शुक्रवार, जुलाई 25

गूँज किसी निर्दोष हँसी की

गूँज किसी निर्दोष हँसी की 


खन-खन करती पायलिया सी 

मधुर रुनझुनी घुँघरू वाली, 

खिल-खिल करती हँसी बिखरती 

ज्यों अंबर से वर्षा होती !

 

अंतर से फूटे ज्यों झरना 

अधरों से बिखरे ज्यों नगमा,

कानों को भी भरे हर्ष से 

अंतर को भी गुदगुद करती !

 

गूँज किसी निर्दोष हँसी की 

याद बनी इक  दिल में बसती,

कभी भिगोती आँखें बरबस 

कभी हृदय को भी नम करती !


मंगलवार, जुलाई 22

सत्य और भ्रम

सत्य और भ्रम 


माना कदम-कदम पर बाधायें हैं 

मोटी-मोटी रस्सियों से अवरुद्ध है पथ

आसक्ति के जालों में क़ैद 

मन आदमी का 

न जाने कितने भयों से है ग्रस्त  

 जो प्रकट हो जाते हैं स्वप्नों में 

ज्ञान की तलवार से काटना होगा 

रस्सी कितनी भी मोटी हो 

एक भ्रम है 

सत्य सूर्य सा चमक रहा है 

समाधि के क्षणों में 

उसे मन में उतारना होगा 

हर भय से मुक्ति पाकर ?

नहीं, सत्य में जागकर 

स्वयं को पाना होगा !


बुधवार, जुलाई 16

ढाई आखर सभी पढ़ रहे

ढाई आखर सभी पढ़ रहे



 प्रेम अमी की एक बूँद ही

जीवन को रसमय कर देती, 

 दृष्टि एक आत्मीयता की 

अंतस को सुख से भर देती ! 


प्रेम जीतता आया तबसे 

जगती नजर नहीं आती थी, 

एक तत्व ही था निजता में 

किन्तु शून्यता ना भाती थी !


 स्वयं शिव से ही प्रकटी शक्ति  

प्रीति बही थी दोनों ओर,

वह दिन और आज का दिन है 

बाँधे कण-कण प्रेम की डोर !


हुए एक से दो थे जो तब 

 एक पुन: वे  होना चाहते,  

दूरी नहीं सुहाती पल भर 

प्रिय से कौन न मिलन माँगते ! 


खग, थलचर या कीट, पुष्प हों 

प्रेम से कोई उर न खाली, 

मानव के अंतर ने जाने 

कितनी प्रेम सुधा पी डाली ! 


करूणा प्रेम स्नेह वात्सल्य 

ढाई आखर सभी पढ़ रहे  

अहंकार की क्या हस्ती फिर, 

प्रेमिल दरिया जहाँ बह रहे !  


सोमवार, जुलाई 14

सत्य

सत्य 


सत्य है 

अखंड, एकरस

जानने वाला 

जान रहा प्रतिपल 

 नहीं है भूत या भविष्य 

उसके लिए 

वहाँ कोई भेद नहीं 

न दिशाओं का 

न गुणों का 

भावातीत, कालातीत व देशातीत  

वह बस अपने आप में स्थित है 

वह एक ही आधार है 

पर वह सदा अबदल है 

अभेद्य, अच्छेद्य 

उसमें सब प्रतीति होती है 

पर है कुछ नहीं 

दिखता है यह द्वन्द्वों का जगत 

यहाँ कुछ भी नहीं टिकता 

जबकि उस एक का 

 कुछ भी नहीं घटता ! 





शुक्रवार, जुलाई 11

‘को’ नहीं ‘की’

‘को’ नहीं ‘की’ 


हम भगवान ‘को’ मानते हैं 

भगवान ‘की’ नहीं मानते !

भगवान ‘को’ मानते हैं  

पर हम चलाते अपनी हैं  

भगवान ‘की’ मानने से 

निष्काम कर्म करना है 

उनके कर्म में हाथ बँटाकर 

इस जगत में सुंदर रंग भरना है 

जगत जो अभी हो रहा है 

परमात्मा ही जगत के रूप में 

नये-नये रूप धर रहा है 

उसकी मानें तो हम उसी के रूप हैं 

उसी के गुण हमें धारने हैं 

स्वयं को संवरते हुए, देखना है 

प्रकृति के भिन्न-भिन्न रूपों में 

 उसकी ही छवि को 

धरा पर पुष्प और 

गगन पर रवि को 

तब वही हमारे द्वारा कर्म करता है 

यह सब भगवान ‘की’ मानने से घटता है !


रविवार, जुलाई 6

अब

अब 


चीजें अब साफ़ हो गयीं 

 अंधेरा छँटने लगा है

 पहचान रहा मन मंज़िल को

जो भ्रमित करता रहा है 

 पकड़ी है प्रकाश की डोरी

जीवन जैसे एक किताब कोरी 

जिसमें लिखा जाना है 

हर पल एक शब्द नया

 हो चाह कोई भी 

मन सरवर कर देती है गंदला

चीजें जैसी हैं 

वैसी बहुत सुंदर हैं 

 अंतर सहलाती 

भोर की शीतल पवन

तृप्त करे पंछियों का कलरव 

आकाश सब ओर घेरे है 

और धरती में  

फैल गई हैं जड़ें नीचे तक 

जब सरल हो जाये जीना 

तब मरने का भय नहीं ! 


शुक्रवार, जुलाई 4

ऊपर-नीचे जग है क्रीड़ा

ऊपर-नीचे जग है क्रीड़ा


गहराई में जाकर देखें 

एक धरा से उपजे हैं सब, 

ऊँचाई पर बैठ निहारें 

सूक्ष्म हुए से खो जाते तब !


रहे धरा पर उसको  पीड़ा 

ऊपर-नीचे जग है क्रीड़ा, 

ज्यों निद्रा में सब खो जाये 

स्वप्नों में भी मन बहलाये ! 


लेकिन एक अवस्था चौथी 

जिसमें तीनों एक हुए हैं, 

जगना, सोना, स्वप्न देखना 

तीनों जहां विलीन हुए हैं !


वहीं ठिकाना मिला जिसे गर 

सदा तृप्त, हर्षित हो गाए, 

जुड़ अनंत ऊर्जा से निशदिन 

तीनों में वह आये-जाये !


सोमवार, जून 30

नीलगगन सा जो असीम है

नीलगगन सा जो असीम है


शब्दों से आहत होता मन 

शब्दों की सीमा कब जाने,

शब्द जहाँ तक जा सकते हैं 

मात्र वही स्वयं को जाने ! 


नीलगगन सा जो असीम है 

अंतर का आकाश न देखा, 

दिल को रोका चट्टानों से 

खिंच गयी जिन पर दुख रेखा ! 


एक ऊर्जा हैं अनाम सभी

क्योंकर इतना मोह नाम से, 

नाम-रूप बस छायायें हैं 

बिछड़ गयीं जो परम धाम से !


वैखरी, मध्यमा, पश्यंती  

के पार परावाणी बसती, 

माँ शारदा नित्य महिमा में 

वीणा हाथ में ले  विहँसती ! 


गुरुवार, जून 26

अब कैसी दूरी अंतर में

अब कैसी दूरी अंतर में


जान लिया जब भेद हृदय का 

अब कैसी दूरी अंतर में, 

अंतरिक्ष में ग्रह घूमें ज्यों 

चंद्र-सूर्य अपने अंबर में !


उड़ना चाहें जितना उड़ लें 

भीतर बसा आकाश अनंत, 

 मिलते ही जिससे हो जाता 

हर पीड़ा हर रंज  का अंत !


जीवन इक उपहार अनोखा 

तन, मन, मेधा वाहक जिसके,

श्वास-श्वास में वही गा रहा 

वही छिपा है चेतनता में !


रविवार, जून 22

सपना और संसार

सपना और संसार 

उनकी सांसें आपस में घुल गयी हैं
मन भी हर क्षण जुड़ता है
और अब पकड़ इतनी मजबूत हो गयी है कि
दुनिया की बड़ी से बड़ी तलवार भी इसे काट नहीं सकती
कोई किसी को यूँ ही नहीं सौप देता
अपना आप, अपनी आत्मा
प्यार के अनमोल खजाने को पाकर ही 
अपना सब कुछ खाली कर दिया है
किसी के नाम लिख दिया है मन को
फिर सपने सा क्यों लगता है कभी–कभी संसार
शायद इसलिए कि यहाँ सब कुछ बदलने वाला है

गुरुवार, जून 19

ऊर्जा

ऊर्जा 


ऊर्जा बहुत है, कर्म  कम 

ऊर्जा अहंकार बन जाएगी 

ऊर्जा कम है, कर्म अधिक 

ऊर्जा तनाव बन जाएगी 


ऊर्जा अति है कर्म भी अति 

ऊर्जा संतुष्टि बन जाएगी 

ऊर्जा अनंत है कर्म अति या अल्प

ऊर्जा आनंद बन जाएगी 


अधिक हो धन-दौलत तो 

अभिमानी हो जाता है आदमी 

कम हो धन तो तनाव से भर जाता है 

संपन्नता भी हो और श्रम भी जीवन में 

संतोष से भर जाता है 

किंतु धन बेहिसाब हो फिर भी 

 सदा खुश नहीं रह पाता 

इसलिए ऊर्जा क़ीमती है धन से 

ऊर्जा अर्थात आत्मा 

आत्मा अर्थात परमात्मा 

परमात्मा अर्थात सत्य, प्रेम और शांति !