे पुरुषोत्तम! हे अविनाशी! प्रज्वलित तुमसे ज्ञान की उर्मि

शुक्रवार, अप्रैल 19

रत्नाकर की थाह कौन ले


रत्नाकर की थाह कौन ले



 सागर ने  जिस क्षण से स्वयं को
 लहरें होना मान लिया,
बनना, मिटना, आहत होना
उस पल से ही ठान लिया !

माना लहरें भरे ऊर्जा  
मीलों दूर चली आती हैं,
खाली सीपों के खोलों को
संग रेत बिखरा पाती हैं !

लहरों से ही जो पहचाने  
सागर उसे कहाँ मिलता है,
दूर अतल गहराई में ही
जीवन का मोती खिलता है !

भ्रम ही हो सकता सागर को
लहरों के आकर्षण से, 
कहाँ छिपेगी  ढेर संपदा
जागे लहर विकर्षण से !

थम जाती हैं  लहरें जिस पल
सागर स्वयं में टिक जाता ,
देख चकित होता फिर पल पल 
स्वयं की थाह नहीं पाता !



मंगलवार, अप्रैल 16

नव गीत नव छंद सुनाये


 नव गीत नव छंद सुनाये

सहज प्रेम जीवन में आये, कैसी उलटफेर कर जाये

जो भी सच लगता था पहले
स्वप्न सरीखा उसे बनाता
छुपा हुआ भीतर जो सुख है
खोल आवरण बाहर लाता

जैसे कोई दुल्हन घूंघट, आहिस्ता से रही उठाये 

कुछ होने का जो भ्रम पाला
शून्य बनाकर उसे मिटाता
पत्थर सम जो अंतर्मन था
बना मोम उसको पिघलाता

कैसे अद्भुत खेल रचाए, उथलपुथल जीवन में आये

हर पल नया नया सा दर्शन
अद्भुत है उस रब का वर्तन
हरि अनंत हरि कथा अनन्ता
यूँ ही संत नहीं रहे गाये

नित नूतन वह परम प्रेम है, पल पल नया-नया सच लाए

ऊपर से दिखता है जो भी
भीतर कितने भेद समोए 
जैसे कोई कुशल चितेरा
छुपा हुआ नव रंग भिगोये

या फिर नर्तक एक अनूठा, हर क्षण नयी मुद्रा दिखलाये

भीतर कोई है, मार्ग दो
बाहर आने को अकुलाता
फूट रहा जो रक्त गुलाल
उत्सुक तुम्हें लगाना चाहता

अहो ! सुनो यह स्वर सृष्टि के, नव गीत नव छंद सुनाये

रविवार, अप्रैल 14

कोई है


कोई है

कोई है
सुनो ! कोई है
जो प्रतिपल तुम्हारे साथ है
तुम्हें दुलराता हुआ
सहलाता हुआ
आश्वस्त करता हुआ !

कोई है
जो छा जाना चाहता है
तुम्हारी पलकों में प्यार बनकर
तुम्हारे अधरों पर मुस्कान बनकर
तुम्हारे अंतर में
सुगंध बनकर फूटना चाहता है !

कोई है
थमो, दो पल तो रुको
उसे अपना मीत बनाओ
खिलखिलाते झरनों की हँसी बनकर
जो घुमड़ रहा है तुम्हारे भीतर
उजागर होने दो उसे !

कोई है
जो थामता है तुम्हारा हाथ
हर क्षण
वह अपने आप से भी नितांत अपना
बचाता है अंधेरों से ज्योति बन के
समाया है तुम्हारे भीतर
उसे पहचानो
सुनो, कोई है !

बुधवार, अप्रैल 10

जैसे कोई दीप जला हो


जैसे कोई दीप जला हो



प्रीत पुरानी युगों-युगों की
याद दिलाये उस बंधन की,
रास रचाया था जब मिलकर
छवि भर ली थी कमल नयन की !

फिर जाने क्यों हुआ विछोह
जकड़ गया था मन को मोह,
भुला ही दिया सुख स्वप्नों को
स्वयं से ही कर डाला द्रोह !

एक घना आवरण ओढ़े
जीवन था सुख से मुख मोड़े,
दिल को किसी तरह बहलाते
दूजों के कितने दिल तोड़े !

पीड़ा लेकिन क्यों कर भाती
बार-बार कुछ स्मरण दिलाती,
भूले हुए किसी सुदिन का
रह-रह नींद में स्वप्न दिखाती !

तब उसने संदेशा भेजा
सिर आँखों पर जिसे सहेजा,
किया कुबूल निमंत्रण उसका
जिसको युगों से न था देखा !

जैसे कोई दीप जला हो
बहुत पुराना मीत मिला हो,
ऐसे अपनाया है उसने
जैसे उत्पल कहीं खिला हो !

गुरुवार, अप्रैल 4

ट्रेन की खिड़की से


ट्रेन की खिड़की से



उस दिन दिखे थे
दूर तक फैले सजे-संवरे चौकोर खेत
कतारों में उगी फसलें
तैरती बत्तखें, लघु नाव
निकट पटरियों के पोखर में
बांसों के झुरमुट गुजरे कि नजर आये
चरती हुई गायों के झुण्ड 
पानी में जलकुम्भी पर उग आए बैंगनी फूल
मीलों तक फैले कदलीवन
भा गया एक छतरीनुमा वृक्ष
कहीं ढेर खपरैल के
उठता धुआँ साफसुथरी झोंपड़ी से
छप्पर पर छायी बेलें
कटे हुए भूरे ढेर फसलों के
भैंस पर सवारी करते नंग-धड़ंग बच्चे
हरियाली के प्रांगण में खिली सरसों की पीलिमा
दूर क्षितिज तक पसरे आकाश की नीलिमा
किसी खेत में जलते पुआल का धुआँ
पगडंडी पर बोझा ढोती एक ग्राम बाला
पीछे-पीछे खिलखिलाती युवतियों का दल
ऊपर गुजरती रेल, नहर का स्वच्छ जल  
पगडंडी पर धूल उड़ाती मोटरसाइकिल
उमड़ आयी किसी स्टेशन पर बच्चों की भीड़
मोबाईल टावर जो जगह-जगह उठ आए
पीले फूल जो सड़क किनारे स्वयं थे उग आए
बिजली के खम्बे, खंडहर, पुआल के टाल
नजर आया कोई ठूंठ
पेड़ सुनाते पतझड़ का हाल
दनदनाती लम्बी मालगाड़ी से
अचानक रुक गया दृश्य, कि दिखा
हरे घास के बीच चमकता
स्वच्छ जल, जैसे जड़ा हो नगीना
गांव के रेलवे फाटक के पार दौड़ते बच्चे
जीती जागती फिल्म
सत्यजीत रे की हो जैसे
गोधूलि उड़ातीं गउओं के झुण्ड
समांतर सड़क पर दौड़ते वाहन
दृष्टि अटकी, सरवर में सलेटी बगुले
काली मिट्टी पर थे जिनके पैरों के निशान
पानी में झांकते उड़ते बगुलों के प्रतिबिम्ब
याद दिला गए भूले बिसरे बिम्ब
विशाल नदी का पुल किया पार
होने लगा संध्या का प्रसार
अँधेरे में गुम होते झोंपड़े
जंगल काले पेड़ों के
बीच-बीच में आ जाती कोई नहर या नदी
स्टेशन पर खड़ी दूसरी ट्रेन में
 कालेज छात्राओं की हँसी
एक बच्चे की तुतलाहट
भर गयी थी भीतर एक तरावट
उस दिन ट्रेन की खिड़की से...झांकते !








सोमवार, अप्रैल 1

आसमां की मौन चादर


आसमां की मौन चादर



श्वेत कंचन खिलखिला कर
तितलियाँ कुछ मुस्कुरा कर
श्याम भंवरे गुनगुना कर
क्या सुनाते हैं ? सुनें हम !

पंछियों की चहचहाहट
पत्तियों की सरसराहट
पवन की सरगोशियाँ ये
क्या बताती हैं ? गुनें हम !

आसमां की मौन चादर
ध्या रही किसको निरंतर
नीलिमा की रश्मियाँ ये
क्यों सजाती है ? कहें हम !

दूब कोमल सिर उठाती
दबी फिर भी महमहाती
राह को सुंदर बनाती
क्यों सुहाती है ? जगें हम !

रंग सूरज ने उकेरे
गंध धरती की बिखेरें,
कुसुम अनगिन रूप वाले
खबर किसकी दें, भजें हम !

एक सुर गूंजे फिजां में
एक गुंजन कहकशां में,
एक मस्ती सी समां में
क्या लुटाती है, भरें हम !