ऐसा है वह गणराया
मौन मुखर हो उठा है उसका
सदियों से जो चुप बैठा है,
इक मुस्कान से उगता सूरज
दूजे से चंदा उगता है !
फूल भी तो कह जाते सब कुछ
मौन टूटता ही रहता है,
नदियाँ, पर्वत, पंछी गाते
गणनायक न कुछ कहता है !
कर्महीन न रहता पल भर
पल-पल नया रचे जाता है,
ढूँढ़ ढूँढ़ मन हुआ अचम्भित
वह अनंत सृजे जाता है !
करुणा का इक सागर भीतर
हर कल्पित सुख हो साकार,
ज्ञान, शब्द से बाहर आकर
क्षण-क्षण लेता है आकार !
क्षितिज बना है उसका अंतर
जल, थल, अनल, अनिल से सजकर
स्वयं ही पूजित स्वयं ही पूजा
स्वयं पुजारी जाता रचकर !
अशना और पिपासा जागे
जब सत्य की मानव उर में,
तभी शुरू होता है सुख का
सफर एक अनुपम जीवन में !