उस अनंत के द्वार चलें हम
बाहर की इस चकाचौंध में
भरमाया, भटकाया खुद को
काफी दूर निकल आए हैं
अब तो घर को लौट चलें हम !
कुदरत की यह मूक व्यथा है
ठहरो, थमो, जरा तो सोचो,
व्यर्थ झरे सब, सार थाम लो
अब तो कदम संभल रखें हम !
माना मन के नयनों में कुछ
स्वप्न अभी भी करवट लेते,
किस आशा का दामन थामें !
आज अगर जीवन खो दें हम !
जो भव रोग बना हो छूटे
आश्रय मिले मनस गुहवर में,
सीमित हैं साधन जीवन के !
उस अनंत के द्वार चलें हम
लौट चलें हैं दूर वतन से
जाने कब यह शाम घिरेगी,
जिस घर जाना नियति सभी की
उसकी राह न कहीं मिलेगी !
बहुत सुन्दर गीत।
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
हटाएंबहुत ही बढ़िया है
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
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