शनिवार, जुलाई 30

बस मुस्कान फरिश्तों वाली



बस मुस्कान फरिश्तों वाली


जैसे कोई गहरी खाई
एक अथाह समुन्दर जैसा,
या फिर कोई गहन कूप हो,
अद्भुत मन मानव का ऐसा !

प्रथम श्वास भरी जब तन ने
मन में मांग उठी थी भारी,
पथ्य चाहिए भूख मिटानी
मन को प्रेम छुवन थी प्यारी !

सहन न हो पल भर की देरी
माँगे मनवाना ही क्रम था,
नन्ही हम सब पर मरती है
सारे कुनबे को यह भ्रम था !

खिली खिली मुस्कान देख के
सारे उस पर वारी जाते,
पल भर में रो-रो कर वह
पिछले रिकार्ड तोड़ दे सारे !

बढ़ती ही गयीं चाहें मन की
पूर्ण करे जो, वही प्रिय था,
बाधक बनता था जो उनमें
सबसे ज्यादा बना अप्रिय था !

मनमौजी बालिका थी पहले
फिर मनमौजी हुई किशोरी,
मनमौजी तब दूजा प्राणी
दिल ले गया उसका चोरी !

दो मनमौजी अब सम्मुख थे
दोनों के अपने सुख-दुःख थे,
कोशिश करते साझे कर लें 
पर अपने-अपने मन्मुख थे !

समझौता बन जाती जिन्दगी
यदि न मन के पार हो सके,
मन की इस गहरी खाई को
दुनिया का न प्यार भर सके !

यह मन जिस स्रोत से उपजा
उसको ही तलाश रहा है,
तृप्ति इसको नहीं सुहाती
सब पाकर निराश रहा है !

खिल जायेगा होकर खाली
मिल जायेगा इसको माली,
फिर न कोई कभी शिकायत
बस मुस्कान फरिश्तों वाली ! 




गुरुवार, जुलाई 28

बहुत रुलाते हैं


नार्वे, लीबिया हो या अफगानिस्तान, या अपना भारत, हर देश के निर्दोष आज हिंसा का शिकार हो रहे हैं.... जाने कब होगा इसका अंत.... 



बहुत रुलाते हैं

बहुत रुलाते हैं आतंक का शिकार हुओं के
परिवार वालों के आँसू
जो अखबार के दूसरे पन्ने पर अंकित हैं, सूखे नहीं हैं
वह रुदन और क्रन्दन
जो एक अर्थहीन हत्या से उपजा है
बहुत दंश देता है !

कुकुरमुत्तों की तरह उग आये हैं
हथियार और बीमार मानसिकताएं
छिड़ा है एक अनाम युद्ध
मुल्क दर मुल्क होते हैं निहत्थों पर वार
आतंक और जनतंत्र में टूटे हुए विश्वास
बहुत रुलाते हैं  !

गोली से व्यक्ति नहीं मरता
मरती है आस्था, टूट जाती है
प्यार की अनवरत धारा
बेबसी, पीड़ा झेलने को बाधित
परिवारों के आँसू
बहुत रुलाते हैं !


मंगलवार, जुलाई 26

अर्थहीन


पिछले दिनों नार्वे में जो नरसंहार हुआ उससे पूरा यूरोप ही नहीं सारा विश्व स्तब्ध है. हिंसा का यह तांडव जल्द से जल्द थमना चाहिए...


अर्थहीन

मरना यदि होशोहवास में हो
नातेरिश्तेदारों के मध्य,
एक पूरी उम्र जी लेने के बाद
तभी सार्थक होती है मृत्यु..

यदि बिना कहे चली आये
किसी की गोली पर सवार,
बनाये किसी साजिश का शिकार
तो हत्या होती है,
और हत्या सदा अर्थहीन होती है..

यह अर्थहीन हत्या
डोल रही है
इस धरती पर
हर मुल्क में
जिसका चेहरा इतना विकृत है
कि पहचाना नहीं जाता
बहुरूपिये सी रूप बदल लेती है
यह अर्थहीन  हत्या....




सोमवार, जुलाई 25

बोले मियां लाल बुझक्कड़


बोले मियां लाल बुझक्कड़

अपना हाल बुरा है यारों अपना हाल बुरा
लूट लिया है जग वालों ने दिल का हाल बुरा !

छोटे थे तो घरवालों की खूब धुनाई खाई
विद्यालय में मास्टर जी ने लम्बी छड़ी दिखाई !

इश्क ने मारा भरी जवानी हुई बड़ी रुसवाई
बात बनी जब बनते-बनते घोड़ी थी अकड़ाई !

तब से हम हैं मुफ्त के सेवक धरी रही चतुराई
एक मधुर मुस्कान के हित सारी तनख्वाह लुटाई !

आधा जीवन बीत चुका दुनियादारी न आयी
कटते-कटते कट जायेगी बाकी भी अधियाई !

रविवार, जुलाई 24

जुड़े मन, जुड़े नयन


सावन

पुलक उठी बादलों में
बूंद बन ढलक गयी,
ताप तप्त वसुंधरा
नीर पा संवर गयी !

दग्ध किया था हिया
पवन वह शरमा गयी,
रूप नया धर लेप
नेह का लगा गयी !

जी उठे तड़ाग, नद
कूप लबालब हुए,
पंछियों के बैन भी
मीत पा थम गए !

खिल उठे बहार बन
झुलस गए थे जो वन,
श्रावण की भेंट पा
जुड़े मन, जुड़े नयन !  



शुक्रवार, जुलाई 22

कबीरा खड़ा बाजार में


कबीरा खड़ा बाजार में

तन्हा नहीं है कोई जग में
 जात खुदा की सदा सँग है
मौला-मस्त बना फिरता है
 जिस पर उसका चढ़ा रंग है !

तोड़े गम से नाता अपना
 दिल में छायी बस उमंग है
पहन फकीरी बाना देखो
 बिन ही पिए चढ़ी तरंग है !

सारा जग है उसका अपना
 देख जमाना उसे दंग है
सदा बहाता प्रेम की धारा
 दिल है जैसे नीर गंग है !

सुलह कराना आदत उसकी
 जब भी जिसमें छिड़ी जंग है
दौलत सभी लुटाता फिरता
 जब दुनिया का हाल तंग है


शुकराना हर श्वास में करता
 जीने का यह नया ढंग है
जंगल-बस्ती घूमे जोगी, 
बनजारा या वह मलंग है ! 


बुधवार, जुलाई 20

दिल से निकली एक दुआ

दिल से निकली एक दुआ

तुमको हर इक खुशी मिले बस इतनी सी ख्वाहिश है
पूर्ण चन्द्र से खिल जाओ दिल की यही गुजारिश है

वक्त पे जागो वक्त पे सोओ वक्त पे घर से आओ-जाओ
कैद नहीं करना है तुमको न ही कोई आजमाइश है

तुमको न पछताना पड़े न ही नजर झुकाना पड़े
याद सदा दिल में रखो दिल अल्लाह की पैदाइश है

सुख तो पीछे आयेगा छोड़ो तुम दुःख की फिक्रें
जिगरा अपना बड़ा करो यह रब की फरमाइश है

घुटनों-घुटनों चलते थे दौड़ लगाना सीख लिया
मंजिल तक भी पहुंचोगे न भटको यह सिफारिश है


सोमवार, जुलाई 18

कैसा यह बंधन है !



कैसा यह बंधन है  !


बांधा था हमने खुद को अपने ही शौक से
उसने तो भागने के रस्ते सुझाये थे

पिंजरे का द्वार खोल इशारे भी कर दिये
उड़-उड़ के पंछी लौट के पिंजरे में आये थे

सुख की तलाश करते तो क्यों नहीं मिलता
हमको उदास नगमे बचपन से भाए थे

ममता ने लूटा दिल को सपने दिखा-दिखा
चादर गमों की ओढ़ के जब मुस्कुराये थे

इंसान की है फितरत गिरता सम्भल-सम्भल के
अश्को में काटी रात दिन हंस के बिताए थे

मजबूरियां बता के मधुशाला से न निकला
कुछ खुद लिये थे जाम कुछ उसने थमाए थे

हँसता रहा खुदा भी दरवेश खिलखिलाया
तौबा किये सनम जब डगमगाए थे

अपनी ही झोंपड़ी थी अपना ही गाँव था
जलती मशाल छोड़ हुजूम लौट आये थे

दुःख से तो वास्ता था सुख दूर का सम्बन्धी
क्या था कुसूर अपना रिश्ते निभाए थे

जब भी मिले थे हँस के शायद छिपा रहे थे
भीतर दुखों के साये अनगिन समाये थे   

शुक्रवार, जुलाई 15

गुरु पूर्णिमा के शुभ अवसर पर अतीत, वर्तमान तथा भविष्य के सभी सदगुरुओं को समर्पित


गुरु पूर्णिमा के शुभ अवसर पर अतीत, वर्तमान तथा भविष्य के सभी सदगुरुओं को समर्पित


ज्यों प्रस्तर में छिपी आकृति
शिल्पी की आँखें लख लेतीं,
अनियोजित जो उसे हटाकर
गढ़ता मनहर देवी मूर्ति !

ज्यों माटी पात्र बन सकती
किसी कुशल कुम्हार के हाथों,
अनगढ़ हीरा बने कीमती
जौहरी यदि तराशे उसको !

ज्यों काष्ठ में छिपी है अग्नि
चिंगारी की बस देर है,
हर मानव में छिपी है ज्योति
जगनी जो देर सबेर है !

हर जंगल उपवन बन सकता
बागवान हो चतुर मेहनती,
हर बच्चा प्रतिभाशाली है
शिक्षक की हो आँख पारखी !

सदगुरु वह शिल्पी है अनुपम
भीतर मन के झांक सके,
अनचाहा अनगढ़ जो हममें
मिटा के उसको सुमन भरे !

कभी प्रेम से कभी हिलाकर
सदगुरु भीतर हमें जगाता,
एक कुशल कारीगर जैसे
भीतर इक आकार बनाता !

जौहरी जैसे काट-छांट कर
पत्थर को तराश रहा हो,
सदगुरु राग-द्वेष को हरकर
भीतर भर प्रकाश रहा हो !

माली सा अंतर को सींचे
कृपा अनोखी अद्भुत उसकी,
परमेश्वर से सदा जुड़ा वह
प्रकटाता उसकी ही ज्योति !

बिखर गयीं थीं जो शक्तियाँ
एकीकृत कर धार भरे वह,
केंद्रित हो जाता जब मन तो
सहज आत्मिक प्यार भरे वह !

सदगुरु हरता अंधकार है
ज्ञान की दुनिया में ले जाता,
पथ ही नहीं दिखाता जग में
पथ पर हमराही बन जाता !

जीवन है यदि एक वाटिका
सदगुरु उसमें खिला कमल है,
भ्रमरों से सब गुनगुन करते
भीतर जगता गीत विमल है !

लोहा ज्यों स्वर्ण हो जाये
पारस सा वह रहे अमानी,
उसके होने भर से होता
कुछ न करता ऐसा ज्ञानी !

साक्षात् है धर्म रूप वह
शास्त्र झरा करता शब्दों से, 
सब करके भी रहे अकर्ता
परम झलकता है नयनों से !

जो भी व्यर्थ है भीतर मन में
अर्पित उन चरणों पर कर दें,
ज्यों अग्नि में पावन होता
स्वर्णिम मन अंतर को कर दे !

सहज हो रहें जैसे है वह
छोड़ मुखौटे, त्याग उपाधि,
जग स्वयं ही हमसे पायेगा
पालें हम जो सहज समाधि !

ईश्वर से कम कुछ भी जग में
पाने योग्य नहीं है कहता,
उसी एक को पहले पालो
सदगुरु दोनों हाथ लुटाता !

राम नाम की लूट मची है
निशदिन उसकी हाट सजी है,
झोली भर-भर लायें हम घर
उसको कोई कमी नहीं  है !

जग में होकर नहीं है जग में
सोये जागे वह तो रब में,
उसके भीतर ज्योति जली है
देखे वह सबके अंतर में !

भीतर सबके भी ज्योति है
ऊपर पड़े आवरण भारी,
सेवा, सत्संग और साधना
उन्हें हटाने की तैयारी !

मल, विक्षेप, आवरण मन के
बाधा हैं ये प्रभु मिलन में,
सदगुरु ऐसी डाले दृष्टि
जल जाते हैं बस इक क्षण में !

भीतर का संगीत जगाता
खोई हुई निज याद दिलाता,
जन्मों का जो सफर चल रहा
उसकी मंजिल पर ले जाता !

ऐसा परम स्नेही न दूजा
सदा ही उसका द्वार खुला है,
जन्मों की जो बिगड़ी, संवरे
ऐसा अवसर आज मिला है !    


   

गुरुवार, जुलाई 14

बम विस्फोट

बम विस्फोट

हवा में उठता शोर, गंध, शोले और
चीथड़े लाशों के
दो पल में जिंदगी ने दम तोड़ा
कटे सर, कहीं धड़
बर्बरता ने सारी सीमाओं को छोड़ा

चीखें, कराहटें, आर्तनाद
विलाप, विनाश, विध्वंस
कहीं दूर नफरत ने जाल बिछाया
कहर बरसाया

शैतान कभी मरा ही नहीं
दानव आज भी जिन्दा हैं
जीवित हैं राक्षस
आतंकियों के रूप में  

की दानव ने ही हथियारों की खेती
बमों के बीज उगाए
कभी धर्म, जाति, कभी देश के नाम पर
मासूमों पर बरसाए

सहमे, सिमटे डरे हुए लोग
मौत के क्रूरतम चेहरे
को भौंचक खुली आँखों से
देखते सो गए  
लोग जो कभी गुनगुनाते थे.
हँसते, गाते थे
बमों की आवाज से बहरे हो गए !
  


बुधवार, जुलाई 13

हम आनंद लोक के वासी

हम आनंद लोक के वासी


मन ही सीमा है मानव की
 पार है मन के खुला गगन,
 ले जाता है खाई में यह 
  ऊपर इससे  मुक्त पवन ! 

जो भी दंश है भीतर चुभता
जो भी हमें अभाव खल रहा,
जो भी पीड़ा हमें सताए
जो भी माँगे नहीं मिल रहा !

सब इसकी है कारगुजारी
मन है एक सधा व्यापारी,
इसके दांवपेंच जो समझे
पार हो गया वही खिलाड़ी !

हम आनंद लोक के वासी
यह हमको नीचे ले आता,
कभी दिखाता दिवास्वप्न यह
अपनी बातों में उलझाता ! 

सुख की आस बंधाता है मन
सुख आगे ही बढ़ता जाता,
थिर जो पल भर न रह सकता
कैसे उससे नर कुछ पाता !

घूम रहा हो चक्र सदा जो
कैसे बन सकता है आश्रय,
स्थिर, अचल एक सा प्रतिपल
वही स्रोत आनंद का सुखमय !

हम हैं एक ऊर्जा अविरत
स्वयं समर्थ, आप्तकाम हम,
मन छोटा सा ख्वाब दिखाए
डूब-डूब जाते उसमें हम !

स्वयं को भूल के पीड़ित होते
स्वयं की महिमा नहीं जानते,
सदा से हैं और सदा रहेंगे
भुला के यह हम रहे भागते !

मुक्ति तभी संभव है अपनी
मन के पार हुआ जब जाये
इससे जग को देखें चाहे,
यह न हममें जग भर पाए !