विपासना
चेतना की नदी देह के घाट से बहती है जब कभी
मन बाँध कर रख लेना चाहता है
मात्र अपने लिए
सड़ने लगता है बंधा हुआ पानी
जम जाती है शैवाल कहीं उठ जाती हैं चट्टानें
मन की अपरिमित लालसा की
हड़प जाने की वासना की
जब तब उठता है उबाल जिसमें
अकुलाता है मन का वह पानी
पर रित का नियम उसे थमने नहीं देता
कतरा-कतरा भेजता ही रहता है
देह के घाट तक
होश जगते ही सब स्पष्ट होने लगता है
राज बेचैनी का खुलने लगता है
टूट कर झरने लगती हैं दीवारें
कल-कल बहती जाती है नदी चेतना की...
बहुत सुंदर एवं भावपूर्ण.
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज बुधवार को
जवाब देंहटाएंआज प्रियतम जीवनी में आ रहा है; चर्चा मंच 1900
पर भी है ।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ...
सादर...!
चैतन्य के बोध का परमानन्द ऐसा ही होता है .
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर...
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