सोमवार, जून 30

नीलगगन सा जो असीम है

नीलगगन सा जो असीम है


शब्दों से आहत होता मन 

शब्दों की सीमा कब जाने,

शब्द जहाँ तक जा सकते हैं 

मात्र वही स्वयं को जाने ! 


नीलगगन सा जो असीम है 

अंतर का आकाश न देखा, 

दिल को रोका चट्टानों से 

खिंच गयी जिन पर दुख रेखा ! 


एक ऊर्जा हैं अनाम सभी

क्योंकर इतना मोह नाम से, 

नाम-रूप बस छायायें हैं 

बिछड़ गयीं जो परम धाम से !


वैखरी, मध्यमा, पश्यंती  

के पार परावाणी बसती, 

माँ शारदा नित्य महिमा में 

वीणा हाथ में ले  विहँसती ! 


गुरुवार, जून 26

अब कैसी दूरी अंतर में

अब कैसी दूरी अंतर में


जान लिया जब भेद हृदय का 

अब कैसी दूरी अंतर में, 

अंतरिक्ष में ग्रह घूमें ज्यों 

चंद्र-सूर्य अपने अंबर में !


उड़ना चाहें जितना उड़ लें 

भीतर बसा आकाश अनंत, 

 मिलते ही जिससे हो जाता 

हर पीड़ा हर रंज  का अंत !


जीवन इक उपहार अनोखा 

तन, मन, मेधा वाहक जिसके,

श्वास-श्वास में वही गा रहा 

वही छिपा है चेतनता में !


रविवार, जून 22

सपना और संसार

सपना और संसार 

उनकी सांसें आपस में घुल गयी हैं
मन भी हर क्षण जुड़ता है
और अब पकड़ इतनी मजबूत हो गयी है कि
दुनिया की बड़ी से बड़ी तलवार भी इसे काट नहीं सकती
कोई किसी को यूँ ही नहीं सौप देता
अपना आप, अपनी आत्मा
प्यार के अनमोल खजाने को पाकर ही 
अपना सब कुछ खाली कर दिया है
किसी के नाम लिख दिया है मन को
फिर सपने सा क्यों लगता है कभी–कभी संसार
शायद इसलिए कि यहाँ सब कुछ बदलने वाला है

गुरुवार, जून 19

ऊर्जा

ऊर्जा 


ऊर्जा बहुत है, कर्म  कम 

ऊर्जा अहंकार बन जाएगी 

ऊर्जा कम है, कर्म अधिक 

ऊर्जा तनाव बन जाएगी 


ऊर्जा अति है कर्म भी अति 

ऊर्जा संतुष्टि बन जाएगी 

ऊर्जा अनंत है कर्म अति या अल्प

ऊर्जा आनंद बन जाएगी 


अधिक हो धन-दौलत तो 

अभिमानी हो जाता है आदमी 

कम हो धन तो तनाव से भर जाता है 

संपन्नता भी हो और श्रम भी जीवन में 

संतोष से भर जाता है 

किंतु धन बेहिसाब हो फिर भी 

 सदा खुश नहीं रह पाता 

इसलिए ऊर्जा क़ीमती है धन से 

ऊर्जा अर्थात आत्मा 

आत्मा अर्थात परमात्मा 

परमात्मा अर्थात सत्य, प्रेम और शांति ! 


सोमवार, जून 16

कैसे मन की गागर भरती


कैसे मन की गागर भरती


कितने पल ख़ाली बीते हैं 
अक्सर हम यूँ ही रीते हैं, 
भर सकते थे उर उस सुख से 
जिसकी ख़ातिर ही जीते हैं !

किंतु नज़रें सदा अभाव पर 
कैसे मन की गागर भरती, 
भय से छुपे रहे गह्वर  में 
रिमझिम जब धाराएँ झरती !

निज शक्ति पर डाले पहरे 
निज आनंद की खबर नहीं थी, 
पीठ दिखाकर ज्योति पुंज को 
अंधकार की बाँह गही थी !

जाने कैसा मोह व्याप्त है 
ख़ुद से ही मन दूर भागता, 
दुनिया भर की खोज-खबर ले 
पल भर भीतर नहीं झाँकता !

बुधवार, जून 4

अपना सा दर्द




अपना सा दर्द 

फिर वही झूला, वही ढलती हुई शाम है
कई दिनों बाद मिली दिल को फुर्सत, आया आराम है
आसमां चुप है सलेटी सी चादर ओढ़े
पेड़ खामोश है, हवा भी बंद, नहीं कोई धुन छेड़े
एक खलिश सी भीतर कोई अपना बीमार है
दुआ के सिवा दे न सकें कुछ ये हाथ लाचार हैं
लो एक कार की रफ्तार से पत्तों में हरकत आयी
हिल-हिल के जैसे भेज रहे उसे दवाई
जीवन है तभी तक दिल धड़कते हैं
रोते हैं, हँसते हैं साथ बड़े होते हैं
दो हैं कहाँ जो कोई असर हो दिल पे किसी की बात का
दो हैं कहाँ जो दूजा लगे, अपना सा दर्द है जज्बात का
दुःख कहने से जो भीतर कसक उठती है वह अहम है
या कोई आजमाया हुआ वहम है

सोमवार, जून 2

भिगो गई है प्रीत की धारा


भिगो गई है प्रीत की धारा 


दिल की गहराई में बसता 

सत्य एक ही, प्रेम एक ही, 

दिया किसी ने, चखा किसी ने

सुख-समता का स्वाद एक ही !


जैसे जल नदिया का या फिर 

अंबर में बादल बन रहता, 

भाव प्रीत का हर इक दिल में 

कभी बह रहा, कभी बरसता !


उसी चेतना से आयी थी

उसी चेतना को कर पोषित, 

भिगो गई शुभ प्रीत की धारा 

मन-प्राण हुए सबके हर्षित !


शुभ भावना जगी जो भीतर 

प्रसून मैत्री के जो पुष्पित, 

अवसर पाकर मुखर हुए जब

करें ह्रदय को पुन: सुवासित !