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सोमवार, अगस्त 5

ओट में पर्दे की बैठे


ओट में पर्दे की बैठे

दिल पे कितना बोझ धारे
चल रहे हम  

कुछ तमन्नाएँ अधूरी
आरजू जो हुई न पूरी
कुछ पूरानी दास्तानें
अनपढ़े से कुछ फसाने 
भीड़ कांधों पर संभाले, बस यूँ ही तो
ढल रहे हम  

बेबसी के पल वे सारे
ढूँढ़ता था मन सहारे
पास होकर दूर हर जन
जिस घड़ी मजबूर था मन
लाश ढोते भूत की, स्वयं को ही
छल रहे हम  

रूह में थी छाप उनकी
खो गयी अब थाप जिनकी
छुपे पर वे सब वहाँ थे 
ओट में पर्दे की बैठे
आ खड़े होते वे सम्मुख, जब जरा सा
जल रहे हम