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शनिवार, जुलाई 7

चाह जो उस की जगी तो



चाह जो उस की जगी तो



राह कितनी भी कठिन हो
दूब सी श्यामल बनेगी,
चाह जो उस की जगी तो
उर कली इक दिन खिलेगी !

जल रहा हर कण धरा का
अनुतप्त हैं रवि रश्मियाँ,
एक शीतल परस कोमल
ताप हरता हर पुहुप का  !

लख नहीं पाते नयन जो
किन्तु जो सब देखता है,
जगी बिसरी याद जिसमें
मन वही बस चेतता है !

व्यर्थ न कण भर भी जग में
अर्थ उसमें कौन भरता,
नयन रोते, अधर हँसते
राज जब खुल रहा लगता !

एक कोमल छांव पल-पल
श्वास में आलोक भरती,
बांह थामे आस्था इक
हर कदम पर साथ देती !