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मंगलवार, फ़रवरी 1

कर्म से कर्मयोग

कर्म से कर्मयोग

चींटी से हाथी तक
राजा से रंक तक,
मूर्ख से विद्वान तक
सभी रत हैं कर्म में !

श्वास लेते, उठते, बैठते
रोते-हँसते, चलते-फिरते,
उंघते, सोते हुए भी
हम कर्म से विमुक्त नहीं !

कुछ पाने की आस लगाते
इधर-उधर दौड़-भाग करते,  
सुख, धन, सम्मान हेतु
जीवन भर खटते हैं !

चाह अंतर में धरे
पूरा होता है जीवन,
तब भी पीछा नहीं छोड़ते
कर्म पुनः संसार में जोतते !

जो बीज बोये थे
उन्हें काटना है,
नए कर्मों की पौध
को छांटना है !

क्लांत मन, थका तन
एक दिन सजग होता है,
ज्ञानदीपक भक से
भीतर जल उठता है !

कर्म तब बांधते नहीं
निष्काम, निस्वार्थ कर्म,
केवल कर्म के लिये कर्म
कर्म तब कर्मयोग कहलाता है !

अनिता निहालानी
१ फरवरी २०११   

बुधवार, जनवरी 12

गति वैसी होनी जानी है !

गति वैसी होनी जानी है !

कर्मों की गति अटल बड़ी है
लेकिन सीधी, सरल, सही है,
जैसा भाव, कर्म, वाणी है
गति वैसी होनी जानी है !

शुभ कर्मों से पुण्य कमाते
पाप बांधते दुष्कर्मों से,
पुण्य सदा सुखकारी जग में
दुःख लाए पाप जीवन में !

इसी तरह तो क्रम सुख-दुःख का
जारी रहता जन्म-जन्म में,
हर्षित कभी, कभी पीड़ित हो
झेला करते पड़े भरम में !

टूटे कैसे चक्रव्यूह यह
मुक्त गगन में विहरें कैसे,
एक मार्ग पर चलते चलते
मंजिल को हम पालें कैसे !

कर दें सारे कर्म समर्पित
खाली खाली सा यह मन हो,
स्वयं को साक्षी भाव में रखें
फिर हो जाये जो होना हो !

हल्का मन उड़ान भरेगा
कर्म नहीं हमको बांधेगें,
नहीं बेड़ियाँ रोकेंगी फिर
मुक्त सदा विचरेंगे जग में !

अनिता निहालानी
जनवरी २०११