सोमवार, मार्च 14

बन सकते मानव, महामानव

बन सकते मानव, मानव


प्रेमिल भू निज ओर खींचती
रवि किरणें भी अंक लगातीं,
पवन दौड़ती भरती भीतर   
बदली बन छाया छा जाती  !

खिले कुसुम हँसते ललचाते
कर कलरव खग गीत सुनाते,
लेकिन हम अपनी ही धुन में
देख उन्हें भी देख न पाते !

अपनी लघुता में ही जीते   
मानव भी न रह पाते,
कभी खुशी कभी गम पाकर  
यूँ ही आते यूँ ही जाते !

 बन सकते मानव, मानव
स्वर्ग धरा पर ला सकते,
पायी मेधा, प्रखर मति भी   
हो सजग विवेक वरत सकते !

भाव पूत, अंतर कर निर्मल
कर्म श्रेष्ठ निश्छल मृग छौने,
प्रेम भरे अंतर में अनुपम
जिसके आगे सब सुख बौने !

अनिता निहालानी
१३ मार्च २०११
 

गुरुवार, मार्च 10

पल-पल मधु का सोता भीतर

पल-पल मधु का सोता भीतर

चमचम चमक रहा है दिनकर
वर्तमान का मन अम्बर पर,
ढक लेते अतीत के बादल
भावी का कभी छाता अंधड़ !

झर-झर झरता ही रहता है
 पल-पल मधु का सोता भीतर ,
कभी मूर्च्छा पाहन बनती
मोह कभी बन जाता पत्थर !

सुख की तो इक खान छिपी है
दुःख की इस चट्टान के पीछे,
द्वार बंद कर कर्णों के हम
बस बैठे हैं ऑंखें मींचे !

मन सरवर पर फैली काई
उग नहीं पाते शांति कमल,
गतिमय कर्मशील अंतर में
बहता जाता है जल निर्मल !

खिले हुए हैं पुष्प हजारों
उर उपवन पर छाया पाला,
शिशु सम था जो अंतर पावन
चाह जगी मैला कर डाला !

मुक्त हाथ से बांटे प्रकृति
जीवन में जो भी है सुंदर,
पर जाने क्यों हम जो चुनते
बन जाता है वही असुंदर !

अनिता निहालानी
१० मार्च २०११     

मंगलवार, मार्च 8

विश्व महिला दिवस पर शुभकामनायें !

इस जहाँ में नारियां   

प्रेम सुरभि से धरा के, सकल कण-कण को भिगोतीं
ज्यों हों केसर क्यारियाँ, इस जहाँ में नारियाँ !

कोख में धरती सरिस, स्वप्न संतति का संजोतीं
रोपतीं फुलवारियां, इस जहाँ में नारियाँ !

बालमन को पंख देतीं, स्नेह का साया युवा को
प्रीत की पिचकारियाँ, इस जहाँ में नारियाँ !
छोड़ कर झूठा अहं, संस्कृति को दिशा देतीं
झेलतीं दुश्वारियाँ, इस जहाँ में नारियाँ !

अनिता निहालानी
८ मार्च २०११   





सोमवार, मार्च 7

हर कोई चाहे कुछ होना

हर कोई चाहे कुछ होना

मैं भी ‘कुछ’ हूँ, तुम भी ‘कुछ’ हो
यह भी ‘कुछ’ है, वह भी ‘कुछ’ है,
हर कोई चाहे ‘कुछ’ होना
यही तो है दुनिया का रोना !

‘कुछ कुछ’ जोड़ दिलों को तोड़ा
भानमती ने कुनबा जोड़ा,
तज मूल्यों को माया चाही
 हर्षद, राजा या मधु कोड़ा !

लेकिन ‘कुछ’ भी न हो पाए
व्यर्थ ही सारा श्रम बह जाये,
माया मिले न राम किसी को
मिलने का बस भ्रम रह जाये !

‘कुछ’ होने का जब भ्रम छूटे
शून्य रूप जब अपना जाने,
‘कुछ कुछ’ से ‘सब कुछ’ हो सकता
स्वयं की असलियत पहचाने !

अनिता निहालानी
७ मार्च २०११


  

शुक्रवार, मार्च 4

वसंत

वसंत 

आया वसंत छाई बहार
सज उठी धरा कर नव सिंगार,
बिखरा मद मधुर नेह पाकर
कण-कण महका छाया निखार !

सजते अंतर के दिग-दिगंत
मोह-शीत का हुआ सु-अंत
खिल जाते अनगिन भाव पुष्प
प्रियतम लाता सच्चा वसंत !

मदमस्त हुआ मतवाला मन
गूंजे भ्रमरों की मधु रुन-झुन
बह चली निर्झरी हृदगुह में
भीगा भीगा सा उर उपवन !

बहती मृदुला शीतल पवन
विमल मेघ तिरें शुभ्र गगन
दग्ध हुआ अशुभ अशोभन
वासन्ती ऋतु पावन अगन !

है कसक कोकिल कूक कैसी
ज्यों चाह चातक हूक जैसी
चिर विरह का अंजन लगाये
बस राधिका हो मूक ऐसी !

अनिता निहालानी
 ४ मार्च २०११

गुरुवार, मार्च 3

सुरसरिता गंगा की धारा


सुरसरिता गंगा की धारा

सुरसरिता गंगा की धारा
उतरी नभ से छल-छल कल-कल
तार दिये जाने कितने नर
अनगिन उर कर डाले निर्मल !

बची राख न शेष कालिमा
थी भीतर जो कलुष कामना
धो डाली पुण्य सलिला ने
कहीं दबी जो अशुभ भावना !

उस विराट के पावन नख से
निःसृत हुई जलधार कृपा की
बहा ले गयी सँग दोष सब
मति शारदीय धवल चाँद सी !

धन्य धन्य ओ पावन सरिता
धन्य धन्य ऋषियों की भूमि
कभी जटा से कभी कमंडलु
जग में फैली ज्ञान की उर्मि !

अनिता निहालानी
२ मार्च २०११

मंगलवार, मार्च 1

महाशिवरात्रि के अवसर पर शुभकामनायें



महाशिवरात्रि

ब्रह्मा रचते, विष्णु पालक, हे शिव ! तुम हो संहारक
तीनों देव बसें मानव में तीनों जन-जन उद्धारक !

किन्तु आज शक्ति के मद में, भुला दिये मूल्य मानव ने
स्व-विनाश की करे व्यवस्था, जगह देव की ली दानव ने !

दुरूपयोग सृजन शक्ति का, व्यर्थ आणविक अस्त्र बनाये
पंचतत्व को करता दूषित, अपनी बुद्धि पर इतराए !

पालन करना भूल गया वह, विष्णु को है दिया सुला
असुरों का ही खेल चल रहा, देवत्व को दिया भुला !

हे शिव ! प्रकटो, मृत हो कण-कण नव जीवन पा जाये
सड़ा गला जो भी है बासी, हो पुनर्गठित खिल जाये !

हे काल पुरुष ! हे महाकाल ! हे प्रलयंकर ! हे अभयंकर !
कर दो लीला, जड़ हो चेतन व्यापे विप्लव, हे अग्निधर !

सदियों से जो लगी समाधि, तोड़ नेत्र खोलो अपना   
कल्याणमय हे शिव शम्भु ! परिवर्तन न रहे सपना !  

तुम महादेव ! हे देव देव ! कर तांडव सृष्टि को बदलो
जल जाये लोभ का असुर आज, चेतना अंतर की बदलो !

हे पशुपति ! पशुत्व मिटाओ मानव की गरिमा लौटे
अज्ञान मिटे, अमृत बरसे गुमी हुई महिमा लौटे !

सर्प धर ! हे सोमेश्वर ! प्रकटो हे सौम्य चन्द्रशेखर !
मुंडमाल, जटा धारी, हे त्र्यम्बकम ! हे विश्वेश्वर !

तुम शमशान की राख लपेटे वैरागी भोले बाबा !
हे नीलकंठ ! गंगाधारी ! स्थिर मना, हे सुखदाता !

तुम करो गर्जना आज पुनः, हो जाये महा प्रलय भीषण  
हे बाघम्बर ! डमरू बोले, हो जाये विलय हर एक दूषण !  

शुभ शक्ति जगे यह देश बढ़े सन्मार्ग चलें हर नर-नारी
हे अर्धनारीश्वर ! हे महेश ! हे निराकार ! हे त्रिपुरारी !

धर्म तुम्हारा सुंदर वाहन, नंदी वाहक ! हे रसराज !  
हे अनादि ! अगम ! अगोचर ! काल भैरव ! हे नटराज !

अनिता निहालानी
१ मार्च २०११

सोमवार, फ़रवरी 28

एक और आजादी

एक और आजादी

कौन आजाद हुआ
किसके माथे से गुलामी की स्याही छूटी
दिलों में दर्द है बिगड़ते हालातों का
मादरे हिंद के माथे पे उदासी है वही
खंजर आजाद हैं सीनों में उतरने के लिये
मौत आजाद है लाशों पे गुजरने के लिए !

मगर हर क़ुरबानी 
करीब ले न जाएगी मंजिल के ?
राह दिखाती है उम्मीद यही लाखों को
छूटेगी जमीं से गुलामी की स्याही
शहादत इक दिन तो रंग लाएगी
फिर से खुशियों का परचम फहरेगा  
सिलसिला जीत का जारी हो जारी रहेगा !

होगा आजाद हर शख्स भुखमरी से तब
मिलेगी शिक्षा खुशहाली नजर आयेगी
बेईमान नहीं होंगे शासक अपने
बजेगी बंसी चैनो-अमन की हर तरफ
दुनिया देखेगी चिड़िया एक सोने की
देश बढ़ेगा ध्वजा सत्य की लहराएगी !


अनिता निहालानी
२८ फरवरी २०११




शनिवार, फ़रवरी 26

अनुत्तरित प्रश्न

अनुत्तरित प्रश्न

पंछी तेरा गान सुनूं या उस भोले बालक का क्रन्दन
तेरा सुंदर रूप निहारूं या जिसका उजड़ा वन नन्दन !

एक नहीं अनगिनत प्रश्न हैं झांक रहे उसकी आँखों से
वह क्या है, क्यों है, कब से है उड़ रहा कल्पना पांखों से !

देश की वृहत्त योजनाओं में कहीं भी उसका नाम नहीं
उसको भी संविधान संशोधन से होगा कोई काम नहीं !

शिक्षा में आमूल परिवर्तन या समाजवाद का नारा हो
उसको शिक्षा कहाँ मिलेगी देश जो उसको प्यारा हो !

अनिता निहालानी
२६ फरवरी २०११ 

 

शुक्रवार, फ़रवरी 25

जेपी नहीं रहे

हवा में क्रांति की गंध है, बरसों पूर्व भी एक क्रांति हुई थी
हो सकता है आप में से कुछ लोग किसी न किसी रूप में उस क्रांति से
जुड़े हों, मैंने पुरानी डायरी में यह कविता देखी तो कई यादें पुनः ताजा हो गयीं
श्री जयप्रकाश नारायण जी के देहांत के बाद कॉलेज की एक सभा में इसे पढ़ा था. 

जेपी नहीं रहे

जेपी नहीं रहे !
कहाँ नहीं रहे ? 
पटना की सुगबुगाती गलियों में,
उनके चंद दावेदारों के कब्जे में,
या इन संकीर्ण मनोवृत्ति वाले
तथाकथित जननेताओं की भीड़ में,
यह ठीक ही हुआ कि जेपी वहाँ नहीं रहे !

जेपी यहाँ हैं
जहाँ आशाएं जन्म लेती हैं
उनकी तेजस्वी वाणी के एक एक शब्द से
एक एक नौजवान पैदा होता है,
अपने देश व आदर्शों के लिये !

जेपी यहाँ हैं
मेरे इस मन में
जब जब उनकी उपस्थिति महसूस की है
किसी कलम के माध्यम से,
या किन्हीं नौजवान आँखों के माध्यम से,
भीतर एक ज्वालामुखी उफनते महसूस किया है
नए विचारों, आदर्शों पर
मर मिटने की लहर ने मुझे डुबा लिया है !  

जब जब उनकी विचारयात्रा की सीढ़ियां
उनके कदमों से चलते देखी हैं
महसूस किया है कि  
मेरे सीने में धड़कता हुआ दिल जेपी का है
उतनी ही तेजी, उत्सुकता और अकुलाहट से
भर जाते हैं वे लोग,
जो उनके साथ होकर जीना चाहते थे
उनके साये के नीचे
पर अब वह वृक्ष नहीं रहा !

जेपी नहीं रहे
वह हैं वहाँ, जहाँ आस्थावान, कर्मठ
जीवन क्रांति के फूल बिखेरा करते हैं
मैंने देखा है उन्हें धीमे कदमों से चलते
मगर तेज विचारों से सोचते
जेपी नाम है साहस पुंज का
उस दीपक का
जो बापू जलता हुआ छोड़ गए थे
वह दीपक बुझ कर भी
अपने प्रकाश से सबको प्रकाशित करेगा
वह दीपक अब मेरे मन में जलता है !

अनिता निहालानी

२५ फरवरी २०११  

गुरुवार, फ़रवरी 24

ऐसा है आदमी




ऐसा है आदमी


खुद के बनाये जाल में जकड़ा है आदमी
वरना तो चाँद छू के आया है आदमी !

मंजिल की खोज में तो निकला था कारवां
मुड़ के जो राह देखी तनहा था आदमी !

मकसद सभी का साझा जन्नत बने ये दुनिया
फिर क्यों दीवारें दिल में चुनता है आदमी !

सुबह से शाम तक जो कसमें खुदा की खाए
अनजान ही खुदा से रहता है आदमी !

अनिता निहालानी
२४ फरवरी २०११