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मंगलवार, अगस्त 13

पीड़ा

पीड़ा 

ऐसी ही तो होती है पीड़ा

जैसे जम गया हो भीतर 

उदासी का एक पर्वत  

अवरोधित हो गयी हो

अविरल धारा 

जो बहा करती थी निर्द्वंद्व !

तरस रहा हो प्रेम का पंछी 

भरने को उड़ान 

क़ैद है शिशु ज्यों 

माँ के गर्भ में

समय से ज़्यादा 

पा रहा है पोषण 

पर तृप्त नहीं  

जन्मना चाहता है 

हवाओं में सांस लेना 

खुली धूप में चलना 

दौड़ना चाहता है 

पाना चाहता है तुष्टि 

प्रकृति के सान्निध्य में !