कर्म से कर्मयोग
चींटी से हाथी तक
राजा से रंक तक,
मूर्ख से विद्वान तक
सभी रत हैं कर्म में !
श्वास लेते, उठते, बैठते
रोते-हँसते, चलते-फिरते,
उंघते, सोते हुए भी
हम कर्म से विमुक्त नहीं !
कुछ पाने की आस लगाते
इधर-उधर दौड़-भाग करते,
सुख, धन, सम्मान हेतु
जीवन भर खटते हैं !
चाह अंतर में धरे
पूरा होता है जीवन,
तब भी पीछा नहीं छोड़ते
कर्म पुनः संसार में जोतते !
जो बीज बोये थे
उन्हें काटना है,
नए कर्मों की पौध
को छांटना है !
क्लांत मन, थका तन
एक दिन सजग होता है,
ज्ञानदीपक भक से
भीतर जल उठता है !
कर्म तब बांधते नहीं
निष्काम, निस्वार्थ कर्म,
केवल कर्म के लिये कर्म
कर्म तब कर्मयोग कहलाता है !
अनिता निहालानी
१ फरवरी २०११