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बुधवार, अगस्त 13

प्रकृति के सान्निध्य में

प्रकृति के सान्निध्य में 

भोर की सैर 


श्रावण पूर्णिमा की सुहानी भोर 

 छाये आकाश पर बादल चहूँ ओर 

प्रकृति प्रेमी एक छोटे से समूह ने 

कब्बन पार्क में एक साथ कदम बढ़ाये 

जो दिल में एक नये अनुभव का 

सपना संजोकर थे आये !


हरियाली से भरे झुरमुट 

और पंछियों के कलरव में 

एक सुंदर कविता से आगाज़ हुआ 

हर दिल में सुकून जागा 

और कुदरत के साथ होने का अहसास हुआ ! 


सम्मुख था आस्ट्रेलियन पाम

जिसे कैप्टन कुक पाइन ट्री भी कहते हैं 

जो झुक जाते हैं भूमध्य रेखा की ओर 

दुनिया में चाहे कहीं भी रहते हैं 

हर किसी ने जब उसके तने को छुआ था

शायद उस पल में  

एक अनजाना सा रिश्ता उससे बन गया था !


फिर बारी आयी आकाश मल्लिका की 

जिसकी भीनी ख़ुशबू से सारा आलम महका था !


वृक्षों में मैं पीपल हूँ, कृष्ण ने कहा था 

इसके नीचे ही बुद्ध को ज्ञान हुआ था 

पीपल में इतिहास और पुराण छिपे हैं 

बरगद के पैर चारों दिशाओं में बढ़े हैं 

घेर लेता यह भूमि को, अपनी जटाओं से 

कभी उग जाता किसी अन्य पेड़ की शाखाओं पे 

मिट जाता शरण देने वाला 

बस जाता मेहमान

बनियों की बैठकें 

हुआ करती रही होंगी इसके नीचे 

तभी नाम पाया है बैनियान !


ब्रह्मा ने किया था विश्राम 

सट शाल्मली के तने से, 

सेमल की कोमल रूई का 

जन्मदाता है ये !


जलीय भूमि के पौधों की दुनिया अलग थी 

हरियाली चप्पे-चप्पे पर 

जल को ढके थी !


चीटियों के घोसलें शाख़ों पर लगे देखे 

जब रोमांच से भरे उनके किस्से सुने 

 अनोखे राज जाने तब कुदरत के !


अरबों वर्ष पुरानी चट्टानें भी वहाँ हैं 

डायनासोर के विलुप्त होने की जो गवाह हैं 

श्वेत मकड़ियाँ श्वेत तने पर 

नज़र नहीं आती हैं 

शायद इस तरह शिकार होने से

 ख़ुद को बचाती हैं 

वृक्षों और कीटों का संसार निराला है 

जिसने जरा झाँका इसके भीतर 

मन में हुआ ज्ञान का उजाला है ! 


बुधवार, नवंबर 27


जो आकाश है 

वही सूरज बन गया है 

जो सूरज है 

वही धरा बना 

जो धरा है वही चाँद 

और सभी निरंतर होना चाहते हैं 

वह, जो थे 

जाना चाहते हैं वहाँ 

जहाँ से आये थे !


आदमी में 

आकाश है परमात्मा 

सूरज - आत्मा 

चाँद - मन और 

धरा है देह 

मन, देह से और 

देह, आत्मा से जुड़ना चाहती है 

आत्मा की चाह है परमात्मा से जुड़ 

आकाश होना 

यही गति जीवन है 

अंततः सभी आकाश हैं 

विस्तीर्ण, अनंत, शून्य आकाश !


शुक्रवार, मार्च 17

रिक्तता


रिक्तता 

जब ख़ाली हो मन का आकाश 

तो कोई राजहंस तिरता है

उसमें हौले-हौले 

नील निरभ्र आकाश में वह श्वेत बादल सा हंस 

जिसके पंखों की श्वेत आभा  

पथ को रोशन करती है 

जीवन में उजास भरती है 


जब ख़ाली हो मन का आकाश 

तो वंशी की धुन गूँजती है 

मद्धिम-मद्धिम 

खुले अंबर में वह प्यारी सी तान 

आह्लादित करती मन प्राण 

हृदय में विश्वास भरती है 


जब न रहे कोई दूसरा 

तो रस की एक धार बही आती है 

मंद-मंद हवा के झोंकों सी 

देखते-देखते 

सारे जग में छा जाती है ! 


बुधवार, जून 1

पल पल इसको वही निखारे

पल पल इसको वही निखारे

दी उसने ही पीर प्रेम की 

दिलों में भर देता विश्वास, 

उड़ने को दो पंख दिए हैं

दिया अपार  अनंत आकाश !


वही बढ़ाये इन कदमों को 

नित रचता नूतन राहों को, 

लघुता झरी ज्यों बासी फूल 

सदा जगाया शुभ चाहों को !


कूके जो कोकिल कंठों से 

महक रहा सुंदर फूलों में, 

उससे ही यह विश्व सजा है 

सीख छिपी शायद शूलों में !


कोई भूला उसे न जाने 

दुःख अपने ही हाथों बोता, 

केवल निज सत्ता पहचाने 

नित दामन अश्रु से भिगोता !


स्वामी है जो सकल जहाँ का 

उसकी जय में खुद की जय है,

नाम सदा उसका ही लेना

उस संग हर कोई अजय है !


वही गगन, जल, अगन बना है वही हवा, धरती बन धारे, उसने ही यह खेल रचाया पल पल इसको वही निखारे !


हम उसके बनकर जब रहते 

सहज पुलक  में भीगा करते, 

उसकी मस्ती की गागर से  

छक-छक कर मृदु हाला पीते !


सोमवार, सितंबर 27

अस्तित्त्व और चेतना

अस्तित्त्व और चेतना 

ज्यों हंस के श्वेत पंखों में 

बसी है धवलता 

हरे-भरे जंगल में रची-बसी हरीतिमा 

जैसे चाँद से पृथक नहीं ज्योत्स्ना 

और सूरज से उसकी गरिमा 

वैसे ही अस्तित्त्व से पृथक नहीं है चेतना 

अग्नि में ताप और प्रकाश की नाईं

शक्ति शिव में समाई 

ज्यों दृष्टि नयनों में बसती है 

मनन मन में 

आकाश से नीलिमा को कैसे पृथक करेंगे 

हिरन से उसकी चपलता 

वैसे ही जगत में है उसकी सत्ता 

लहरें जल से  हैं बनती 

जल क्या नहीं उसकी कृति !


मंगलवार, जुलाई 27

अस्तित्त्व

अस्तित्त्व 

जब अंतर झुका हो 

तब अस्तित्त्व बरस ही जाता है 

कुछ नहीं चाहिए जब 

तब सब कुछ अपनत्व की 

डोर से बंध जाता है 

कदमों को धरा का परस

माँ की गोद सा लगता 

सिर पर आकाश का साया 

पिता के मोद सा 

हवा मित्र बनकर सदा साथ है 

जल मन सा बहता भीतर 

अनल प्रेम की सुवास है 

हर घड़ी कोई आसपास है  

जब अनंत का स्पर्श किया जा सकता हो 

तो कोई क्यों बंधन सहे 

जब अनायास ही बरसता हो आनंद 

तो क्यों कोई क्रंदन बहे 

बस जाग कर देखना ही तो है 

स्वप्न में जी रहे नयनों को  

अपना मुख मोड़ना ही तो है 


शुक्रवार, जून 18

प्रकृति के कुछ रंग

प्रकृति के कुछ रंग

अपने–अपने घरों में कैद

खुद से बतियाते

अपने इर्दगिर्द ब्रह्मांड रचने वाले लोग

क्या जानें कि नदी क्यों बहती है

दूर बीहड़ रास्तों से आ

ठंडे पानी को अपने अंक में समेटे

तटों को भिगोती, धरा को ठंडक

पहुंचाती चली जाती है

क्यों सूरज बालू को सतरंगी बनाता

नदी की गोद से उछल कर शाम ढले उसी में सो जाता है

आकाश झांकता निज प्रतिबिम्ब देखने

संवारते नदी के शीशे में वृक्ष भी अपना अक्स

सदियों से सर्द हुआ मन

धूप की गर्माहट पा पिघल कर

बहने लगता है नदी की धारा के साथ

बर्फ की चादर से ढका धरा का कोना

जैसे सुगबुगा कर खोल दे अपनी आँखें

नन्हे नन्हे पौधों की शक्ल में

मन की बंजर धरती पर भी गुनगुनी धूप

की गर्माहट पाकर गीतों के पौधों उग आते

हल्की सी सर्द हवा का झोंका घास को लहराता हुआ सा

जब निकल जाये

तो गीतों के पंछी मन के आंगन से उड़कर

नदी के साथ समुन्दर तक चले जाते

धूप की चादर उतार, शाम की ओढ़नी नदी ओढ़े जब

सिमट आयें अपने-अपने बिछौनों में

अगली सुबह का इंतजार करते कुछ स्वप्न !

 

गुरुवार, जून 3

बिन मांगे, बिना किये मिला

 बिन मांगे, बिना किये मिला 

धरा मिली आकाश भी मिला 

 जन्म-मृत्यु वरदान में मिला, 

माता-पिता का दुलार मिला 

सब कुछ तो हमको यहीं मिला !


शिक्षा पायी, संस्कार मिला 

बचपन, तरुणाई सहज मिली, 

खुद ही आयी प्रौढ़ावस्था 

वृद्ध की फिर काया भी मिली !


क्षुधा जानी, तृष्णा भी मिली 

आँसूं बहे, मुस्कानें मिली,

रिश्ते पनपे, परिवार मिला 

क्या कहें अधिक स्वीकार मिला !


सब कुछ मिलता ही आया है 

हमने अपनी मुहर लगाई, 

अहंकार ही सदा बढ़ाया 

सिर पर गठरी और चढ़ाई !


हो कृतज्ञ बस हल्का हो मन 

शून्य से भरे तन का कण-कण,

जिसने श्वासों का दान दिया  

उस अनंत का पावन सुमिरन ! 


मंगलवार, जनवरी 12

सब कुछ उसमें वह सबमें है

सब कुछ उसमें वह सबमें है
झर-झर बरस रहा है बादल 
भर ले कोई खोले आँचल, 
सिक्त हुआ आलम जब सारा 
क्यों प्यासा है मन यह पागल !

सर-सर बहता पवन सुहाना 
जैसे गाये मधुर तराना, 
लहराते अरण्य प्रांतर जब
 पढ़ता क्यों दिल गमे फ़साना !

चमक दामिनी दमके अंबर
प्रकटा क्षण में भीतर-बाहर, 
हुआ दीप्त जब कण-कण भू का 
अंधकार में क्यों डूबा उर !

मह-मह गन्ध लुटाता उपवन 
सुख-सौरभ से भर जाता वन, 
हुई सुवासित सभी दिशाएं 
कुम्हलाया सा क्यों व्याकुल बन !

जर्रे-जर्रे बसा आकाश 
दूर नहीं वह हृदय के पास, 
सब कुछ उसमें वह सबमें है 
फिर क्यों कहे मिल जाये काश ! 
 

रविवार, सितंबर 20

आकाश कब बुलाये

 आकाश कब बुलाये

भूली सी कोई याद

  जाने कब से सोयी है

 हर दिल की गहराई में 

  करती है लाख इशारे जिंदगी

किसी तरह वह याद 

 दिल की सतह पर आये 

युग-युग से  किया विस्मृत जिसे 

बेवजह माया के हाथ पिसे

अब करे कोई क्या उपाय 

कि बिछड़े उस प्रियतम की 

याद आये... 

और उसका विरह सताये 

फिर देह भाव छूटे 

पिंजर मन का टूटे 

थे असीम से छूटे 

सीमा अब न भाए

धरती यही सोचे 

आकाश कब बुलाये !


गुरुवार, अगस्त 27

आसमान निर्मल अविकारी

 आसमान निर्मल अविकारी 

 

अंबर, अधर, व्योम,  नीलाम्बर 

गगन, अनंत, अविचल, अकम्पन,

अरबों, खरबों नक्षत्रों  को

निज अवकाश किया है धारण ! 

 

शून्यवत न होता परिभाषित 

धरती को द्यौ व्याप रहा है, 

नित प्रकाश रंगों से सजता  

निज का  कोई रंग नहीं है !

 

एक विशाल चँदोवे जैसा 

तारों से मंडित यह अनुपम, 

एक तत्व है सूक्ष्म अनश्वर 

रचता है जिसे स्वयं ईश्वर !

 

सभी नाद अगास  में होते 

वायु संग आकाश मिले जब, 

भीतर तन के बाहर मन के 

ठहरे इसमें दोनों तन-मन !

 

कभी घने बादल ढक लेते 

जैसे मन को ढके कुहासा, 

आसमान निर्मल अविकारी 

 चमके तड़ित या हो गर्जना !