चाह जो उस की जगी तो
राह कितनी भी
कठिन हो
दूब सी श्यामल
बनेगी,
चाह जो उस की जगी
तो
उर कली इक दिन
खिलेगी !
जल रहा हर कण धरा
का
अनुतप्त हैं रवि
रश्मियाँ,
एक शीतल परस कोमल
ताप हरता हर
पुहुप का !
लख नहीं पाते नयन
जो
किन्तु जो सब
देखता है,
जगी बिसरी याद
जिसमें
मन वही बस चेतता है
!
व्यर्थ न कण भर
भी जग में
अर्थ उसमें कौन
भरता,
नयन रोते,
अधर हँसते
राज जब खुल रहा
लगता !
एक कोमल छांव
पल-पल
श्वास में आलोक
भरती,
बांह थामे आस्था
इक
हर कदम पर साथ
देती !