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शनिवार, अप्रैल 11

आकर ही रहता है प्रभात

आकर ही रहता है प्रभात


हमें आकाश से उतारा गया 
सड़कों से भगाया गया 
रेल, बस, कार, साईकिल सभी हुए वर्जित 
बाजार, मॉल, थियेटर से किये गए निष्कासित 
किया गया कैद अपने ही घरों में 
निर्वासित हुए हम नगरों, गाँवों से 
थम गए हैं घर-आंगन में कदम 
जिसकी कद्र करना भूल गए थे हम 
बन गया था जो 
केवल एक रात्रि आश्रय स्थल 
जहाँ से भागा फिरते थे, ढूंढते कुछ राहत के पल  
आदत हो गयी थी शहर-शहर घूमने की
पर्यटन स्थलों पर कितनी भीड़ जमा कर दी 
हमने घरों को साफ रखा 
पर बाजारों को गंदा किया 
पहाड़ों को मैला किया 
नदियों, जंगलों की नैसर्गिकता को हर लिया 
हमने धन को विलासता में उड़ाना चाहा
पर प्रकृति कुछ और ही चाहती थी 
उसने हमें सत्य से अवगत कराया 
हमें अपनी सीमा दिखाई 
लाखों बेघरों की मजबूरी से मिलवाया 
अपने ही देश में पनप रही 
दकियानूसी सोच से रूबरू करवाया 
स्वच्छता की नई परिभाषा सिखाई 
जीने की नई राह दिखाई 
परिवार को जोड़ने का मन्त्र दिया 
एक सुखमय सादी जीवनशैली का सूत्र दिया 
माना कोरोना ने छीन लिया है मानवता से बहुत कुछ 
थोड़ा सा लौटाया भी है 
मेडिकल प्रोफेशन को सम्मान खोया हुआ 
पुलिस को एक नए अवतार में प्रस्तुत किया 
केंद्र व राज्यों में एका सिखाया 
देशवासियों को  एक सूत्र में बाँधा 
अभी लड़नी है एक लम्बी लड़ाई 
नई ऊर्जा और विश्वास के साथ 
अँधेरा कितना भी घना हो 
आकर ही रहता है प्रभात !


सोमवार, जुलाई 4

ऊपर का बंधन तो भ्रम है


आजादी ! आजादी ! आजादी !
मांग है सबकी आजादी,
कीमत देनी पड़ती सबको
फिर भी चाहें आजादी !

नन्हा बालक कसमसाता
हो मुक्त बाँहों से जाने,
किशोर एक विद्रोह कर रहा
माता-पिता के हर नियम से !

नहीं किसी का रोब सहेंगे
तोड़-फोड़ कर यही दिखाते,
हड़तालों से और नारों से
अपनी जो आवाज सुनाते !

इस आजादी में खतरे हैं
बंधन की अपनी मर्यादा,
एक और आजादी भी है
जब बंधन में भी मुक्त सदा !

ऊपर का बंधन तो भ्रम है
मन अदृश्य जाल में कैदी,
उस जाल को न खोला तो
ऊपर की मुक्ति भी झूठी !

छोड़-छाड सब भाग गया जो
सन्यासी जो मुक्त हुआ है,
मन के हाथों बंधा है अब भी
उसको केवल भ्रम हुआ है !

उस असीम की चाह बुलाती
मानव कैद का अनुभव करता,
निमित्त बनता बाहरी बंधन  
असल में उसका मन बांधता !

जिसका रूप अनंत हो व्यापक
कैसे वह फिर कैद रहे,
खुला समुन्दर जैसा है जो
क्योंकर सीमाओं में बहे !

मुक्ति का संदेश दे रहे
खुले व्योम में उड़ते पंछी,
मत बांधो पिंजर में मन को
गा गा गीत सुनाते पंछी !  

जिसके लिये गगन भी कम है
उसे कैद करते हो तन में,
जो उन्मुक्त उड़ान चाहता
कैसे वह सिमटेगा मन में !

पीड़ा यही, यही दुःख साले
सारे बंधन तोड़ना चाहे,
लेकिन होती भूल यहाँ है
असली बंधन न पहचाने !