गुरु पूर्णिमा के शुभ अवसर पर अतीत, वर्तमान तथा भविष्य के सभी सदगुरुओं को समर्पित
ज्यों प्रस्तर में छिपी आकृति
शिल्पी की आँखें लख लेतीं,
अनियोजित जो उसे हटाकर
गढ़ता मनहर देवी मूर्ति !
ज्यों माटी पात्र बन सकती
किसी कुशल कुम्हार के हाथों,
अनगढ़ हीरा बने कीमती
जौहरी यदि तराशे उसको !
ज्यों काष्ठ में छिपी है अग्नि
चिंगारी की बस देर है,
हर मानव में छिपी है ज्योति
जगनी जो देर सबेर है !
हर जंगल उपवन बन सकता
बागवान हो चतुर मेहनती,
हर बच्चा प्रतिभाशाली है
शिक्षक की हो आँख पारखी !
सदगुरु वह शिल्पी है अनुपम
भीतर मन के झांक सके,
अनचाहा अनगढ़ जो हममें
मिटा के उसको सुमन भरे !
कभी प्रेम से कभी हिलाकर
सदगुरु भीतर हमें जगाता,
एक कुशल कारीगर जैसे
भीतर इक आकार बनाता !
जौहरी जैसे काट-छांट कर
पत्थर को तराश रहा हो,
सदगुरु राग-द्वेष को हरकर
भीतर भर प्रकाश रहा हो !
माली सा अंतर को सींचे
कृपा अनोखी अद्भुत उसकी,
परमेश्वर से सदा जुड़ा वह
प्रकटाता उसकी ही ज्योति !
बिखर गयीं थीं जो शक्तियाँ
एकीकृत कर धार भरे वह,
केंद्रित हो जाता जब मन तो
सहज आत्मिक प्यार भरे वह !
सदगुरु हरता अंधकार है
ज्ञान की दुनिया में ले जाता,
पथ ही नहीं दिखाता जग में
पथ पर हमराही बन जाता !
जीवन है यदि एक वाटिका
सदगुरु उसमें खिला कमल है,
भ्रमरों से सब गुनगुन करते
भीतर जगता गीत विमल है !
लोहा ज्यों स्वर्ण हो जाये
पारस सा वह रहे अमानी,
उसके होने भर से होता
कुछ न करता ऐसा ज्ञानी !
साक्षात् है धर्म रूप वह
शास्त्र झरा करता शब्दों से,
सब करके भी रहे अकर्ता
परम झलकता है नयनों से !
जो भी व्यर्थ है भीतर मन में
अर्पित उन चरणों पर कर दें,
ज्यों अग्नि में पावन होता
स्वर्णिम मन अंतर को कर दे !
सहज हो रहें जैसे है वह
छोड़ मुखौटे, त्याग उपाधि,
जग स्वयं ही हमसे पायेगा
पालें हम जो सहज समाधि !
ईश्वर से कम कुछ भी जग में
पाने योग्य नहीं है कहता,
उसी एक को पहले पालो
सदगुरु दोनों हाथ लुटाता !
राम नाम की लूट मची है
निशदिन उसकी हाट सजी है,
झोली भर-भर लायें हम घर
उसको कोई कमी नहीं है !
जग में होकर नहीं है जग में
सोये जागे वह तो रब में,
उसके भीतर ज्योति जली है
देखे वह सबके अंतर में !
भीतर सबके भी ज्योति है
ऊपर पड़े आवरण भारी,
सेवा, सत्संग और साधना
उन्हें हटाने की तैयारी !
मल, विक्षेप, आवरण मन के
बाधा हैं ये प्रभु मिलन में,
सदगुरु ऐसी डाले दृष्टि
जल जाते हैं बस इक क्षण में !
भीतर का संगीत जगाता
खोई हुई निज याद दिलाता,
जन्मों का जो सफर चल रहा
उसकी मंजिल पर ले जाता !
ऐसा परम स्नेही न दूजा
सदा ही उसका द्वार खुला है,
जन्मों की जो बिगड़ी, संवरे
ऐसा अवसर आज मिला है !