तृषित उर को पोषता सा
अनदिखा है मीत कोई
अनलिखा है गीत कोई,
दौड़ती रग-रग में जैसे
अनछुई सी प्रीत कोई !
एक मादक शाम हो ज्यों
गोपियों का गाम हो ज्यों,
रम रहा हर रोम में जो
जानकी का राम हो ज्यों !
कार्तिक की धूप जैसा
कामिनी के रूप जैसा,
तृषित उर को पोषता सा
मधुर जल के कूप जैसा !
राह का साथी बना हो
पेड़ पीपल का घना हो
पोंछ देती हर उदासी
विरह की सी वेदना हो !
सार्थक और सटीक!
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया--
जवाब देंहटाएंसादर --
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन कब होगा इंसाफ - ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
जवाब देंहटाएंbahut sundar rachna.............
जवाब देंहटाएंदिल को छूने वाली कविता
जवाब देंहटाएंकार्तिक की धूप जैसा
जवाब देंहटाएंकामिनी के रूप जैसा,
तृषित उर को पोषता सा
मधुर जल के कूप जैसा !
वाह वाह।
सार्थक व् सुन्दर अभिव्यक्ति .बधाई
जवाब देंहटाएंमन का नीरव कोना
जवाब देंहटाएंजिसमें गूँजे उसका मौन
तहखानों में धूप बिखेरे
मेरा अपना कौन
नयनों से ओझल है किन्तु
बजाये मन के तार ।।
बहुत ही सुन्दर रचना |
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