बुधवार, अप्रैल 17
सोमवार, अप्रैल 15
सुरमई शाम ढली
सुरमई शाम ढली
खग लौट चले निज
नीड़ों को
भरकर विश्वास
सुबह होगी !
बरसेगा नभ से
उजियारा
फिर गगन परों से
तोलेंगे,
गुंजित होगा यह
जग सारा
जब नाना स्वर में
बोलेंगे !
इक रंगमंच जैसे
दुनिया
हर पात्र यहाँ
अभिनय करता,
पंछी, पादप, पशु, मानव भी
निज श्रम से रंग
भरा करता !
किससे पूछें ?
हैं राज कई
कब से ? कहाँ हो पटाक्षेप,
बस तकते रहते
आयोजन
विस्मय से आँखें
फाड़ देख !
अंतर में जिसने
प्रश्न दिए
उत्तर भी शायद
वहीं मिलें,
कभी नेत्र मूँद हो
स्थिर बैठ
मन के सर्वर में
कमल खिलें !
बस खो जाते हैं
प्रश्न, नहीं
उत्तर कोई भी
मिलता है,
इक मीठा-मीठा
स्वाद जहाँ
इक दीप अनोखा
जलता है !
बाहर उत्सव भीतर
नीरव
कुछ कहना और नहीं
कहना,
अंतर से मधुरिम
धारा का
धीमे-धीमे से बस बहना !
गुरुवार, अप्रैल 4
राह पर मन की गुजरते
राह पर मन की गुजरते
आज जीलें अभी जीलें
जो कल कभी आया नहीं,
जिन्दगी ने गीत उसके
सुर साज पर गाया नहीं !
सुख समाया इस घड़ी में
हम जहाँ पल भर न ठहरे,
वह छुपा उस रिक्तता में
जिसे भरने में लगे थे !
अभी रौनक, रंग, मेले
पलक झपकी खो गये सब,
एक पल में जो सजे थे
स्वप्न सारे सो गये अब !
व्यर्थ की कुछ गुफ्तगू ही
कभी इसकी कभी उसकी,
राह पर मन की गुजरते
हर घड़ी बस कारवां ही !
चूकती जाती घड़ी हर
मिलन का पल बिखर जाता,
क्या मिला क्या और पाना
दिल यही नगमा सुनाता !
मंगलवार, अप्रैल 2
माया की माया
माया की माया
जो देख सकती है, वह आँख
नहीं जानती भले-बुरे का भेद
जो देख नहीं सकती, वह आत्मा
सब जानती है, फिर भी गिरती
है गड्ढ में !
जो सुन सकता है, वह कर्ण
नहीं जानता सच-झूठ का भेद
जो सुन नहीं सकती, वह आत्मा
सब जानती है, फिर भी गिरती
है भ्रम में !
देह और आत्मा के मध्य कोई
है
जो नहीं चाहता आँख देखे वही
जो भला है
श्रवण सुनें वही जो हितकर
है
‘माया’ शब्द मात्र नहीं एक
सत्ता है
जिसके बल पर चल रहा है
सृष्टि का यह खेल अनंत
युगों से !
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