हम और वह
दिये सबूत हजारों खुद के होने के 
लाख उपायों से हम नकारे जाते हैं
हजारों नेमतें लुटा रहा वह कब से 
फटे दामन यहाँ हम दिखाए जाते हैं 
युगों से कर रहा इशारों पर इशारे  
 बने अनजान अम्बर निहारे जाते हैं 
 संग लिए जाता है बाँह पकड़ कोई 
हाथ बच्चे की तरह  छुड़ाए जाते हैं 
हर एक पल है नजरे इनायत हम पर 
 पीठ हम बेखुदी में दिखाए जाते हैं 
माना कि मद्धिम है उसकी आहट बहुत 
 सवारी विचारों की निकाले जाते हैं 
है हुकूमत उसी की जर्रे जर्रे पर 
 ‘मैं’ का परचम यूँही उड़ाए  जाते हैं 
  बता सकता था उससे मिलने का सबब 
उस फकीर से  किस्मत पढ़ाये जाते हैं 
सुना है खुद के पार जाकर मिलता है 
खड़े तट पे इसी हम बुलाये जाते हैं 
झीना पर्दा  था दरम्यां, गिरा  देते 
ऊँची दीवारें भी चुनाये जाते हैं 
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज सोमवार 09 दिसम्बर 2019 को साझा की गई है...... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल मंगलवार (10-12-2019) को "नारी का अपकर्ष" (चर्चा अंक-3545) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत बहुत आभार !
हटाएंसुंदर पंक्तियां और भाव
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
हटाएंवाह! शानदार पंक्तियाँ।
जवाब देंहटाएंसुस्वागत !!
हटाएंज़र्रे ज़र्रे पे वो है पर मैं की हकूमत का भ्रम पाले रहते हैं हम ...
जवाब देंहटाएंजीवन के दुखों का यही तो कारण नहीं ... कब जागेंगे हम ... बहुत खूब लिखा है ...
सही कहा है आपने हम जाग कर जब देखेंगे तो उसी की हुकूमत पाएंगे, आभार !
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