बुधवार, जून 29

भीतर दोनों हम ही तो हैं


भीतर दोनों हम ही तो हैं

बाहर जितना-जितना बांटा
भीतर उतना टूट गया,
कुछ पकड़ा, कुछ त्यागा जिस पल
भीतर भी कुछ छूट गया !

यह निज है वह नही है अपना
जितना बाहर भेद बढ़ाया,
अपने ही टुकड़े कर डाले
भेद यही तो समझ न आया !

जिस पल हम निर्णायक होते
भला-बुरा दो दुर्ग बनाते,
भीतर भी दरार पड़ जाती
मन को यूँ ही व्यर्थ सताते !

दीवारें चिन डालीं बाहर
खानों में सब फिट कर डाला,
उतने ही हिस्से खुद के कर
पीड़ा से स्वयं को भर डाला !

द्वंद्व बना रहता जिस अंतर
नहीं वह सुख की श्वास ले सके,
कतरा-कतरा जीवन जिसका
कौन उसे विश्वास दे सके !

इक मन कहता पूरब जाओ
दूजा पश्चिम राह दिखाता,
इस दुविधा में फंस बेचारा
व्यर्थ ही मानव मारा जाता !

बाहर पर तो थोड़ा वश है
लाभ पकड़ हानि तज देंगे,
भीतर दोनों हम ही तो हैं
जो हारे, दुःख हमीं सहेंगे !

भीतर दुई का भेद रहे न
तत्क्षण एक उजाला छाये,
एकसूत्रता बाहर भाती
भीतर भी समरसता भाए !


सोमवार, जून 27

फूल


फूल

फूल, बस खिलना जानता है !

उसे शुभ घड़ी, शुभ दिन की चाह नहीं
सम्पूर्ण हो जाने के बाद वह
 खुदबखुद आँखें खोल देता है...

पांखुरी-पांखुरी खिलता हुआ, अर्पित करता है सुगंध
निस्सीम गगन, उन्मुक्त पवन और धरा के नाम
वह कुछ भी बचाकर नहीं रखता
मुस्कान, रंग और गंध देकर
चुपचाप झर जाता है !

मोहलत नहीं मांगता
क्योंकि वह दाता है, भिक्षुक नहीं
फूल में सौंदर्य है, दर्प नहीं
फूल में औदार्य है, लोभ नहीं

फूल सहज है, जीवन और मृत्यु दोनों में सहज
वह सूरज का ताप और शीत की मार दोनों सहता है
उलाहना नहीं देता
सिफारिश नहीं करता कि उसे राज वाटिका चाहिए
जंगल का एकांत नहीं
उसे निहारो या उपेक्षा करो, वह गांठ नहीं बांधता
देवालय या मरघट दोनों पर चढ़ता है
फूल बस खिलना जानता है !


अनिता निहालानी
२७ जून २०११ 

शनिवार, जून 25

हम और वह


हम और वह

हम अहसान जताते उस पर, जिसको अल्प दान दे देते
किन्तु परम का खुला खजाना, बिन पूछे ही सब ले लेते !

दो दाने देकर भी हम तो, कैसे निर्मम ! याद दिलाते
जन्मों से जो खिला रहा है, क्यों कर फिर उसके हो पाते ?

कैसे मोहित हुए डोलते, मैं बस मैं की भाषा बोलें
परम कृपालु उस ईश्वर का, कैसे फिर दरवाजा खोलें !

कटु वाणी के तीर चलाते, नहीं जानते बीज बो रहे
क्रोध की इस विष की खानि से, निज पथ में शांति खो रहे !

वह करुणा का सागर है, नित अकारण ही रहे दयालु
सदा सहारा देता सबको, शांति का सागर, प्रेम कृपालु !

अनिता निहालानी
२६ जून २०११

शुक्रवार, जून 24

श्वासों की समिधा को



श्वासों की समिधा को


श्वासों की समिधा को
अंतर की हवि कर दें,
पल-पल में जी लें फिर
अमृत यूँ हम पी लें !

उर के घट पावन में
प्रियतम जो बसता है,
अर्पण कर मन अपना
उसकी ही छवि भर दें !

अग्नि है शीतल सी
छवि उसकी कोमल सी,
पल-पल का साक्षी वह
स्मृति है श्यामल सी !

श्वासों की माला को
हर पल ही याद रखें,
उसको ही कर अर्पित
मुक्ति का स्वाद चखें !

यूँ ही सा जीवन जो
क्रीड़ा सा बन भाए,
कृत्यों का करना ही
उनका फल बन जाये !

जैसे वह बाँट रहा
दोनों ही हाथों से,
भर झोली बिखराएं 
हम भी कुछ सौगातें !

दाता वह दानी हम
ज्ञाता वह ज्ञानी हम,
उसकी ही थाती को
चरणों पर बलि कर दें !

उसकी ही शक्ति को
जगकर हम पहचानें,
उसकी ही भक्ति को
जीवन का फल मानें !

भीतर जो रहता है
युग-युग का है साथी,
मौनी जब होता मन
झलकाता वह ज्योति !

अनिता निहालानी
२४ जून २०११

  

गुरुवार, जून 23

मेरे सपनों का भारत


मेरे सपनों का भारत

जो देश गुलाम बना था तब
अब जाग गया है, हुंकारे,
कोई लूट नहीं पायेगा
जन-जन देखो यही पुकारे !

जो गुजर गया फिर ना होगा
अब नई इबारत लिखनी है,
इस भारत की तस्वीर नयी
जग के नक्शे में भरनी है !

आदर्शों की ध्वजा, पताका
अब पुनः यहाँ लहराएगी,
सत्य, अहिंसा और प्रेम के
जनता गीत नए गायेगी !

भूखा ना कोई सोयेगा
हो निर्भय नारी निकलेगी,
शोषण, पीड़न अब न होगा
हर बच्ची कलिका सी खिलेगी !

भयमुक्त हो जन विचरेंगे
अपनेपन की प्रबल कामना,
डंडे का कोई काम न होगा
जब फैलेगी सद् भावना !

थाने भी निरापद होंगे
संसद में न धींगामुश्ती,
बाहुबली बस रंगमंच पर
केवल मैदानों में कुश्ती !

वेदों की ऋचाएँ फिर से
अधरों पर शोभित होंगी,
अपनी भाषा, अपनी बोली
जग में गौरवान्वित होगी !

ऐसा होगा देश हमारा
स्वप्न सभी भारतीयों का,
पूर्ण करेंगे मिलजुल कर हम
नव जोश जगा है हम सब का !

अनिता निहालानी
२३ जून २०११  



बुधवार, जून 22

तीन मुक्तक


तीन मुक्तक

सागर और लहरें
लहरों को सबने देखा है
सागर दिखता किसी एक को,
पार गया जो इन लहरों से  
सागर मिलता उसी नेक को !

खुद
बोझ उठाये है यह धरती
फिर भी तन है बोझ से हारा
मनन करे मन, बूझे बुद्धि
खुद को जाने किसने मारा ?

नारी
शक्ति की आकर जो धारे, सदा बहाए स्नेहिल धारे
शुभ ही झरता जिसके मन से, नारी जग को सदा संवारे,
नन्हीं थी तब स्मित फैलाया, हुई युवा संसार बसाया
माँ बन कर वह हुई प्रवाहित, स्वयं को एक आधार बनाया !


अनिता निहालानी
२२ जून २०११  

मंगलवार, जून 21

विश्व संगीत दिवस पर शुभकामनाएँ


संगीत

प्राणों में नव रस भर, मिठास संगीत भरे
स्वर लहरी गुंजित हो, प्रमुदित उर सबके करे !

रसवंती धार बहे, श्रवणों को सार मिले
सुर में जब गीत उगें, मन को बहार मिले

जीवन को सिंचित कर, रग-रग में अमिय भरे
स्वर लहरी गुंजित हो, विकसित उर कलिका करे !

चेतन कर सुप्त हृदय, नव भाव जगा देता  
व्याकुल मन सहला कर, नव आस जगा देता !

युग-युग से राग व सुर, मानस में ललक भरे
स्वर लहरी गुंजित हो, पुलकित अंतर कर दे !

अनिता निहालानी
२१ जून २०११  

रविवार, जून 19

पिता


पिता

पिता वह मजबूत तना है
जिसके आधार पर पनप रहा है परिवार
और माँ वह जड़
जो दिखाई नहीं देती, पर जिसकी वजह से खड़ा है वृक्ष
और जो मुखरित है नई नई कोंपलों और कलिकाओं में...

पिता की रगों में दौड़ता है सत्
सत् जो शाखाओं से होता हुआ उतर आया है फूलों में
जिनके भार से झुक गयीं हैं शाखाएँ
धरा तक
और नई जड़ों ने गाड़ दिये हैं अपने डेरे
वृक्ष जीवित रहेगा बनेगा साक्षी प्रलय का

पिता की आँखों में सुकून है भीतर अपार संतोष
जो रिस रहा है
पत्तियों के आखिरी सिरों तक ...

अनिता निहालानी
१९ जून २०११

शुक्रवार, जून 17

ब्लॉग जगत के सभी पाठकों को समर्पित


एकत्व जगाती है कविता

कवि को कौन चाहिए जग में
एक सुहृदय पाठक ही तो,
कोई तो हो जग में ऐसा
जो समझे उसकी रचना को !

पाठक पढ़ जब होता हर्षित
कवि और उत्साह से लिखता,
रख देता उंडेल कर दिल को
अंतर का बल उसमें भरता !

कवि शब्दों का खेल खेलता
पाठक उसमें होता शामिल,
सीधी दिल में जाकर बसती 
कविता पूरी होती उस पल !

एकत्व जगाती है कविता
जाने कितने दिल यह जोड़े
देश काल के हो अतीत यह
फैले हर सीमा को तोड़े !

कवि खड़ा होता निर्बल हित
सर्वहारा, वंचित जनता हित,
अंतर भर पीड़ा से उनकी 
विरोध करे अन्याय का नित !

अनिता निहालानी
१७ जून २०११
  

बुधवार, जून 15

रोज नया सूरज उगता है


रोज नया सूरज उगता है

प्रतिक्षण नूतन जल ले आती
नदिया रोज नयी होती है,
सदा प्रवाहित अंतर्मन भी  
नव पल्लव सा खिल उठता है !

रोज नया सूरज उगता है
रात्रि नया सवेरा लाए,
नयी सुरभि किसलय ले आते
 ताजा गीत कवि लिख लाए !

बासी मन क्यों लिये घूमते
ज्ञान नया होता है प्रतिदिन,
बासी हर विचार त्याग दें
बासी फूल न होते अर्पण !

छोड़ भूत की कल्मष कटुता
बढ़ आगे नव भाव जगाएं,
नई कल्पना के प्रेम में
पड़ कर नित नूतन हो जाएँ !

कथनी से करनी दुगनी हो
जिह्वा एक, दो कर दे डाले,
नया-नया निर्माण करें नित
फिर उसके चरणों में डालें !

पिटी-पिटाई बात न हो अब  
साहस का हम सँग करें
छोड़ लकीरों को पीछे फिर  
नित नयी मंजिलें तय करें !
अनिता निहालानी
१६ जून २००० 

सोमवार, जून 13

कुदरत न घूंघट खोलती



कुदरत न घूंघट खोलती 

जो घट रहा सब स्वप्न है
क्यों दिल जलाते हो यहाँ,
जो दिख रहा वह है नहीं
क्यों घर सजाते हो यहाँ !

है ओस की एक बूंद जो
मोती बनी, उड़ जायेगी,
मुड़ देख लो जरा रेत पर
मरीचिका खो जायेगी !

यहाँ बज रही नित बांसुरी
निज सुर लगाये हर कोई
क्यों चाह होती है हमें
वह गीत मेरा गाए ही !  

निज बोध न होता यदि  
कुदरत न घूंघट खोलती  
 पा कर परस इक किरण का   
सोयी कमलिनी बोलती !

अनिता निहालानी
१३ जून २०११  

रविवार, जून 12

बुद्धों की कीमत न जानी


बुद्धों की कीमत न जानी

यह दुनिया की रीत पुरानी
बुद्धों की कीमत न जानी,
जीवित का सम्मान किया न
बाद में पूजी उनकी वाणी !

ईसा को सूली पे चढाया
गाँधी को गोली से उड़ाया,
जहर का प्याला सुकरात को
महावीर को बहुत सताया !

जीवित संत को कुछ ही समझें
बाद में उन पर फूल चढाते,
तेरी जान की कीमत बाबा
पत्थर दिल ये समझ न पाते !

जब भी दुनिया को समझाने
संत कभी धरती पर आया,
नादां, भोली इस दुनिया ने
उनके भीतर रब न पाया !

बाद में पूजा मूरत गढ़ के
जीवित बुद्धों को दुत्कारा,
अजब खेल यह चलता आये
अपने संतों को ठुकराया !

बाबा तू अनमोल है कितना
कोई कहाँ यह बता सका है,
प्रेम भरा दिल तेरा बाबा
स्वयं ही स्वयं को जान सका है !

अनिता निहालानी
१२ जून २०११