बुधवार, मई 23

अंतर अभीप्सा

अंतर अभीप्सा

आकाश शुभ्र है
शुभ्र हैं हिमालय के शिखर
है अग्नि पावन
और पावन है मानसरोवर का जल
आत्मशक्ति उठना चाहती है गगन की ओर
अग्नि की भांति
बढ़ना चाहती है उर्ध्व दिशा में ही
बुझा देता है शिखा, मन
बन जलधार
ढक लेती ज्योति को
बुद्धि बन दीवार
उसे कभी प्रकाशित नहीं होने देती
इच्छाओं और वासनाओं की कालिमा
मोह-माया का छाजन
अभिव्यक्त नहीं होने देता
सुलगती रहती है भीतर ही भीतर
उसकी आंच जलाती भी है
झांकता है जब कोई भीतर
बुलाती है अपनी ओर उसकी पुकार
पर शीतलता के उपाय भीरु हृदय
तलाशता है बाहर ही बाहर
कभी वृक्षों की शीतल छाँह
कभी शीतल जल के स्रोत
अतृप्त रहे जाती तृष्णा
बल्कि बढ़ती ही जाती है
और जीवन की शाम हो जाती है
तब मृत्यु का अधंकार
उसे लील जाता है एक दिन..
फिर वही क्रम आरम्भ हो जाता है
जब तक नहीं जलती भीतर की
परम ज्योति प्रखर होकर
नहीं मिटती जलन अंतर की..
जब तक नहीं महकता आत्मा का फूल भीतर
नहीं मिलता सुख का स्पर्श कोमल !


मंगलवार, मई 22

एक लघु कहानी



काश !

आज फिर मीता मुँह फुलाए बैठी थी. भाभी ने उसे स्कूल न जाने पर डाँटा था. आजकल उसे स्कूल जाने से ज्यादा सुंदर वस्त्र पहन कर शीशे में स्वयं को निहारना अच्छा लगने लगा था. उसने भाभी को भाई से कहते सुना था, मीता अब बड़ी हो रही है उसे इधर-उधर यूँही नहीं घूमना चाहिए. तब से भाभी की हर बात उसे बुरी लगने लगी थी. पढ़ाई में उसका मन नहीं लगता तो वह क्या करे. माँ की आँखों की रौशनी कम होने लगी थी, उनकी एक आँख तो पहले से ही खराब थी अब दूसरी से भी कम दिखाई देता था. पिता अधिकतर समय के बाहर ही बिताते थे, वह एक छोटे से व्यापारी थे. घर की सारी जिम्मेदारी भाभी की थी. उनकी गोद में एक नन्हा सा पुत्र भी था पर वह सास-ससुर, दोनों देवरों और ननद की देखभाल भी ठीक से कर रही थी. यह उन दिनों की बात है जब भारत देश नया-नया आजाद हुआ था.

छमाही परीक्षा में जब वह पास नहीं हुई तो भाई ने उसे बुलाकर पूछा. मीता ने स्पष्ट कह दिया, अब वह आगे नहीं पढ़ेगी. चाहें तो उसका ब्याह करवा दें. अभी वह पन्द्रह वर्ष की भी नहीं हुई थी, आठवीं में ही पढ़ रही थी. भाई ने दफ्तर के एक सहकर्मी से बात की तो उसने कहा, मेरा भाई अभी-अभी नौकरी से लगा है, हम भी उसके लिए लड़की देख रहे हैं. बात पक्की हो गयी और विवाह हो गया. मीता के पांव जमीन पर नहीं पड़ते थे. पर पति का काम ऐसा था जिसमें उसे टूर पर जाना पड़ता था. एक महीना साथ रहकर वह बाहर चला गया, मीता की तबियत खराब रहने लगी. पहले-पहल उसे कुछ समझ में नहीं आया पर बाद में पता चला वह गर्भवती थी. वर्ष पूरा होने से पहले ही एक कमजोर और सांवली सी बालिका को उसने जन्म दिया. वह स्वयं गोरी-चिट्टी थी, पहले तो बच्चे की उसने चाहना ही नहीं की थी, उसे तो सज-धज कर घूमना था, अब इस सांवली बच्ची को देखकर उसे लगा, शायद अस्पताल में किसी अन्य के साथ यह बदल गयी है. अपनी उपेक्षा से दुखी होकर दिन भर रोती रहने  वाली उस बच्ची की देखभाल वह ठीक से नहीं कर पाती थी. समय बीतता रहा, एक पुत्र और हुआ, फिर पांच वर्षों के बाद दूसरा पुत्र, जो बचपन से ही किसी न किसी रोग का शिकार होता रहा. इसके बाद भाभी ने ही अस्पताल ले जाकर मीता का ऑपरेशन करवा दिया. अपना बचपन छिन जाने का दुःख था या कौन सा क्रोध था, वह अपना गुस्सा बच्चों पर निकालने लगी. उन्हें रगड़-रगड़ कर नहलाती जब तक कि उनका तन लाल न हो जाता. साबुन लगाने से कहीं त्वचा का रंग बदलता है पर इन्सान के मन को कौन समझ पाया है. बच्चे पढ़ाई में भी कमजोर ही रहे, माँ यदि स्वयं पढ़ी-लिखी या समझदार न हो तो बच्चों की सहायता नहीं कर सकती. हाईस्कूल में बेटी असफल रही तो उसे घर बैठा दिया, और प्राइवेट परीक्षा देने को कहा. डिग्री तक आगे की सभी पढ़ाई उसने घर से ही की.  उसी समय से उसके लिए लड़का भी देखा जाने लगा. पुत्र भी कालेज में आ गया था तभी एक जगह बात पक्की हो गयी और बिटिया को विदा कर दिया. ससुराल में बेटी बहुत खुश थी, उसके भी तीन बच्चे हुए पर पचास की होने से पहले ही वह स्वर्ग सिधार गयी. उसे अपने पिता और भाई के देहांत का दुःख सता रहा था जो दस वर्ष का बेटा और पत्नी को छोड़कर अचानक ही स्वर्ग सिधार गया था. मीता पर जैसे दुखों का पहाड़ टूट पड़ा, पुत्र की मौत का गम न सह पाने के कारण ही शायद पतिदेव ने भी वही राह पकड़ ली थी. अभी उसके पति की मृत्यु हुए ज्यादा समय नहीं गुजरा था, कि पहले बेटी की असाध्य बीमारी और फिर मृत्यु का समाचार उसे मिला. उसे स्वयं पर आश्चर्य हो रहा था कि इतना दुःख पाने के बाद भी वह सही-सलामत है. बड़ी बहू, पोता, छोटा पुत्र और उसका परिवार साथ में था. वे सभी उसकी देखभाल करने में कोई कसर बाकी नहीं रखते थे. उसका मन अब संसार से ऊबने लगा था और ज्यादा समय वह सत्संग में बिताने लगी थी. सुबह हो या शाम जब भी समय मिलता वह आस-पास होने वाले किसी न किसी कथा सम्मेलन में पहुंच जाती. इसी तरह एक दिन जीवन की शाम आ गयी थी. अस्वस्थता ने उसे अस्पताल पहुंचा दिया था. सफेद दीवारों वाले सूने कमरे में अकेले बिस्तर पर लेटे हुए उसे अपना बचपन याद आ रहा था. काश ! वह पढ़ाई के महत्व को समझती होती तो उसका जीवन कुछ और ही होता. उसके बच्चे भी शायद इसी कारण उच्च अध्ययन नहीं कर पाए. परिवारजनों को याद करते हुए और उन्हें मंगल कामनाएं देते हुए उसने आखें मूँद लीं.

शनिवार, मई 19

जीवन सरिता बहती जाती




जीवन सरिता बहती जाती


सुख-दुःख मनहर तटों के मध्य
जीवन सरिता बहती जाती,
नित्य नवीन रूप धरकर फिर
माया के नित खेल रचाती !

बैठ नाव में चला मुसाफिर
डोला करता सँग लहरों के,
चल इस पार से उस पार तक
जाने मंजिल कौन दिशा में !

उठें बवंडर भावनाओं के
कभी विचारों के तूफान,
धूमिल हो जाती निगाह फिर
 नहीं नजर आता आसमान !

माया के कहीं सर्प तैरते
ग्राह बना अबोध पकड़ता,
तृष्णा बन शैवाल घेरती
कभी द्रोह का पाश जकड़ता !

जब तक दस्यु नजर नहीं आते
रमणीक लगता यह बहाव,
जरा-रोग का बंधन बँधते
दुर्दम्य लगने लगे प्रवाह !

तट पर बैठा देख रहा जो
प्रतिपल इन लहरों की क्रीड़ा,
रह अलिप्त वह ज्योति बना फिर
मुक्त रहे हो सुख या पीड़ा ! 


सोमवार, मई 14

नई भोर



नई भोर

फिर भोर हुई
फिर कदम उठे
फिर अंतर उल्लास जगा
रस्तों पर हलचल मन के
बीता पल जिसमें तमस घना
फिर आशा खग ने पर तोले
उर प्रीत भरी वाणी बोले
लख जग भीगा अंतरमन
प्राणों में नव संचार भरे
कुसुमों ने फिर महकाया वन
पलक झपकते कहीं खो गयी
घोर निशा का हुआ अंत
भीतर लेकर कुछ लक्ष्य नये
नई भोर आयी जीवन में
उर आतुर करने को स्वागत
जाने क्या लाया है आगत


शनिवार, मई 12

मातृ दिवस पर


माँ

जीवन की धूप में
छाया बन चलती है,
दुविधा के तमस में
दीपक बन जलती है !

कहे बिना बूझ ले
अंतर के प्रश्नों को,
अंतरमन से सदा
प्रीत धार बहती है !

बनकर दूर द्रष्टा
बचाती हर विपद से,
कदम-कदम पर फूँक
हर आहट पढ़ती है !

छिपे हुए काल में
भविष्य को गढ़ती है,
माँ का हृदय विशाल 
सारा जग धरती है !



शुक्रवार, मई 11

जीवन कैसे अर्थवान हो




जीवन कैसे अर्थवान हो

इस जीवन का मर्म सिखाने
खुद को खुद से जो मिलवाये,
कर प्रज्वलित अंतर उजास
आत्मकुसुम अनगिनत खिलाये !

माँ बनकर जो सदा साथ है
स्नेह भरा इक स्पर्श पिता का,
अपनों से भी अपना प्रियजन
समाधान दे हर सुख-दुःख का !

जीवन कैसे अर्थवान हो
सेवा के नव द्वार खोलता,
हर पल मन कैसे मुस्काए
सुंदर मनहर सूत्र बोलता !

सृष्टि के संग एक हुआ जो
परम सत्य का रूप बना है,
अंतरयामी,  हर दिल वासी
जग जिसके हित इक सपना है !

सारे जग को मीत बनाया
सहज आत्मा से जुड़ जाता,
करे न भेद जाति, भाषा का
नयनों से ही हाल जानता !

परम मौन ही नित संगी है
छिपे हैं जिसमें राज हजार,
सद्गुरु युग-युग में आता है
भर अंतर में करुणा अपार !


१३ मई को गुरूजी का जन्मदिन है