मंगलवार, अगस्त 30

गणेश चतुर्थी

 तेरे गुण अनुपम अनंत हैं

जग करता तेरा आराधन

हे गणपति ! हम तुझे चाहते,

 सबके साधन पूर्ण करे तू 

तुझसे बस हम प्रेम मांगते !


ज्ञानसिंधु तू विघ्न विनाशक

रिद्धि सिद्धि का भी है दाता,

 अव्यक्त, चिन्मया, अविनाशी

बुद्धि, विवेक, बोध प्रदाता !


तू विशाल, निर्भय, गर्वीला

दर्शन तेरा शक्ति जगाता,

तेरे गुण अनुपम अनंत हैं

अंतर में चेतना जगाता  !


बड़ी शान है, बड़ा दबदबा

हर बाधा को सदा रौंदता,

आगे बढ़ने का बल देता

अति दयालु, हर पीड़ा हरता !


कर्ण विशाल सभी की सुनता

नयनों में असीम गहराई,

जो भी झाँकें इन नयनों में

प्रज्ञा उसकी भी जग आई !


छोटे-बड़े सभी हैं तेरे

सदा जागृत सजग प्रहरी सा,

भक्त प्रेम से बंधता तुझसे

दुर्जन को यह पाश बाँधता !


छोटा सा मूषक भी तेरा

मोदक मृदु आनंद सा  रसमय,

तुझे समर्पित है तन-मन-धन

हे अनंत ! जग तुझको ध्याता !


गणेश चतुर्थी पर हार्दिक शुभकामनायें

 गणपति अथर्वशीर्ष

गणपति अथर्वशीर्ष  संस्कृत भाषा में एक लघु उपनिषद है। यह पाठ गणेश को समर्पित है, जो बुद्धि और सीखने का प्रतिनिधित्व करने वाले देवता हैं। इसमें कहा गया  है कि गणेश शाश्वत अंतर्निहित वास्तविकता, ब्रह्म के समान हैं। यह स्तोत्र अथर्ववेद से जुड़ा हुआ है। इसका पाठ कई रूपों में मौजूद है, लेकिन सबमें एक ही संदेश दिया गया है। गणेश को अन्य हिंदू देवताओं के समान, परम सत्य और वास्तविकता के रूप में, सच्चिदानंद के रूप में, और हर जीवित प्राणी में आत्मा के रूप में  तथा ॐ के रूप में वर्णित किया गया है।

श्री श्री रविशंकर जी ने ने इस स्तोत्र की बहुत सुंदर और सरल व्याख्या  की है । सर्वप्रथम शांति पाठ किया गया है। ईश्वर से यही प्रार्थना करनी है कि जब तक जीवन रहे, हम शुभ देखें, शुभ ही सुनें. केवल काँटों को नहीं फूलों को भी देखें. हमारी वाणी में स्थिरता हो, अपने वचन पर हम स्थिर रह सकें. ऐसी वाणी न बोलें  जिससे किसी को आघात पहुँचे। वाणी की कुशलता ही जीवन की कुशलता है. सत्य वचन बोलें पर मधुरता के साथ बोलें. यदि वाणी में त्रुटि रह जाती है तो दिल अच्छा होने पर भी हमारे संबंध बिगड़ने लगते हैं. जब तक हम इस धरा पर हैं,  हमारा जीवन देवताओं के काम में लग जाये.  हमसे बड़े काम हों. हमारा जीवन देव के हित में लग जाये.  

इंद्र भी हमारे लिए कल्याणकारी हो. हम अपने आप में स्थिर हो जाएँ. अनिष्टकारी चेतना भी हमारे लिए अनर्थकारी न हो. इंद्र हमारी रक्षा करे. हे गणपति ! तुम ब्रह्म हो, जिसमें जड़, चेतन सब कुछ समाया है. ब्राह्मी चेतना तुम ही हो. तुम ही कर्ता हो. तुम्हीं मेरे दिल की धड़कन चलाते हो, मेरी श्वसन क्रिया भी तुम्हारे कारण ही है. प्रकृति का सारा काम तुम्हारे कारण है. समय-समय पर जो भी परिवर्तन हो रहा है, नदियाँ बह रही हैं, सूरज का उगना आदि सब कुछ तुम्हारे कारण है. विचारों व भावों का उमड़ना भी तुमसे ही है. जैसे एक मकड़ी अपने ही स्राव से जाला बनाती है वैसे ही सब कुछ तुमसे ही हो रहा है. इसे धारण करने वाले भी तुम हो. इन सबको समाप्त करने वाले भी तुम हो. फूल खिलता है फिर मुरझा जाता है, प्राणी जन्मते हैं फिर विनाश को प्राप्त होते हैं. तुम ही सब कुछ हो. यहां जो कुछ भी है वह तुम ही हो. मैं भी तुम ही हूँ. मेरा जीवन तुमसे ही है. बोलने वाले तुम हो, सुनने वाले भी तुम हो. तुम्हीं देने वाले हो, तुम्हीं पकड़ कर रखने वाले हो. तुमसे कुछ बचा नहीं है. सही- गलत, अच्छा-बुरा सब कुछ तुमसे है. तुम मेरे पीछे हो, तुम्हीं आगे हो. पूर्वज भी तुम हो, संतति भी तुम हो. प्रश्न भी तुम हो, उत्तर भी तुम हो. दाएं -बाएं भी तुम हो. स्त्री-पुरुष दोनों तुम हो. सरल और कठिन दोनों तुम हो. विद्या प्राप्ति को कुशलता से किया जाता है, वह दक्षता भी तुम हो. गंतव्य भी तुम हो और मेरे अस्तित्त्व का आधार भी तुम हो. मेरा मूल भी तुम हो, और उद्देश्य भी तुम हो. मनुष्य जन्म मिला इसका कारण तुम हो, देवत्व को प्राप्त करना है, वह भी तुम हो. 

तुम सब जगह से मेरा पालन करो, तुम पालनहार हो. मैं तुम्हारे शरणागत हूँ. वाणी के रूप में तुम हो, वाणी के पार की तरंग भी तुम हो. तुम चिन्मय हो. आनंदमयी चेतना तुम हो. आनंद के भी परे ब्रह्म तुम ही हो. तुम सच्चिदानंद हो. तुम प्रत्यक्ष ब्रह्म हो. अभी इसी क्षण तुम हो ! तुम ज्ञान भी हो और विज्ञान भी हो. बुद्धि के रूप में तुम ही हो. यह जगत तुमसे उपजा है, और तुममें ही स्थित है. हरेक की इच्छा का लक्ष्य तुम ही हो. तुम भूमि हो, जल तुम हो, आकाश, धरा, अग्नि सब तुम हो.  प्रपंच से परे भी तुम हो. 

वैखरी, मध्यमा, पश्यन्ति और परा वाणी भी तुम हो. तुम तीनों गुण के परे हो. तीनों अवस्थाओं के परे तुम हो. तीन देहों के परे हो. ज्ञान को भी तिलांजलि देकर जब कोई गुणातीत हो जाता है, वह गणपति को प्राप्त होता है. भूत, वर्तमान, भविष्य तीनों में तुम हो. तीनों कालों के परे भी तुम हो. 

मूलाधार चक्र में तुम सदा ही हो. इच्छा, क्रिया और ज्ञान तीनों शक्तियों के रूप में तुम हो. ध्यान में स्थित योगी तुम्हें पाते हैं. ब्रह्मा, विष्णु, रूद्र, सूर्य, चन्द्र, ब्रह्म, प्रजापति, भूर, भुवः, स्व आदि  लोक तुम्हीं हो. मन्त्र में देवता बसते हैं. जगत देवताओं के अधीन है, देवता मंत्र में हैं. गम गणपतये नमः, पहले ग फिर अ और अंत में म, ग अर्थात अवरोध, अ मध्य है. म पूर्णता का प्रतीक है. जो बाधा को दूर करे, वह तुम हो। एक दन्त अर्थात एकाग्रता, एकमुखी चेतना, देने वाले, हमें उस ज्ञान और ध्यान में प्रेरित करो. 

गणक ऋषि ने अपने ध्यान में इस मन्त्र को देखा, ऐसे गणपति मुझे प्रेरित करें, मेरे मस्तिष्क को तेजवान बनायें. तुम इस जगत के कारण हो, तुम अच्युत हो, तुम चतुर्भुज वाले हो, इस रूप में तुम मेरे भीतर हो, लाल पुष्प से तुम्हारी पूजा होती है. मूलाधार चक्र में लाल रंग है । पहले रूप में उसे देखा, फिर रूप के साथ संबंध बनाने के लिए कहा गया. प्रकृति और पुरुष से परे तुम हो. योगियों में जो बड़े योगी हैं, ऐसे ध्यानी व योगी को तुम वर देते हो. 

जो इसका अर्थ समझते हैं, वे ब्रह्म तत्व को प्राप्त करते हैं. यह रहस्य उन्हें ही देना चाहिए जो शिष्य हों, जो सौम्य हो. जो बार-बार इस ज्ञान को अपने में दोहराते हैं, उनकी सब कामनाएं पूरी हो जाती हैं. जो इस ज्ञान में अभिषिक्त हो जाते हैं. उनकी वाणी में बल आ जाता है. इस विद्या को पाने के लिए चतुर्थी के दिन इसका परायण करो. कुशलता से इस ज्ञान को पकड़ लें तो सब प्राप्त हो जाता है. इस ज्ञान को अच्छी तरह समझने से यश, सम्पत्ति मोक्ष  सब मिल जाता है. इसका जाप करने से हजारों को आनंद प्राप्त होता है.


सोमवार, अगस्त 29

सदा गूँजते स्वर संध्या के

 सदा गूँजते स्वर संध्या के


ग्रीष्म-शीत आते औ' जाते, 

बसे वसन्त सदा अंतर में, 

 रात्रि-दिवस का मिलन प्रहर हो

  सदा गूँजते स्वर संध्या के !


गुंजित वर्षा काल में बाग 

कोकिल के मधुरिम गीतों से,

अंतर उपवन सदा महकता 

ब्रह्म कमल की मृदु सुगन्ध से !


समता का जहाँ वायु विचरे

रस की खानों से मधु रिसता,

शशधर उर शीतल आभा दे 

भीगा हुआ प्रेम भी झरता !


मानसरोवर  के थिर जल में 

प्रातः जाग निज मुखड़ा देखे,

गोधूलि में विश्रांति पाता 

दिन भर विचरण करता जग  में  !


शनिवार, अगस्त 27

वीर शहीदों के नाम




वीर शहीदों के नाम 

 त्याग दिया हर सुख जीवन का

मृत्यू को भी गले लगाया,

कैसे धुर दीवाने थे वे 

शुभ देश प्रेम को अपनाया !


भारत माता है गुलाम क्यों 

यह दंश उन्हें अति चुभता था, 

ब्रिटिशों की सह रही  दासता

दर्द बहुत ही यह खलता था ! 


उन बलिदानों की गाथा अब 

हर भारतवासी जन जाने, 

वे जो सच्चे सेनानी थे 

उनकी नव कीमत पहचाने ! 


अनगिन बाधाएँ सहकर भी  

भारत हित वे डटे रहे थे , 

नत हो जाता है हर मस्तक 

उनकी  खातिर जो झुके नहीं ! 


वह शौर्य, तेज, पराक्रमी दिल 

वह अमर भाव बलिदानी का, 

देश आज आजाद हुआ है 

है कृतज्ञ उनकी वाणी का !


भारतमाँ पर त्रस्त आज भी 

भूख, गरीबी,व  अज्ञान से,

अस्वच्छता, बेकारी और 

पाखंड, असत्य, अभिमान से ! 


उन वीरों की हर क़ुरबानी 

व्यर्थ नहीं अब जाने पाए, 

वसुंधरा  का यह महादेश  

पुनः विस्मृत निज  गौरव पाए !


गुरुवार, अगस्त 25

कौन फूल खिलने से रोके

कौन फूल खिलने से रोके 
  
बहे न दिल से धार प्रीत की
जाने कितने पाहन रोकें, 
हरियाली उग सकती थी जब 
कौन फूल खिलने से रोके !

सहज स्पंदित भाव क्यों उठते  
तर्कों के तट बांध लिए जब,
घुट कर रह जाती जब करुणा  
कैसे जगे ख़ुशी भीतर तब !

एक बीज धरती में बोते 
बना हजार हमें लौटाती,
इक मुस्कान हृदय से उपजी 
अनगिन दिल के शूल मिटाती !

बहना ही होगा मन को नित 
अंतर का सब प्यार घोलकर, 
भरते रहना होगा घट को 
उस अनाम का नाम बोलकर !

 उसी एक का प्रेम जगत में 
लाखों के अंतर  में झलके,
जो दिल इसमें भीग गया हो 
पा जाता है खुद को उसमें !

मंगलवार, अगस्त 23

मुक्ति का गीत


मुक्ति का गीत


मुक्त हूँ ! इस पल ! यहाँ पर !


मुक्त हूँ हर बात से उस 

हर घड़ी जो टोकती थी,

याद कोई जो बसी थी 

भय बताकर टोकती थी !


मुक्त हूँ नित भीत से भी 

तर्क के उन सीखचों से, 

तोड़ दी दीवार हर वह 

बोझ जिनका था सताता !


मुक्त हूँ ! इस पल ! यहाँ पर !


नील अम्बर सामने था

किंतु दिल यह उड़ न पाता,

 बांध ली थीं साँकलें कुछ  

क़ैद मन को कर लिया था !


मुक्त हूँ हर बात से उस 

हृदय को खिलने न देती 

सहज अपनापन जगाकर 

जो कभी मिलने न देती 


मुक्त  हूँ ! इस पल ! यहाँ पर !

गुरुवार, अगस्त 18

प्रेम की भाषा बोले कृष्ण

प्रेम की भाषा बोले कृष्ण 

नन्द-यशोदा अपलक निरखें 
बाल कन्हैया का शुभ मुखड़ा, 
धन्य हुई ब्रज की धरती पा 
नीलमणि सम चाँद का टुकड़ा ! 

मोर मुकुट पीतांबर धारे 
घुंघराली लट ललित अलकें, 
ओज टपकता मुखमंडल से 
नयनों से ज्यों मधुघट छलकें ! 

प्रतिदिन ग्वालों सँग गोचारण
यमुनातट वंशीवट घूमें, 
वंशी धुन सुन थिरकें ग्वाले 
पशु, पक्षी, पादप मिल झूमें !

कृष्ण, कन्हैया, माधव, केशव
मोहन, गिरधारी, वनमाली, 
अनगिन नाम कई लीलाएं 
वृन्दावन में ही रच डालीं !

प्रेम की भाषा बोले कृष्ण 
प्रेम सुधा में भीगी राधा, 
प्रेमिल बंधन स्नेहिल धागा 
गोकुल में सभी से  बांधा !

बुधवार, अगस्त 17

भीतर रंग सुवास छिपे थे


भीतर रंग सुवास छिपे थे 


डगमग कदम पड़े थे छोटे

शिशु ने जब चलना था सीखा, 

लघु, दुर्बल काया नदिया की 

उद्गम पर जब निकसे धारा !


बार-बार गिर कर उठता जो  

इक दिन दौड़ लगाता बालक, 

तरंगिणी बीहड़ पथ तय कर 

तीव्र गति से बढ़े ज्यों धावक !


 खिला पुष्प जो आज विहँसता 

प्रथम बंद इक कलिका ही था, 

भीतर रंग सुवास छिपे थे 

किंतु कहाँ यह उसे ज्ञात था ?


हर मानव इक वृक्ष छिपाए 

बीज रूप में जग में आता, 

सीखा जिसने तपना, मिटना 

इक दिन  वह जीवन खिल जाता !


बूँद-बूँद से घट भरता है 

बने अल्प प्रयास महाशक्ति ,  

इक दिन में  परिणाम न आते  

बस छूटे नहीं धैर्य व युक्ति !


मंगलवार, अगस्त 16

खुद की ही तलाश में हर दिल

खुद की ही तलाश में हर दिल 


'मैं' जितना 'तुझमें' रहता है 

उतने से ही मिल पाता है, 

खुद की ही तलाश में हर दिल 

संग दूजे जुड़ा करता है !

 

जितना हमने बाँटा जग में 

उतने पर ही होता हक़ है, 

बिन  बिखरे बदली कब बनती 

 इसमें नहीं मेघ  को शक है !

 

अंशी अंश मिलें इस ख़ातिर 

रूप हज़ारों धर लेते हैं,  

खुद को मंदिरों में सजाया 

खुद ही सजदे कर लेते हैं !

 

कोई नहीं सिवाय हमारे 

जिससे तिल भर का नाता है, 

भेद कभी खुल जाए जिस पर 

कण-कण  जगती  का भाता है !

 

सहज हुआ वह बंजारा फिर 

बस्ती-बस्ती गीत सुनाता , 

स्वयं  से मिलने की चाह में 

सारे  जग में घूमा-फिरता  !


रविवार, अगस्त 14

आजादी की शमा जब जली लहराती



आजादी की शमा जब जली लहराती  

तिरंगा सुनाता है अपनी कहानी 
राजा है इसमें न ही कोई रानी, 
शहीदों के खूं से लिखी यह गयी है 
हजारों की इसमें छुपी क़ुरबानी !  

गुलामी का दर्द भयानक बड़ा था
घुट घुट के जीते थे शासन कड़ा था,  
आजादी की शमा जब जली लहराती  
तिरंगा अम्बर  में ऊँचा उड़ा था !

बापू ने इसमें भरे रंग प्यारे 
चरखा बना चक्र, कई संदेश धारे, 
बढ़ते चलें तोड़ बाधायें पथ की 
मंजिल सदा देती, आशा पुकारे !
 
केसरिया सुनाये साहस की गाथा  
हरियाला भारत सुख सपने  सजाता,  
सच्चाई, शांति का संदेशा देकर   
तिरंगा दिलों में आकांक्षा जगाता ! 

शुक्रवार, अगस्त 12

जानना

जानना 


लहर कहाँ जानती है 

सागर कितना गहरा है 

ऊपर ही ऊपर बनती व बिगड़ती 

मान लेती है यही उसकी नियति 

सूर्य रश्मियाँ नहीं जानतीं 

अग्नि का एक महासागर है सूरज 

कोई नहीं जानता 

ब्रह्मांडों की संख्या और सृष्टि का आदि-अंत 

हम जानने की प्रक्रिया भर हैं 

जानने का प्रयास ही मानव की संज्ञा है 

जो जानता है जितना अधिक 

उसके लिए उतना अधिक अजाना रह जाता है 

 जानता है जो कम

उसके लिए अल्प ही अज्ञात रहता है 

यही विरोधाभास 

जीवन का सौंदर्य है और यही रहस्य ! 





गुरुवार, अगस्त 11

एक अनूठा उत्सव आया


एक अनूठा उत्सव आया


बरस-बरस गयी कृपा देव की श्रावण मास पूर्ण हुआ जब, लेने लगा होड़ बदली से पूर्ण चन्द्र खिल आया नभ पर ! भारत की इस पुण्य भूमि पर एक अनूठा उत्सव आया, प्रेम ही जिनका आदि-अंत है संबंधों को निकटतम लाया ! पूर्ण वर्ष का भाव छिपा जो भीतर गहन हुआ अब प्रकटा, बहन बाँधती रक्षा बंधन भाई का भी दिल भर आया ! आशीषें हैं और दुआएँ तिलक लगाती दिए मिष्ठान, अनगिन खुशियाँ बहना पाए बांधें राखी सँग मुस्कान ! मन ही मन वारी है जाती बहन का दिल हुआ गर्वीला, कितनीं यादें उर में आतीं लख भाई का ढंग हठीला ! जो कुछ पाया है भाई से धीरे से माथ से लगाती, निज अंतर हृदय की ऊष्मा बिन बोले चुपचाप लुटाती !



बुधवार, अगस्त 10

रक्षा बंधन

रक्षा बंधन 


यह सनातन संस्कृति की 

रक्षा का सूत्र है 

जिसे बचाया अनेक युगों से 

भाई-बहनों की पावन प्रीत ने 

 जीवित रखी वह परंपरा 

जहाँ घर लौटेगी पुत्री 

और स्वागत करेगी श्रावण पूर्णिमा  

वर्षा  ऋतु की आने कठिनाइयों को भुला 

आगे बढ़ने की प्रेरणा देता है 

इस एक उत्सव में

 छुपे हैं अनेक उत्सव 

जो उत्साह से भर देता है

सीमा पर तैनात वीर जवानों को !

सूत या रेशम की 

छोटी सी एक डोरी 

कह देती है वह 

 जो शब्द नहीं कह सकते 

मस्तक पर लगाया 

 रोली अक्षत का तिलक

ले जाए वह संदेश 

जो कर न पाए सम्प्रेषित

दुनिया की कोई भाषा 

शायद प्रतीकों में छुपा है 

इस जीवन का सत्

नेह का मर्म और संबंधों की मिठास 

घंटों तक किए वार्तालाप भी 

एक स्नेहिल दृष्टि से कम हैं   

यदि कोई पढ़ सके 

मौन की अनुपम भाषा 

राखी सोने-चाँदी की 

या कते सूत की 

वही जानते हैं उसकी क़ीमत 

जो उसमें भेजी 

अंतर की नमी को 

महसूस कर ले 

भावों की महीन  तरंगें 

 छू जाए जिन्हें !




सोमवार, अगस्त 8

कान्हा इक उज्ज्वल प्रकाश सा

कान्हा इक उज्ज्वल प्रकाश सा  


घन श्याम गगन में छाए जब 

घनश्याम हृदय में मुस्काए, 

वन प्रांतर में धेनु झुंड लख

बरबस याद वही आ जाए !


पौ फटते ही मंदिर-मंदिर 

जिसे जगाने गीत गूँजते, 

माखन मिश्री थाल सजा नित  

दीप जला आह्वान करते !


पावन गीता श्लोक नित्य ही 

श्रद्धामय स्वरों से बाँचते, 

कर्मयोग का ज्ञान प्राप्तकर 

पूर्ण भक्ति से पालन करते !


गोधूलि में बाजे बाँसुरी 

कदंब वृक्ष, यमुना कूल पर, 

अश्रुसिक्त नयनों से तकता 

 मन राधा सा व्याकुल होकर !


बालक, युवा, प्रौढ़ हर इक को 

आराध्य रूप कृष्ण  मिला है, 

युगों-युगों से भारत का दिल 

उन विमल चरणों पे झुका है !


कान्हा इक उज्ज्वल प्रकाश सा  

राह दिखाता मानवता को, 

चुरा लिया नवनीत हृदय का  

ओढ़ लिया उर सुंदरता को !