रविवार, अप्रैल 11

उस अनंत के द्वार चलें हम

 उस अनंत के द्वार चलें हम

बाहर की इस चकाचौंध में   

भरमाया, भटकाया खुद को 

काफी दूर निकल आए हैं

अब तो घर को लौट चलें हम  !


कुदरत की यह मूक व्यथा है 

ठहरो, थमो, जरा तो सोचो, 

व्यर्थ झरे सब, सार थाम लो  

अब तो कदम संभल रखें हम ! 


माना मन के नयनों में कुछ  

स्वप्न अभी भी करवट लेते,  

किस आशा का दामन थामें !

आज अगर जीवन खो दें हम !


जो भव रोग बना हो छूटे 

आश्रय मिले मनस गुहवर  में,

सीमित हैं साधन जीवन के ! 

उस अनंत के द्वार चलें हम


लौट चलें हैं दूर वतन से 

जाने कब यह शाम घिरेगी,

जिस घर जाना नियति सभी की 

उसकी राह न कहीं मिलेगी !



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