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बुधवार, जुलाई 3

वृद्धता

वृद्धता

वृद्ध का सम्मान करता है जो 

 भाग्यशाली है वह समाज 

क्योंकि अनुभवी है वृद्ध 

उसने जिये हैं अच्छे और बुरे दोनों काल 

उम्र के साथ पायी है परिपक्वता 

उसने जाना है एक न एक दिन

हर सौंदर्य पड़ जाता है फीका

 चूक जाता है बल देह का 

 जाना लिया है कि 

हर इच्छा अंततः निराश ही करती  

सुख का आश्वासन दे दे भले 

पर जिसका वादा किया था 

वह सुख नहीं देती 

उसने जान लिया है 

हर रिश्ता दुख में ले जाता है 

वह साक्षी बन गया है 

अपने ही स्वर्ग और नरक का 

जो जिये थे उसने 

अब वह उस जगह है जहां 

कोई भी बात प्रभावित नहीं करती 

एक तृप्ति छा गई है 

मन-मस्तिष्क में 

वह जानता है 

मौसम बदलेगा 

अंत, अंत नहीं एक नयी शुरुआत है 

एक सुखद नींद है 

जिसका जागरण 

नये तन में होगा 

क्योंकि शाश्वत है अस्तित्त्व

वृद्धता सुंदर है और शांत भी 

आनंद और संतोष की ख़ुशबू से भरी  

 वह मित्र है 

इसे भी उत्सव बनाना है 

जीवन की हर अवस्था को 

ज्ञान के रंगों से सजाना है ! 


सोमवार, मार्च 6

होली अंतर की उमंग है

होली अंतर की उमंग है


 है प्रतीक वसंत जीवन का

यौवन का इंगित वसंत है,

होली मिश्रण है दोनों का

हँसते जिसमें दिग-दिगंत है !


रस, माधुर्य,  सरसता कोमल

आशा, स्फूर्ति और मादकता,

होली अंतर की उमंग है

अमर प्रेम की परम  गहनता !


जिंदादिल उत्साह दिखाते

साहस  भीतर भर-भर पाते,

होली के स्वागत में ख़ुशियाँ 

पाते उर में और लुटाते !


सुंदर, सुखमय सजे  कल्पना  

रंगों की आपस में ठनती,

मस्तक लाल, कपोल गुलाबी

मोर पंख सी चुनरी बनती !


कण-कण वसुधा का मुस्काए 

फूलों से मन खिल-खिल जाते ,

लुटा रहा सुवास मौसम जो

चकित हुए नासापुट पाते !


हरा-भरा पुलकित  उर अंतर

कण-कण में झलके वह सुंदर,

मधुरिम, मृदुलिम निर्झर सा मन  

कल-कल करे निनाद निरंतर !


मादक पीयुष सी ऋतु  होली

अमराई में कोकिल बोली,

जोश भरा उन्मुक्त हृदय ले

निकली मत्त मुकुल की टोली !


गुरुवार, फ़रवरी 2

मौसम का वर्तुल


मौसम का वर्तुल 

आते और जाते हैं मौसम 
जंगल पुनः पुनः बदलते हैं रूप
हवा कभी बर्फीली बन चुभती है
कभी तपाती..आग बरसाती सी..
शुष्क है धरा... फिर
भीग-भीग जाती   
निरंतर प्रवाह से जल धार के
मन के भी मौसम होते हैं और तन के भी
जैसे बचपन भी एक मौसम है
और एक ऋतु तरुणाई की
जब फूटने लगती हैं कोंपलें 
मन के आंगन में
और यौवन में झरते हैं हरसिंगार
फिर मौसम बदलता है
कुम्हला जाता है तन
थिर हो जाता मन
कैसा पावन नहीं हो जाता 
एक प्रौढ़ मन
गंगा के विशाल पाट जैसा चौड़ा
समेट लेता है
छोटी-बड़ी सब नौकाओं को अपने वक्ष पर
सिकुड़ जाता है तन वृद्धावस्था में
पर फ़ैल जाता है मन का कैनवास
सारा जीवन एक क्षण में उतर आता है
मृत्यु के मौसम में..

शुक्रवार, नवंबर 18

यूँ ही कुछ ख़्याल

यूँ ही कुछ ख़्याल

दिल की गहराइयों में छिपा है जो राज 

वह शब्दों में आता नहीं 

जो ऊपर-ऊपर है 

वह सब जानते ही हैं 

उसे कविता में कहा जाता नहीं 

तो कोई क्या कहे 

इससे तो अच्छा है चुप रहे 

लेकिन दिल है, हाथ है 

कलम भी है हाथ में,  इसलिए 

 चुप भी तो रहा जाता नहीं 

मौसम के क़सीदे बहुत गा लिए 

अब मौसम भी पहले सा रहा भी नहीं

बरसात में गर्मी और सर्दियों में 

बरसात का आलम है 

सारे मौसम घेलमपेल हो गए हैं 

कब बाढ़ आ जाएगी कब सूखा पड़ेगा 

कुछ भी तो तय  रहता नहीं 

शरद की रात चाँद निकला ही नहीं 

खीर बनाने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता न तब 

दिवाली की रात झमाझम बरसात हो रही थी 

दीपक जलाते भी तो कैसे 

जहाँ तालाब थे आज बंजर ज़मीन है 

जहाँ खेत थे वहाँ इमारतों का जंगल है 

दुनिया बदल रही है 

धरती गर्म हो रही और 

पीने के पानी का बढ़ा संकट है 

कविता खो गयी है आज 

वाहनों के बढ़ते शोर में 

ट्रैफ़िक जाम में फँसा व्यक्ति 

समय पर विवाह मंडप पहुँच जाए 

इतना ही बहुत है 

उससे और कोई उम्मीद रखना नाइंसाफ़ी होगी 

वह प्रेम भरे गीत गाए और रिझाए किसी को 

इन हालातों में यह नाकामयाबी होगी 

अब तो समय से दोनों पहुँच जाएँ मंडप में 

और निभा लें कुछ बरस तो साथ एक-दूजे का

और यही सही समय है इस कलम के रुकने का !

 


रविवार, नवंबर 13

जो जीवन हँसता था जग में

जो जीवन हँसता था जग में 

कल डोल रहा था खुशियों में 

अब गम की चादर ओढ़ी है,   

हर सुख के पीछे दुःख आता 

यह खूब बनायी जोड़ी है !


जब बादल से नभ ढक जाए 

चन्दा सूरज भी घबराए, 

फिर खिले चांदनी धूप उगे 

तारामंडल भी मुस्काये !


जब जन्मा ढोल बजे घर में 

फिर मातम इक दिन छाएगा, 

जो जीवन हँसता था जग में 

खामोश कहीं खो जायेगा !


जो दौड़ा फिरता था गतिमय 

अब बेबस शैया पर लेटा, 

यहाँ मौसम नित  बदलते हैं 

परिवर्तन ही सच जीवन का !


बस  वही  न बदले कभी यहाँ 

देखा करता है जो जग को, 

शून्य, पूर्ण, मौन, आनन्दमय

मन के भी पार एकरस वो !


शनिवार, फ़रवरी 12

तुम हो

तुम हो 


तुम हो, तभी तो 

फूल खिलते हैं 

मौसम बहारों के  

लौट आते 

तितलियाँ मंडराती हैं और 

कूजती है कोकिल अमराई में 

सुना ना तुमने !

तुम हो, तभी तो 

दूर कोई सितारा 

टूट कर चमक दिखाता है 

पपीहा राग सुनाता 

प्रपात खिलखिलाता है 

एक नज़र भर देखा 

बादल बरस गया झूम कर 

एक आवाज़ भर दी थी 

सागर में लहरें  उठीं  

लिया चाँदनी को मुट्ठी में भर 

तुम हो, तभी तो 

जीवन में नया अर्थ खिलता  है 

तुम्हारे संग साथ से 

यह जग 

हर रोज़ नया होकर मिलता है  !


शनिवार, अप्रैल 25

एक है दूजे के लिए

एक है दूजे के लिए 

सूरज जलता है, तपता है 
ताकि जीवन की ज्योति जले धरा पर !
धरती गतिमय है रात-दिन 
बिना क्लांत हुए 
ताकि मौसमों का आना-जाना लगा रहे !
जब वह निकट हो जाती है सूर्य के 
ग्रीष्म की हवाएँ बहती हैं 
दूर हो जाती है तो पर्वतों पर 
बहने लगते है हिम के झंझावात 
मौसम बदलते हैं 
ताकि हरियाली और जीवन खिलता रहे !
हरे-भरे चारागाह भोजन देते हैं 
पशुओं को 
 वनस्पति और प्राणी एक-दूसरे के लिए हैं !
पर समय की धारा में 
जाने कब ऐसा हुआ कि
मानव जीने लगा
 मात्र अपने लिए ! 

बुधवार, अक्टूबर 25

मौसम

मौसम

मौसम आते हैं जाते हैं
वृक्ष पुनः-पुनः बदला करते हैं रूप
हवा कभी बर्फीली हो चुभती है
कभी तपाती.. आग बरसाती सी..
शुष्क है धरा... फिर
भीग-भीग जाती है  
निरंतर प्रवाह से जल धार के !

मन के भी मौसम होते हैं और तन के भी
बचपन भी एक मौसम है
और एक ऋतु तरुणाई की
जब फूटने लगती हैं कोंपलें मन के आंगन में
और यौवन में झरते हैं हरसिंगार !

फिर मौसम बदलता है
कुम्हला जाता है तन
थिर हो जाता है मन
कैसा पावन हो जाता प्रौढ़ का मन
गंगा के विशाल पाट जैसा चौड़ा
समेट लेता है
छोटी-बड़ी सब नौकाओं को अपने वक्ष पर
सिकुड़ जाता है तन वृद्धावस्था में
पर फ़ैल जाता है मन का कैनवास
सारा जीवन एक क्षण में उतर आता है
मृत्यु के मौसम में.. !

सोमवार, जुलाई 28

जहाँ मौसम बदलते नहीं

जहाँ मौसम बदलते नहीं


जहाँ कोई नहीं दूसरा
एक ऐसा भी देश है
जो नहीं धारण किया जाता प्रदर्शन के लिए
एक ऐसा भी वेश है
जहाँ टूट जाती हैं सब बेड़ियाँ
छूट जाती हैं रागात्मक छवियाँ
एक ऐसा भी प्रदेश है
जहाँ ठहर जाता है काल का रथ
ध्वनि का होता नहीं प्रवेश है
जहाँ नहीं कोई विरोध
जन्म लेती नहीं कोई कुंठा
कोई विडम्बना भी नहीं सताती
जहाँ दो न रहने से कोई स्मृति भी नहीं रह जाती
जहाँ खो जाती है अपनी छाया भी
नितांत एकांत ही जिसका होना है
एक ऐसा भी आदेश है
जहाँ मौसम बदलते नहीं पल-पल
जहाँ वसंत पतझड़ के आने की आहट नहीं देता
जहाँ बिन बरसे बादल कभी गुजरा ही नहीं
जहाँ नित एक रस मधुरता छायी है
जिसमें होना विपदा का मानो विदेश है
जहाँ निर्धूम अग्नि जलती है
 ज्योति की अखंड शिला पल-पल पिघलती है
जहाँ कोई मार्ग नजर नहीं आता
पर मंजिल हर कदम पर मिलती है
ऐसा भी एक स्वदेश है
जाना जहाँ संकट के मार्ग से गुजरना है
जहाँ टिकना तलवार की धार पर चलना है
 जो स्वयं को खो कर ही जाना जाता है
एक ऐसा भी महेश है !  


बुधवार, सितंबर 25

मन

मन


मन जब चहकते पंछियों की तरह
 मुंडेर पर बैठ जाता है
निरुद्देश्य..
बादलों के बनते बिगड़ते रूप
 आँखों में भर जाते हैं
जाने कितने ख्वाब
 सूरज की आखिरी किरन भी जैसे
चुपचाप कोई संदेश दे
ले रही हो विदा..
किसी सुरमई शाम को
 पंखों की फड़फड़ाहट और बसंती बयार
की मद्धिम सी आवाज...
 क्यों मन मौसम बन जाता है तब
 बदलते मौसम के साथ
ऊदा, गहरा, लाल, पीला, नीला मन !

बुधवार, जुलाई 31

जुड़ें रहें जो मूल से

जुड़ें रहें जो मूल से



उस दिन एक
वृक्ष को बतियाते देखा
वही गीता वाला  
पीपल का वह विशाल वृक्ष !
जिसका मूल है ऊपर, शाखाएँ नीचें
 तना वृद्ध था, मुखिया जो
 ठहरा घर का !

कुछ शाखाएँ पहली पीढ़ी
उम्र हो चली, सो संयत हैं
नई-नई अभी कोमल हैं
 नाचा करतीं हर झोंके संग
धीरे-धीरे ही सीखोगी, कहा वृद्ध ने
 जब मौसम की मार सहोगी
कभी धूप, बौछारें जल की
सूनी शामें जब पतझड़ की
तब जानोगी, क्या है जीवन ?
पत्ता-पत्ता छिन जायेगा
गहन शीत में तन काँपेगा,

खिलखिल हँस दी कोमल टहनी
 जब तक साथ तुम्हारा बाबा
हम जीवित है
तुमसे पोषण मिलता
हमको, सब सह लेंगे
किन्तु हुईं जो पृथक जानना
मिटना ही उनकी नियति है
जुड़ा रहा जो मूल से उसको
कैसे कोई हिला सकेगा
अपना योगदान देकर वह जग को  
 हँसते-हँसते विदा कहेगा....!