कैसा यह बंधन है !
बांधा था हमने खुद को अपने ही शौक से
उसने तो भागने के रस्ते सुझाये थे
पिंजरे का द्वार खोल इशारे भी कर दिये
उड़-उड़ के पंछी लौट के पिंजरे में आये थे
सुख की तलाश करते तो क्यों नहीं मिलता
हमको उदास नगमे बचपन से भाए थे
ममता ने लूटा दिल को सपने दिखा-दिखा
चादर गमों की ओढ़ के जब मुस्कुराये थे
इंसान की है फितरत गिरता सम्भल-सम्भल के
अश्को में काटी रात दिन हंस के बिताए थे
मजबूरियां बता के मधुशाला से न निकला
कुछ खुद लिये थे जाम कुछ उसने थमाए थे
हँसता रहा खुदा भी दरवेश खिलखिलाया
तौबा किये सनम जब डगमगाए थे
अपनी ही झोंपड़ी थी अपना ही गाँव था
जलती मशाल छोड़ हुजूम लौट आये थे
दुःख से तो वास्ता था सुख दूर का सम्बन्धी
क्या था कुसूर अपना रिश्ते निभाए थे
जब भी मिले थे हँस के शायद छिपा रहे थे
भीतर दुखों के साये अनगिन समाये थे