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रविवार, नवंबर 17

प्रेम

प्रेम 


प्रेम के क्षण में 

स्वर्ग बन जाती है दुनिया 

देव बन जाता है मन 

जो देना चाहता है 

सारे वरदान 

इस जगत को 

प्रेम की नन्ही सी किरण

मिटा देती है सारा तम

खिल जाता है मन उपवन 

प्रेम की तरंग 

भिगो देती है 

आसपास के तटों को 

जब उठती है हास्य के सागर में 

प्रेम दिव्य है 

मानव का मूल है 

पर जो ढक जाता है 

द्वेष और नासमझी के पहाड़ों से

धारा में मीलों नीचे दबे 

हीरे की तरह 

अनदेखा ही रह जाता है 

मन की खुदाई कर उसे पाना है 

प्रियतम के मुकुट में सजाना है 

बार-बार सुननी हैं प्रेम गाथायें 

और गीत प्रेम का गाना है ! 


गुरुवार, दिसंबर 8

मृत्यु शैय्या पर पड़ा व्यक्ति


मृत्यु शैय्या पर पड़ा व्यक्ति

न जाने कितने जन्मों में
कितनी देहें धरी होंगी,
कितने सम्मान गहे होंगे
कितने अपमान सहे होंगे
कितनी बार रोये गिड़गिड़ाए होंगे
सब व्यर्थ गया....
हर रुदन ही नहीं, हर हास्य भी
जो उठा होगा मनचाहा कुछ पा लेने पर
कैसे-कैसे स्वप्न न देखे होंगे
सोई ही नहीं, जगती आँखों से भी
सब बेमानी हो गए.... !

मृत्यु शैय्या पर पड़े व्यक्ति के लिये
हर पीड़ा हर अपमान
क्या इस सत्य से पीठ फेर लेना नहीं था
अब चंद श्वासें ही शेष हैं तो
आ रहा है नजर चेहरा वृद्धा पत्नी का...
कितना कुम्हलाया सा...
जैसे बरसों से नजर ही नहीं गयी हो उस ओर
उस चेहरे की झुर्रियों में
कितनी ही तो दी हैं उसी ने तोहफे में...
कितनी पीड़ा कितने उपालम्भ
व्यर्थ ही दिये वाणी के दंश
व्यर्थ ही किये वाकयुद्ध... मौन युद्ध... !

और ये बच्चे... जताया बड़प्पन
जिनकी आँखें भरी हैं अश्रुओं से
कितना रुलाया इन्हें अपने मान की खातिर
भूल गया वह सारे दंश
जो जगत ने भी दिये होंगे उसे
पर वे सारे प्रतिदान थे... उसने माँगे थे...
यूँ ही नहीं मिले थे
कमाए थे उसने बड़े यत्न से
बड़े आयोजन किये थे इसके लिये
क्योंकि सारा जीवन तो बस
जीया था अपने लिए
उसकी दुनिया घूमती थी बस अपने इर्द गिर्द
वही धुरी था इस विश्व की
वही केन्द्र था जिसके चारों ओर घूम रहा था ब्रह्मांड
और आज छूट रहा था सारा साम्राज्य !

लेकिन अचानक पाया उसने, उतर गया है बोझ
अब वह नहीं है... केवल पूर्ण शांति है
मौत इतनी सुंदर है
उसे यकीन ही नहीं हुआ
जैसे ही आभास हुआ व्यर्थता का
अहंकार जैसे खो गया
और शेष रह गया अस्तित्त्व
नितांत मुक्त, शांत, आनंद मय अस्तित्त्व
जिसे न कुछ पाना है, न कुछ जानना है
न कुछ देना है, न कुछ लेना है
जो है, बस है और सहज है
उसी सहजता में कुछ घटता है
जो घटता है उसका अभिमान नहीं
जो नहीं घटता उसकी चाह नहीं
वह पूर्ण है अपने आप में पूर्ण...!





सोमवार, जनवरी 31

हँसना मना है !

मुकरियाँ

हर बंधन को बुरा बतावे
अपनी मर्जी ही चलवावे
सांसत में सब आये पालक
क्यों सखी साजन, न सखी बालक !

ठूंस-ठूंस कर चारा खाए
अपनी खिदमत खूब कराए
भूल के भी डकार न लेता
क्यों सखी भैंसा, न सखी नेता !

सारे जग से पूजा जाता
सबके दिल पर धाक जमाता
पड़ें पैर सब दादा- मैया
क्यों सखी देव, नहीं रुपैया !

गली गली में उसके चर्चे
जैसे सबको देने पर्चे
दीवाने नौकर या सेठ
क्यों सखी हीरो, नहीं क्रिकेट !

शैम्पू, साबुन बेचे तेल
माल बेचना समझे खेल
मनमानी कीमत है लेता
क्यों सखी बनिया, न अभिनेता !

अनिता निहालानी
३१ जनवरी २०११