मंगलवार, फ़रवरी 28
कब आँखें उस ओर मुड़ेगीं
कब आँखें उस ओर मुड़ेगीं
पानी मथता है संसार
बाहर ढूँढ रहा है प्यार,
फूल ढूँढने निकला खुशबू
मानव ढूँढे जग में सार !
राजा भी यहाँ लगे भिखारी
नेता भी पीछे ही चलता,
सबने गाड़े अपने खेमे
बंदर बाँट का खेल है चलता !
सही गलत का भेद खो रहा
लक्ष्मण रेखा मिटी कभी की.
मूल्यों की कोई बात न करता
गहरी नींद न टूटे जग की !
जरा जाग कर देखे कोई
कंकर जोड़े, हीरे त्यागे,
व्यर्थ दौड़ में बही ऊर्जा
पहुँचे कहीं न वर्षों भागे !
सत्य चहुँ ओर बिखरा है
आँखें मूंदे उससे रहता,
भिक्षु मन कभी तृप्त न होता
अहंकार किस बूते करता !
हर क्षण लेकिन भीतर कोई
बैठा ही है पलक बिछाये,
कब आँखें उस ओर मुड़ेगीं
जाने कब वह शुभ दिन आये !
रविवार, फ़रवरी 26
देने वाला देता हर पल
देने वाला देता हर पल
मौन में ही संवाद घट रहा
दोनों ओर से प्रेम बंट रहा,
एक नशीली भाव दशा है
ज्यों चन्द्र से मेघ छंट रहा !
एक अचलता पर्वत जैसी
एक धवलता बादल जैसी,
कोई मद्धिम राग गूंजता
एक सरलता गाँव जैसी !
गूंज मौन की फैली नभ तक
खबर इश्क की पहुंची रब तक,
कैसे, कोई, कहाँ छिपाए
खुशबू डोली अंतरिक्ष तक !
एक अनल शीतल जलती है
एक आस भीतर पलती है,
यह पल यहीं ठहर ही जाये
कब ऐसी घड़ियाँ मिलती हैं !
देने वाला देता हर पल
टाला करते हम कह कल-कल
अहर्निश सभी सदा दौड़ते
कौन रुका है यहाँ एक पल !
शुक्रवार, फ़रवरी 24
देखो कोई ताक रहा है
देखो ! कोई ताक रहा है
सम्मुख आने से घबराए
आहट भर से झट छुप जाए,
उर के भीतर से ही देखे
चुपके-चुपके झांक रहा है !
देखो ! कोई ताक रहा है
पर्दे के पीछे वह रहता
सारी नादानी को सहता,
पल-पल छिन-छिन गुपचुप निशदिन
चलता उसका चाक रहा है !
देखो ! कोई ताक रहा है
लुका छिपी का खेल चल रहा
यूँ हर पल ही मेल हो रहा,
दर्पण यह मन बन ना जाए
तब तक जीवन खाक रहा है !
देखो ! कोई ताक रहा है
दृश्य वही द्रष्टा भी वह है
फिर भी पटल मध्य में डाला,
कैसा खेल रचाया माधव
अनुपम, अद्भुत आंक रहा है !
देखो ! कोई ताक रहा है
प्रेम धार जब दिल में बहती
तब सारे पर्दे गिर जाते,
प्रकट हुआ वह छिप न सके तब
प्रेमी-प्रियतम आप रहा है !
देखो ! कोई ताक रहा है
जब प्रियतम भी खो जाता है
शेष प्रेम ही प्रेम रहे उर,
न प्याला न मधु ही बचता, बस
मदहोशी का आक रहा है !
देखो ! कोई ताक रहा है
बुधवार, फ़रवरी 22
ठहर गया उर ज्यों आकाश
ठहर गया उर ज्यों आकाश
विरस हुआ जग से जब कोई
स्वरस में डूबा उतराया,
धीरे-धीरे उससे उबरा
रस कोई भी बांध न पाया !
जग से लौटा ठहरा खुद में
स्वयं से भी फिर मुक्त हुआ,
स्वयं ‘पर’ के बल पर ही टिकता
मन इससे भी रिक्त हुआ !
अब न कोई दौड़ शेष है
न जग की न भीतर की ही,
ठहर गया उर ज्यों आकाश
कंपती नहीं ज्योति अंतर की !
सोमवार, फ़रवरी 20
शिवरात्रि के पावन पर्व पर हार्दिक शुभकामनायें
शिवरात्रि पर
एक झलक जो तेरी पाए
तेरा दीवाना हो जाये,
गा-गा कर फिर महिमा तेरी
मस्त हुआ सा दिल बहलाए !
तू कैसी सरगोशी करता
जो जैसा, तुझे वैसा देखे,
पल–पल चमत्कार दिखलाता
बुद्धि खा जाती है धोखे !
कौन जान सकता है तुझको
अगम, अगोचर, अकथ, अनंत,
एक प्रखर आलोक अनोखा
जिसका कभी न होता अंत !
नभ के सूरज उगते मिटते
भीतर तेरा सूर्य अजर है,
तू अकम्प सदा है प्रज्वलित
परम उजाला वही अमर है !
तू करुणा का सिंधु अपरिमित
नहीं पुकार अनसुनी करता,
जो तुझको आधार बनाता
अंतर वह निज प्रेम से भरता !
शुक्रवार, फ़रवरी 17
उसने कहा था
उसने कहा था
सारी कायनात भी छोटी पड़ती है
प्रेम लुटाने के लिये मुझे
और झगड़ने के लिये भी तुम्हें
मेरी जरूरत पड़ती है....
मैं तुम्हें प्रेम कर सका
क्योंकि मैंने चाहा सम्पूर्ण अस्तित्त्व को
तुम खफा हो मुझसे भी
सारी दुनिया नजर आती है शायद
दुश्मन तुम्हें...
अकारण चहकता है मेरा मन
क्योंकि जीवन एक रहस्यमय घटना है
तुम उदास हो
हर शै की तह तक जाकर भी....
मंगलवार, फ़रवरी 7
आया वसंत झूम के
आया वसंत झूम के
धूप ने पिया जब फूलों का अर्क
भर गयी ऊर्जा उसके तन-बदन में....
कल तक नजर आती थी जो कृश और कुम्हलाई
आज कैसी खिल गयी है...
वसंत के आने की खबर उसको भी मिल गयी है !
धरा ने ली अंगड़ाई
भर दिया वनस्पतियों में यौवन
सिकुड़ी, सूखी सी दिखती थी जो डाल
आज पल्लवों से मिल गयी है
वसंत के आने की खबर उसको भी मिल गयी है !
पाले में ढके, कोहरे में कैद खेत
झूमने लगे पा परस
वासन्ती हवा का
चुप सी खड़ी थी जो सरसों की हर वह कली
आज फूल बन के घर से निकल गयी है
वसंत के आने की खबर उसको भी मिल गयी है !
अंतर में हुलस उठी बालकों, बड़ों सबके
ठंड से जो थी बेहाल
घरों में बंद थी, हुल्लड मचाने
टोली उनकी फूलों के घर गयी है
वसंत के आने खबर उसको भी मिल गयी है !
रविवार, फ़रवरी 5
ऊपर हँसते भीतर गम था
ऊपर हँसते भीतर गम था
जाने कैसी तंद्रा थी वह
कितनी गहरी निद्रा थी वह,
घोर तमस था मन पर छाया
ढके हुए थी सब कुछ माया !
एक विचारों का जंगल था
भीतर मचा महा दंगल था,
खुद ही खुद को काट रहे थे
कैसा फिर ? कहाँ मंगल था !
अपनों से ही की थी दुश्मनी
कभी किसी सँग बात न बनी,
एक अबूझ डर भीतर व्यापा
भृकुटी रही सदा ही तनी !
एक नर्क का इंतजाम था
आधि-व्याधि का सरंजाम था,
ऊपर हँसते भीतर गम था
भावनाओं का महा जाम था !
लेकिन कोई भीतर तब भी
जाग रहा था देखा जब भी
बड़ा सुकून मिला करता था
बाहर लेकिन दुःख था अब भी
धीरे-धीरे वह मुस्काया
पहले पहल स्वप्न में आया,
सहलाया रिसते जख्मों को
फिर तो अपने पास बुलाया !
एक झलक अपनी दिखलाई
लेकिन फिर न पड़े दिखाई,
एक खोज फिर शुरू हो गयी
भीतर की फिर दौड़ लगाई !
कही प्रार्थना अश्रु बहाए
निशदिन मन उसको ही बुलाए,
दिन भर काम में भूल गया हो
पर नींदों में वही सताए !
शनैः शनैः फिर राह मिल गयी
आते-जाते कली खिल गयी,
सुरभि बिखेरे अब विकसित हो
जब प्रमाद की चूल हिल गयी !
अब तो मीत बना है मन का
भेद बड़ा पाया जीवन का,
उससे मिलने ही हम आये
यही लाभ है सुविधा धन का !
शुक्रवार, फ़रवरी 3
भीतर जल ताजा है
भीतर जल ताजा है
माना कि जिंदगी संघर्ष है
कई खतरनाक मोड़ अचानक आते हैं
कभी इसको तो कभी उसको हम मनाते हैं
भीतर कहीं गहराई में जिंदगी बहती है
दू.....र टिमटिमाती गाँव की रोशनी की तरह....
ऊपर-ऊपर सब सूखा है, धुंध, धूल, हवा से ढका
आंधियों से घिरा
पर भीतर जल ताजा है
स्वच्छ, अदेखा, अस्पर्श्य, अछूता
माना कि अभी पहुँच नहीं वहाँ तक
उसकी ठंडक महसूस होती तो है
शिराओं में...
उस धारा को बना कर नहर ऊपर लाना है
जो दिखता है दूर उसे निकटतम बनाना है !
बुधवार, फ़रवरी 1
उड़ान भरता है प्रेम
उड़ान भरता है प्रेम
जैसे चन्द्रमा की ललक, उछाल देती है सागर को
ज्वार चढ़ता है जल तरंगों में
और स्वतः ही लौट आता है
अधूरे मिलन की कसक लिये...
वैसे ही मेरा मन ओ प्रियतम !
खिंचता है तेरी ओर
पर हर बार और प्यासा होकर
लौट आता है....सिमट आता है स्वयं में
भाटा लौटा न लाए अगर ज्वार को
क्या तहस-नहस न कर देगी लहरें
तोड़ती हुई सारी दीवारों को...
जन्म और मृत्यु दोनों पर टिकी है सृष्टि
मिलन और विरह दोनों पंख लगा कर
उड़ान भरता है प्रेम
ऊँचे आकाश में....
जब थाप पड़ती है
नृत्य की सधे हुए कदमों से
वही आगे गए कदम पीछे भी लौटते हैं
गति, लय युक्त हो तभी मोहती है
आरोह के बाद अवरोह जरूरी है
वैसे ही तू मिल कर बिछड़ता है...पर पुनः मिलने के लिये !
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