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सोमवार, जून 30

नीलगगन सा जो असीम है

नीलगगन सा जो असीम है


शब्दों से आहत होता मन 

शब्दों की सीमा कब जाने,

शब्द जहाँ तक जा सकते हैं 

मात्र वही स्वयं को जाने ! 


नीलगगन सा जो असीम है 

अंतर का आकाश न देखा, 

दिल को रोका चट्टानों से 

खिंच गयी जिन पर दुख रेखा ! 


एक ऊर्जा हैं अनाम सभी

क्योंकर इतना मोह नाम से, 

नाम-रूप बस छायायें हैं 

बिछड़ गयीं जो परम धाम से !


वैखरी, मध्यमा, पश्यंती  

के पार परावाणी बसती, 

माँ शारदा नित्य महिमा में 

वीणा हाथ में ले  विहँसती ! 


रविवार, जनवरी 19

नये साल की एक भोर

नये साल की एक भोर 


वादा किया था उस दिन

एक नयी भोर का  

लो !  आज ही वह भोर 

मुस्कुराती हुई आ गई है 

गगन लाल है पावन बेला 

सितारों ने ले ली है विदा 

दूर तक फैला है उजियाला 

नयी राहों पर कदम बढ़ाओ 

आँख खोली है पंछियों और कलियों ने 

संग हवाओं के तुम भी तो कुछ गुनगुनाओ 

पोंछ डालो हर कालिमा बीती रात की 

नये जोश से नये साल में कदम रखो 

ख़ुद के होने पर गर्व करो 

अपनी हस्ती को जरा और फैलाओ !


बुधवार, दिसंबर 11

मिलन


मिलन 


जैसे कोई अडिग हिमालय 

मन के भीतर प्रकट हो रहा, 

उससे मिलना ऐसे ही था 

उर उसका ही घटक हो रहा ! 


छूट गयी हर उलझन पीछे 

सम्मुख था एक गगन विशाल, 

जिससे झरती थी धाराएँ 

भिगो रही थीं तन और  भाल !


डूबा था अंतर ज्यों रस में 

भीतर-बाहर एक हुआ था, 

एक विशुद्ध चाँदनी का तट 

जैसे चहूँ ओर बिखरा सा !




बुधवार, सितंबर 25

मिलन धरा का आज गगन से

मिलन धरा का आज गगन से



काले कजरारे मेघों का 

गर्जन-तर्जन सुन मन डोले,  

छम-छम बरसा नीर गगन से 

मलय पवन के सरस झकोले !


चहुँ दिशा से जलद घिर आये 

कितने शुभ संदेश छिपाए, 

आँखों में उतरे धीरे से 

कह डाला सब फिर बह जायें !


उड़ते पत्ते, पवन सुवासित 

धरती को छू-छू के आये, 

माटी की सुगंध लिए साथ 

हर पादप शाखा सहलायें !


ऊँचे, लंबे तने वृक्ष भी 

झूमें, काँपें, बिखरे पत्ते, 

छुवन नीर  की पाकर प्रमुदित 

मिलन धरा का आज गगन से !


ऊपरे नीचे जल ही जल है  

एक हुए धरती आकाश, 

खोयीं सभी दिशाएँ जैसे 

कुहरे में डूबा है प्रकाश !




बुधवार, जून 12

सुख खिलता सदा उजालों में

सुख खिलता सदा उजालों में


​​उलझ-पुलझ अंतर रह जाता  

अपने ही बनाये जालों में, 

जो भी चाहा वह मिला बहुत 

खो  डाला किन्हीं ख़्यालों में !


तम की चादर से ढाँप लिया 

सुख खिलता सदा उजालों में, 

परिवर्तन भी आया केवल 

चाय के कप के उबालों में !


जिनको खाकर तन कुम्हलाया 

हर राज था उन्हीं निवालों में, 

जो विस्मय से भर सकता मन 

उलझाया उसे सवालों में !


उड़ने को खुला गगन पाया 

ख़ुद घेरा इसे दिवालों में, 

जीवन की संध्या में पूछा 

क्या पाया भला बवालों में ?


सोमवार, सितंबर 5

छुपी हुई हर प्रतिभा को अब


एक शिक्षक विद्यार्थी को उसकी छुपी हुई प्रतिभा से ही परिचित नहीं कराता, उसके भीतर सुंदर स्वपन और उन्हें पूर्ण करने का उत्साह भर देता है जो जीवन में आने वाली किसी भी बाधा से घबरा कर उसे थमने नहीं देता।


शिक्षक दिवस पर हार्दिक शुभकामनाएँ

अंतहीन विस्तार है यहाँ 

केवल गगन हमारी सीमा, 

जो चाहे वह पा सकते हैं 

अति अद्भुत चेतन की महिमा !


आयामन सृष्टि का देखकर 

 जीवट, शक्ति, प्रेरणा भर लें, 

जो भी चल पड़ता है पथ पर 

श्रद्धा और विवेक तार दें !


उसी नूर से जग उपजा है 

कण-कण में अनरूप समाया, 

जो चाहे आकार बना लें 

बड़ी अनोखी उसकी माया !


उसके ही प्रतिनिधि बन जाएँ 

निज क्षमता को कम न आंकें, 

छुपी हुई हर प्रतिभा को अब 

जीवन का उपहार मान लें !


पूँजी अपनी बाहर लाएँ

सींच प्रेम, शांति, आनंद से, 

अंतर की भूमि है संपन्न 

भक्ति, ज्ञान, पूत मूल्यों से !


विश्व एक क्रीड़ा का प्रांगण 

अपनी बाजी से क्यों डरते, 

दांव सीख भाग्य आजमाएं 

हृदय सहज उमंग से भर के !


बुधवार, जून 1

पल पल इसको वही निखारे

पल पल इसको वही निखारे

दी उसने ही पीर प्रेम की 

दिलों में भर देता विश्वास, 

उड़ने को दो पंख दिए हैं

दिया अपार  अनंत आकाश !


वही बढ़ाये इन कदमों को 

नित रचता नूतन राहों को, 

लघुता झरी ज्यों बासी फूल 

सदा जगाया शुभ चाहों को !


कूके जो कोकिल कंठों से 

महक रहा सुंदर फूलों में, 

उससे ही यह विश्व सजा है 

सीख छिपी शायद शूलों में !


कोई भूला उसे न जाने 

दुःख अपने ही हाथों बोता, 

केवल निज सत्ता पहचाने 

नित दामन अश्रु से भिगोता !


स्वामी है जो सकल जहाँ का 

उसकी जय में खुद की जय है,

नाम सदा उसका ही लेना

उस संग हर कोई अजय है !


वही गगन, जल, अगन बना है वही हवा, धरती बन धारे, उसने ही यह खेल रचाया पल पल इसको वही निखारे !


हम उसके बनकर जब रहते 

सहज पुलक  में भीगा करते, 

उसकी मस्ती की गागर से  

छक-छक कर मृदु हाला पीते !


सोमवार, जून 21

धरती, सागर, नीलगगन में

धरती, सागर, नीलगगन में 


सत्यम,  शिवम, सुंदरम तीनों 

झलक रहे यदि अंतर्मन में, 

बाहर वही नजर आएँगे 

धरती, सागर, नीलगगन में !


सत्यनिष्ठ उर तीव्र संकल्प 

बन शंकर सम करे कल्याण, 

सुंदरता का बोध अनूठा 

जगा दे जड़-चेतन में प्राण !


कुदरत भी अनुकूल हो रहे 

अंतर अगर सजग हो जाये, 

हर दूरी तज स्वजन बना ले 

दोनों एक साथ सरसायें !


अंतर्मन हो सदा प्रतिफलित 

बाहर सहज सृष्टि बन जाता,

उहापोह हर द्वंद्व मनस का 

जग में कोलाहल बन जाता !


 

मंगलवार, मई 4

चेतन भीतर जो सोया है

चेतन भीतर जो सोया है


बीज आवरण को ज्यों भेदे  

धरती को भेदे ज्यों अंकुर, 

चेतन भीतर जो सोया है 

पुष्पित होने को है आतुर !


चट्टानों को काट उमड़ती 

पाहन को तोड़ती जल धार,

नदिया बहती ही जाती है 

रत्नाकर से है गहरा प्यार !


ऐसे ही भीतर कोई है 

युगों-युगों से बाट जोहता,

मुक्त गगन का आकांक्षी जो  

उसका रस्ता कौन रोकता !


धरा विरोध करे ना कोई 

पोषण देकर उसे जिलाती, 

अंकुर को बढ़ने देती है

लिए मंजिलों तक फिर जाती  


चट्टानें भी झुक जाती हैं 

मिटने को तत्पर जो सहर्ष, 

राह बनातीं, सीढ़ी बनतीं 

नहीं धारें तिल मात्र अमर्ष !


लेकिन हम ऐसे दीवाने 

स्वयं के ही खिलाफ खड़े हैं, 

अपनी ही मंजिल के पथ में 

बन के बाधा सदा अड़े हैं !  


जड़ पर बस चलता चेतन का 

मन जड़ होने से है डरता,

पल भर यदि निष्क्रिय हो बैठे 

चेतन भीतर से पुकारता !


लेकिन मन को क्षोभ सताए  

अपना आसन क्यों कर त्यागे, 

जन्मों से जो सोता आया 

कैसे आसानी से जागे !


दीवाना मन समझ न पाए 

जिसको बाहर टोह रहा है, 

भीतर बैठा वह प्रियतम भी 

उसका रस्ता जोह रहा है ! 

 

रविवार, नवंबर 8

झलक उसकी बरस जाती


झलक उसकी बरस जाती


कल्पना के पंख ओढ़े

उर गगन में उड़  रहा है,

कभी शीतल चंद्रमा,घन

ताप से भी जुड़ रहा है !

 

जाग कर देखे घड़ी भर

रात-दिन यूं घट रहे हैं,

जो कभी उगता न डूबा 

पूर्व-पश्चिम छल रहा है !

 

सत नहीं जो मान उसको

व्यर्थ ही मन बोझ ढोता,

जो कभी आए नहीं भय 

उन दुखों का खोज लेता !

 

स्वयं मंजिल दूर रखकर

दौड़ उसकी फिर लगाता,

पूर्ण होकर "भरूँ  कैसे ?"

मंत्र का फिर जाप करता !

 

इक खलिश की आंच दिल में 

सुगबुगा धूआँ उठाती,

प्रखर ज्वाला बन जले यदि

झलक उसकी बरस जाती !


शनिवार, मार्च 21

जब राज खुलेगा इक दिन यह

जब राज खुलेगा इक दिन यह 


जो द्रष्टा है वह दृश्य बना 
स्वप्नों में भेद यही खुलता,
अंतर बंट जाय टुकड़ों में 
फिर अनगिन रूप गढ़ा करता !

सुख स्वप्न रचे, हो आनन्दित 
दुःख में खुद नर्क बना डाले,
कभी मुक्त मगन उड़ा नभ में 
कभी गह्वर, खाई व नाले !

जो डरता है, खुद को माना
जो डरा रहे, हैं दूजे वे, 
खुद ही है कौरव बना हुआ 
बाने बुन डाले पांडव के !

जब राज खुलेगा इक दिन यह 
मन विस्मित हो कुछ ढगा हुआ, 
स्वप्नों से जगकर देखेगा
मैं ही था सब कुछ बना हुआ !

मैं ही हूँ, दूजा यहाँ नहीं 
यह मेरे मन की माया थी, 
वे दुःस्वप्न सभी ये सुसपने 
केवल अंतर की छाया थी !


रविवार, फ़रवरी 2

सुख की फसल भीतर खिले

उन सभी बच्चों के नाम जिनका आज जन्मदिन है और जो घर से दूर हैं

सुख की फसल भीतर खिले


 है गगन सीमा तुम्हारी उसके पहले मत थमो, बिखरी हुईं मन रश्मियां इक पुंज अग्नि का बनो ! जब नयन खोले थे यहाँ अज्ञात थी सारी व्यथा, कुछ खा लिया फिर सो गए इतनी ही थी जीवन कथा ! फिर भेद मेधा के खुले सारा जगत पढ़ने को था, थी हर कदम पर सीख कुछ हर दिवस बढ़ने को था ! अनन्त है सभी कुछ यहाँ अभाव केवल भ्रम ही है, सीमित इसे हमने किया मंजिल कदम-कदम ही है! खुद का भरोसा नित करो मन में न भय कोई पले, है स्वप्न में जन्नत अगर सुख की फसल भीतर खिले ! दूर घर से देश से भी जन्मदिन पर लो दुआएं, नव वर्ष बीते सुख भरा मिल सभी यह गीत गाएं !