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सोमवार, फ़रवरी 21

दुलियाजान में रामदेव जी

दुलियाजान में रामदेव जी

हे युगपुरुष ! हे युग निर्माता !
हे नव भारत भाग्य विधाता !
हे योगी ! सुख, प्रेम प्रदाता
तुम उद्धारक, हे दुःख त्राता !

तुम अनंत शक्ति के वाहक
योगेश्वर, तुम सच्चे नेता !
प्रेम की गंगा बहती तुममें
तुमने कोटि दिलों को जीता !

जाग रहा है सोया भारत
आज तुम्हारी वाणी सुनकर,
करवट लेता ज्यों इतिहास
अंधकार में उगा है दिनकर !

तुम नई चेतना बन आये
कांपे अन्यायी, जन हर्षे,
तोड़ने गुलामी की बेड़ियां  
तुम सिंह गर्जना कर बरसे !

तन-मन को तुमने साधा है
हो घोर तपस्वी, कर्मशील तुम,
श्वास- श्वास को देश पे वारा
अद्भुत वक्ता, हो मनस्वी तुम !

शब्दों में शिव का तांडव है
आँखों से हैं राम झलकते,
कृष्ण की गीता बन हुंकारो
नव क्रांति के फूल महकते !

जीवन के हर क्षेत्र के ज्ञाता
कैसे अनुपम ध्यानी, ज्ञानी,
वैद्य अनोखे, किया निदान
भारत की नब्ज पहचानी !

 राम-कृष्ण की संतानें हम
सत्य-अहिंसा के पथ छूटे,
डरे हुए सामान्य जन सब
आश्वासन पाकर गए लूटे !

आज पुण्य दिन, बेला अनुपम
दुलियाजान की भूमि पावन,
गूंज उठी हुंकार तुम्हारी 
दिशा-दिशा में गूँजा गर्जन !

आज अतीत साकार हो उठा
संत सदा रक्षा को आये,
जब जब भ्रमित हुआ राष्ट्र
संत समाज ही राह दिखाए !

भूला नहीं है भारत अब भी
रामदास व गोविन्द सिंह को,
अन्याय से मुक्त कराने
खड़ा किया था जब सिंहों को !

आज पुनः पुकार समय की
देवत्व तुम्हारा रूप प्रकट,
त्राहि-त्राहि मची हुई है
समस्याओं का जाल विकट !

नयी ऊर्जा सबमें भरती
ओजस्वी वाणी है तुम्हारी,
बदलें खुद को जग को बदलें
जाग उठे चेतना हमारी !

योग की शक्ति भीतर पाके
बाहर सृजन हमें करना है,
आज तुम्हारे नेतृत्व में
देश नया खड़ा करना है !

व्याधि मिटे समाधि पाएँ
ऐसा एक समाज बनायें,
जहाँ न कोई रोगी, पीड़ित
स्वयं की असलियत पा जाएँ  !

भ्रष्टाचार मिटे भारत से
पुनर्जागरण, रामराज्य हो,
एक लक्ष्य, एकता साधें
नव गठित भारत, समाज हो !

कोटि कोटि जन साथ तुम्हारे
उद्धारक हो जन-जन के तुम,
पुण्य जगें हैं उनके भी तो
विरोध जिनका करते हो तुम !

अनिता निहालानी
२१ फरवरी २०११




 
 


गुरुवार, फ़रवरी 17

बस यह अंतिम प्रयास हो

बस यह अंतिम प्रयास हो


जल जाये, हमारी अशुभ कर्मों की वासना
जल जाये
तुम्हारे ज्ञान के धूमकेतु से
शेष न रहे, कोई अशुभ संस्कार
कर्म कोई, न बने बंधन
ज्ञान की तलवार से काट डालें
कर्मों के जाल,
जन्मों से जो सता रहे हैं
जल जाएँ दंश उन कर्मों के !

मिट जाये मन की चाह
थम जाये विचारों का प्रवाह
ठहर जाये मन तुम्हारे रूप पर
तुम्हारे सौंदर्य, तुम्हारी सत्यता पर
उस शाश्वतता पर,
जो कभी प्रेम, कभी आनंद बन सम्मुख आती है
कभी करुणा तो कभी
विशुद्ध साहचर्य का भाव बनकर,
निर्दोष प्रकृति के अल्हड़ रूप बनकर
तो कभी भयावह प्रकृति के भीषण प्रकोप बनकर !

हमने सिरों को बचाकर देख लिया
हम असत्य के पुजारी बने रहे
हमने अपने को बहुत आजमाया
अब और नही,
बस यह अंतिम प्रयास हो !


अनिता निहालानी
१७ फरवरी २०११

बुधवार, फ़रवरी 9

आत्मा का वस्त्र

आत्मा का वस्त्र

वह ठंड से कांप रही थी
सिकुड रही थी, ठिठुर रही थी
उस दिन मैंने उसे बर्फीले बियाबान में
सिसकते देखा,
याद है मुझे उस दिन मैंने चोरी की थी
और वह दिन भी याद है
जब विष में बुझे कटु वचन कहे थे
कहने से पूर्व मंत्र की तरह जपे थे
लहुलुहान हो गयी थी वह
अश्वथामा की तरह मणिविहीन !

भटकते हुए भी देखा उसे
जब-जब किया विश्वासघात
जब-जब हुआ पतन
हर बार वह चीखी,

आखिर उसकी पुकार को
कब तक अनसुना करती
एक दिन उसे पुचकारा
सहलाया, और घटा चमत्कार
एक आश्वासन पाते ही वह नूतन हो गयी !

अब मैं उसके लिये वस्त्र बुनती हूँ
कोमल, नरम, गर्म वस्त्र
उसके लिये अपना अंतर सजाती हूँ
फुलवारी लगाती हूँ
ताकि वह निश्शंक घूम सके
आस्था के वस्त्र पहने
प्रेम के गाँव में !

अनिता निहालानी
९ फरवरी २०११

बुधवार, दिसंबर 15

नव गीत जब रचने को है

नव गीत जब रचने को है

कैद पाखी क्यों रहे जब आसमां उड़ने को है,
सर्द आहें क्यों भरे नव गीत जब रचने को है !

सामने बहती नदी ताल बन कर क्यों पलें,
छांव शीतल जब मिली धूप बन कर क्यों जलें !

क्षुद्र की क्यों मांग जब उच्च सम्मुख हो खड़ा,
क्यों न बन दरिया बहे जब प्रेम भीतर है बड़ा !

तौलने को पर मिले भार दिल में क्यों भरें,
आस्था की डोर थामे मंजिलें नई तय करें !

गान उसके गूंजते हैं शोर से क्यों जग भरें,
छू रहा हर पल हमें पीड़ा विरह की क्यों सहें !

जाग कर देखें जरा हर ओर उसकी ही छटा,
प्राण बन कर साथ जो छा गया बन कर घटा !

हर रूप के पीछे छिपा जो प्राप्य अपना हो वही,
हर नाम में बसता है वह नाम जिसका है नहीं !

अनिता निहालानी
१५ दिसम्बर २०१०