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रविवार, नवंबर 7

सुनहरे भविष्य की

सुनहरे भविष्य की 

आशा अमरबेल सी 

जीवन के वृक्ष पर लिपटी है 

अवशोषित करती जीवन का रस 

सदा भविष्य के सपने दिखाती 

जबकि प्रीत की सुवास भीतर सिमटी है 

दिन-रात बजते हैं मंजीरे मन के 

मौन जीवन को

सुने भी तो कैसे कोई

दूजे पर ध्यान सदा 

न निजता को चुने कोई 

खुद में जो बसता है 

वही तो मंज़िल है 

प्रेम कहो शांति कहो 

वह अपना ही दिल है 

यहीं घटे अभी मिले वही वह रब है 

कभी गहा कभी छूटा 

जगत यह सब है !