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सोमवार, जून 3

अपने आप



अपने आप


सुबह आँख खुलते ही
झलक जाता है संसार भीतर  
कानों में गूँजती है कोयल की कूक
हवा का स्पर्श सहला जाता है गाल को आहिस्ता से
कोई जान रहा है हर बात को बिलकुल उसी तरह
जैसे सागर किनारे खड़ा तकता हो लहरों को !

पेट में हलचल होती है क्षुधा से
तो हाथ कुछ डालते हैं मुख में
सूखे गले को जल का स्पर्श भाता है
हाथ संवार देते हैं बिखरे हुए घर को
कदम चल पड़ते हैं दफ्तर की ओर
कोई जान रहा है हर शै को बिलकुल उसी तरह जैसे
अम्बर तले तकता हो उड़ते हुए बादलों को !

मन सोचता है कभी बीती बातें
कभी सपने सजाता है भविष्य के
योजनायें बनाता और बदलता है
कभी डरता और झुंझलाता है
कोई जान रहा है हर ख्याल को बिलकुल उसी तरह जैसे
माँ देखती है चलना सीखते हुए बच्चे को !

लहरें बनती और बिगड़ती हैं
बादल आते और जाते हैं
बच्चा गिर कर संभलता है
हो रहा है न सब अपने आप
बिना किसी करने वाले के ?