बन सकते मानव, मानव
प्रेमिल भू निज ओर खींचती
रवि किरणें भी अंक लगातीं,
पवन दौड़ती भरती भीतर
बदली बन छाया छा जाती !
खिले कुसुम हँसते ललचाते
कर कलरव खग गीत सुनाते,
लेकिन हम अपनी ही धुन में
देख उन्हें भी देख न पाते !
अपनी लघुता में ही जीते
मानव भी न रह पाते,
कभी खुशी कभी गम पाकर
यूँ ही आते यूँ ही जाते !
बन सकते मानव, मानव
स्वर्ग धरा पर ला सकते,
पायी मेधा, प्रखर मति भी
हो सजग विवेक वरत सकते !
भाव पूत, अंतर कर निर्मल
कर्म श्रेष्ठ निश्छल मृग छौने,
प्रेम भरे अंतर में अनुपम
जिसके आगे सब सुख बौने !
अनिता निहालानी
१३ मार्च २०११
प्रेम भरे अंतर में अनुपम
जवाब देंहटाएंजिसके आगे सब सुख बौने
बहुत खूबसूरत भाव लिए हुए सुन्दर रचना ...
अनीता जी,
जवाब देंहटाएंहमेशा की तरह लाजवाब.....इन पक्तियों में गहरा यतार्थ दिखा .....
अपनी लघुता में ही जीते
मानव के मानव रह जाते,
कभी खुशी कभी गम पाकर
यूँ ही आते यूँ ही जाते !
भावपूर्ण रचना!
जवाब देंहटाएंअनिता जी आप की लय प्रधान यह कविता सहज बोध गम्य है| बधाई|
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