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गुरुवार, जनवरी 16

भव सागर में डोले नैया

भव सागर में डोले नैया 


मन ही तो वह सागर है 

जिसमें उठती हैं निरंतर लहरें 

मन ही तो वह पानी है 

जो तन नौका के छिद्रों से 

भीतर चला आया है 

तभी तन की यह नाव 

जर्जर होती जाती है 

नाविक ने कहा भी था 

छिद्रों को बंद करो 

पानी को उलीचो बाहर 

नाव हल्की हुई तो तिर जाएगी 

ज्यों की त्यों उस पार उतर जाएगी 

अथवा तो आने दो 

परम सूर्य की

किरणों को 

मन को सुखाने दो  

मन वाष्प होकर उड़ जाएगा 

देह ख़ाली होगी 

पानी भर जाये तो डुबाता है 

बाहर रहे तो पार ले जाता है 

मन जितना अ-मन हो 

उतना ही भला है 

उसकी तर्क पूर्ण बातें 

केवल मदारी की कला है ! 


मंगलवार, अगस्त 20

सुधि

सुधि   


छाया बना प्रतिक्षण डोले 

स्मरण तुम्हारा बंधन खोले, 

जब से जीवन का स्पर्श हुआ 

कण-कण हँसकर जैसे बोले !


मेरे कदमों की ये छापें 

कितनी मिलतीं उन कदमों से, 

मेरे शब्दों का ज़िद्दीपन 

कितना मिलता तेरी ज़िद से !


मन के हरियाली आँगन में 

पंछी तो है तेरे वन का, 

मन के उजियाले दर्पण में 

अंकन तो है तेरे मन का !


मन मेरा है सोचें तेरी 

दृग मेरे में सूरत तेरी, 

दिल मेरा है साँसें तेरी 

अधरों ऊपर बातें तेरी !


तेरी आँखों का सूनापन 

मेरे सपनों की सच्चाई, 

मन के मतवाले सागर  में 

किश्ती डोले तेरी सुधि की !


गुरुवार, अगस्त 15

स्वतंत्रता दिवस पर हार्दिक शुभकामनाएँ

स्वतंत्रता दिवस पर हार्दिक शुभकामनाएँ 


गगन  रंगा  केसरिया आज 

प्रकृति  भी फहराये तिरंगा, 

माटी का इक खंड नहीं है 

भारत भू है दिल धरती का !


देश आज आगे बढ़ता है 

बाधायें कितनी भी आएँ, 

क़ुर्बानी देकर जो पायी 

आज़ादी नव स्वप्न दिखाए !


सागर की धुर गहराई हो 

या अंतरिक्ष की ऊँचाई, 

देश-विदेश भारतीयों ने 

प्रतिभाओं की अलख जगायी !


माना अभी राह लंबी है

विकसित होने में भारत के,

इकजुट होकर पूर्ण करेंगे 

स्वप्न सभी भारतीय मिल के !


सोमवार, जुलाई 1

गंध झरे जिससे कोमल

गंध झरे जिससे कोमल

जीवन के झुलसाते पथ पर 

मनोहारी शीतल इक छाँव है, 

सूने कँटीले इस मार्ग पर 

सुंदर सलोना सा ठाँव है !


सागर की चंचल लहरों में 

नौका को भी थामे रखता, 

हर इक बार भटकता राही  

पा ही जाता एक गाँव है !


कोई कभी अनाथ हुआ कब 

वह पग-पग साथ निभाता है,  

कैसे जीना इस जीवन में 

ख़ुद आकर सदा सिखाता है !


 कदमों में गति वही भरे है

श्वासों में बनकर प्राण रहा,

नहीं कभी कोई भय व्यापे 

अंतर में दृढ़ विश्वास भरा !  


तेरे होने से ही हम हैं 

तेरे कदमों में आये हैं,  

  गंध झरे जिससे कोमल

वे मौन गीत ही गाये हैं ! 





मंगलवार, मई 28

अंबर पर है सूरज का घर

अंबर पर है सूरज का घर 


उर अंतर लघु पात्र बना है 

सम्मुख विशाल अतीव सागर, 

रह जाता प्यासा का प्यासा 

ख़ाली रहती उर की गागर !


आशाएँ पलती हैं अनगिन 

लेकिन त्याग बहुत छोटा सा,  

अंबर पर है सूरज का घर 

आख़िर कैसे मिलन घटेगा !


 मौन छिपा इक भीतर सबके

बुद्ध विहरते जहाँ रात-दिन,  

हर सीमा मन की टूटेगी 

उगेंगे तुष्टि के नंदन वन !


ख़ुद ही ज्योति पुष्प बनना है

खिलेगा जो शांति सरवर में,

हर दुख बाधा मिट जाएगी 

बढ़ना होगा नयी डगर में !



सोमवार, मार्च 18

गहराई में जा सागर के

गहराई में जा सागर के 


हँसना व हँसाना यारों 

 अपना शौक पुराना है,

आज जिसे देखा खिलते 

कल उसको मुरझाना है !

 

जाने कब से दिल-दुनिया 

ख़ुद के दुश्मन बने हुए, 

बड़े जतन कर के इनको 

तम से हमें जगाना है !

 

बादल नहीं थके अब भी  

कब से पानी टपक रहा ,

आसमान की चादर में 

 हर सुराख़ भरवाना है !


सूख गये पोखर-सरवर  

 दिल धरती का अब भी नम, 

उसके आँचल से लग फिर 

जग की प्यास बुझाना है !


दर्द छुपा सुख  के पीछे  

 संग फूल के ज्यों कंटक, 

किसी तरह  हर बंदे को 

 माया से भरमाना है !


ऊपर ही सोना भीतर 

पीतल, पर उलटा भी है 

गहराई में  सागर के  

सच्चा मोती पाना है !


मंगलवार, जनवरी 30

जल

जल 

हम छोटे-छोटे पोखर हैं 

धीरे-धीरे सूख जाएगा जल 

भयभीत हैं यह सोचकर 

सागर दूर है 

पर भूल जाते हैं 

सागर ही 

बादल बनकर बरसेगा 

भर जाएँगे पुन:

हम शीतल जल से

नदिया बन जल ही 

दौड़ता जाता है  

सागर की बाहों में चैन पाता है ! 


बुधवार, जनवरी 10

एक लपट मृदु ताप भरे जो

एक लपट मृदु ताप भरे जो 



बैंगनी फूलों की डाल से

फूल झर रहे झर-झर ऐसे, 

लहरा कर इक पवन झकोरा 

सहलाये ज्यों निज आँचल से !


याद घेर लेती है जिसकी 

बनकर अनंत शुभ नील गगन, 

कभी गूंजने लगता उर में 

अनहद गुंजन आलाप सघन ! 


एक लपट मृदु ताप भरे जो 

हर लेती हृदय का संताप, 

सुधियाँ किसी अरूप तत्व की 

बनी रहतीं फिर भी अनजान ! 


सागर-लहर, गगन-मेघा सा 

नाता उस असीम से उर का, 

कौन समाया किस पल क़िसमें  

ज्योति अगन या गंध सुमन में !



बुधवार, अक्टूबर 11

साक्षी

साक्षी 


जैसे दर्पण में झलक जाता है जगत 

दर्पण ज्यों का त्यों रहता है 

पहले देखती हैं आँखें

फिर मन और तब उसके पीछे ‘कोई’ 

पर वह अलिप्त है 

उस पर्दे की तरह 

जिस पर दिखायी जा रही है फ़िल्म 

पर्दा नहीं बनाता चित्र 

पर ‘वही’ बन जाता है जगत 

जैसे सागर ही लहरें बन जाए 

पर पीछे खड़ा देखता रहे 

उठना-गिरना लहरों का   

मन भी दिखाता है एक दुनिया 

विचारों, भावनाओं की 

पर उससे निर्लिप्त नहीं रह पाता 

यही तो माया है !


मंगलवार, जून 27

जीवन एक पहेली जैसा !



जीवन एक पहेली जैसा !

जीवन यह संदेश सुनहरा !


छोटा  मन  विराट हो  फैले

ज्यों बूंद बने सागर अपार,

नव कलिका से  कुसुम पल्लवित 

क्षुद्र बीज बने वृक्ष विशाल !


जीवन कौतुक एक अनोखा  !


मन यदि अमन बना सुध भूले

खो जाएं बूँदें सागर  में,

रूप बदल जाए कलिका का

मिट कर बीज मिलें माटी में I


जीवन अवसर एक आखिरी  !


किंतु कोई न मिटना चाहे

मन सुगीत सदा दोहराए

मानव ‘मै’ होकर ही जग में

कैसे आसमान छू पाए I


जीवन एक पहेली जैसा !


हो जाएँ यदि रिक्त स्वयं से

बूंद बहेगी बन के सरिता

स्वप्न सुप्त कलिका खिलने का

पनपेगा फिर बीज अनछुआ


मंगलवार, मार्च 14

हम ही तो बादल बन बरसे

हम ही तो बादल बन बरसे 


तुझमें मुझमें कुछ भेद नहीं 

मैं तुझ से ही तो आया है, 

अब मस्त हुआ मन यह डोले 

सिमटी यह सारी माया है !


यह नीलगगन, उत्तांग शिखर 

उन्मुक्त गर्जती सी लहरें, 

अपने कानन, उपवन, राहें 

टूटे सारे जो थे पहरे !


हम ही तो बादल बन बरसे 

हमने ही रेगिस्तान गढ़े,

सागर में मीन बने तैरे 

अंबर में उच्च उड़ान भरें !


जब  समझ न पाए पागल मन 

दीवानों सा लड़ता रहता, 

जो हर अभाव से था ऊपर

कुछ हासिल करने को मरता !


जब दुःख को सच्चा माना

आँखों से उसे बहाया था, 

फिर खुद को कुछ माना उसने 

तब व्यर्थ बड़ा इतराया था !


गर झांक ज़रा भीतर लेता 

अम्बार लगे हैं ख़ुशियों के, 

जब व्यर्थ खोजता फिरता है 

वंचित ही रहता है उनसे !



गुरुवार, फ़रवरी 9

जिसने भी पहचाना सच को




जिसने भी पहचाना सच को  

मानस हंस ध्यान के मोती 
चुन-चुन कर नित पुलकित होता, 
सुमिरन की डोरी में जिसको 
अंतर मन लख, निरख पिरोता !

मुस्कानों में छलक उठेगी  
सच्चे मोती की शुभ आभा, 
जिसने भी पहचाना सच को  
दुनिया में है वही सुभागा !

ध्यान बिना अंतर मरुथल सम  
मन पंछी भी फिरे उदासा,
रस की भीनी धार बहेगी  
वह लेकिन प्यासा का प्यासा !

कोई भीतर डुबकी मारे 
छू भी लेता बस उस घट को, 
अमीय छलके जहाँ  निरन्तर 
खोले जब उर घूँघट पट को !

ध्यान बरसता कोमल रस सा 
कण-कण काया का भी हुलसे, 
खोजें इक सागर गहरा सा 
व्यर्थ त्रिविध आतप  में झुलसें !

तृप्त हुआ जब मन का सुग्गा 
केवल इक ही नाम रटेगा, 
कृत-कृत्य हो जगत में डोले 
जैसे मन्द समीर बहेगा !

या सुवास बनकर  फैलेगा  
जगती के इस सूनेपन में, 
शब्द सहज झरेंगे जैसे 
पारिजात झरते  उपवन में !