हाँ
हाँ, ढगे गये हैं हम बार-बार
छले गये हैं
हुए हैं अपनी ही नादानियों के
शिकार
कभी दुर्बलताओं के अपनी
मृत्यु से डर कर बेचे हैं अपने जमीर
घृणा के भय से सहे हैं अत्याचार
हाँ, हुए हैं कम्पित अनिश्चय
के भय से
सुरक्षा की कीमत पर तजते रहे हैं निज स्वप्नों को
कभी प्रेम के नाम पर कभी शांति के नाम पर
कुचल डाले हैं भीतर खिलते कमल
हर बार जब इम्तहान लेने आई है जिन्दगी
मुँह छिपाए हैं हमने भी
टाला है हर बार अगली बार के लिए
अपनी आजादी के गीत बस
स्वप्नों में गाए हैं
जब मांगी है कीमत किसी ने
नजरें झुका ली हैं हमने भी
पर सुना है.. जब बदल जाते हैं समीकरण
अचानक सब कुछ विपरीत घटने लगता है..