प्यास लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
प्यास लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

शुक्रवार, नवंबर 15

प्यास

प्यास 


सब कुछ बेमानी लगता है जब 

कुछ भी समझ नहीं आता 

क्या करना है 

क्यों करना है 

कोई जवाब मन नहीं पाता 

रोज़मर्रा के काम जब अर्थहीन लगते हैं 

कुछ नया है 

पर पकड़ में नहीं आता है 

एक सवाल सा मन में सदा बना रहता है 

जवाब कोई देता हुआ सा नहीं लगता 

एक मौन घेर लेता है जब तब 

चुपचाप बैठ कर उसे सुनने का मन होता है 

शायद उस मौन से ही कोई जवाब आएगा 

बाहर तो कुछ भी आकर्षित नहीं करता 

किसी और लोक में बसता है शायद वह 

जो भीतर ऐसी प्यास भरता है 


रविवार, अप्रैल 16

पलकों में है बंद ख़्वाब इक


पलकों में है बंद ख़्वाब इक 


झर-झर झरता बादल नभ से 

सम्मुख दरिया भी बहता है,

सब कुछ पाकर भी इस दिल का 

प्याला ख़ाली ही रहता है !


जाने किसको ढूँढ रही हैं 

 दिवस-रात्रि स्वप्निल दो आँखें  

जाने कैसे बिगड़ी जातीं  

 बनते-बनते सारी बातें ! 


हर सुख पाया है इस जग का

फिर भी इक कंटक  चुभता है, 

पलकों में है बंद ख़्वाब इक 

अक्सर ही आकर तकता है ! 


पूर्ण नहीं होती यह कैसी 

प्यास जगी है अंतर्मन में, 

जीवन सूना-सूना लगता 

थिरता कब  आयी जीवन में !


कसक न दिल की दूर हुई है 

 कैसे होगी यह भान नहीं, 

सुख-सुविधा के अंबार लगे  

ख़ुद का ही नर को ज्ञान नहीं ! 


बुधवार, अप्रैल 12

एक प्यास जो अंतहीन है


एक प्यास जो अंतहीन है


एक ललक अम्बर  छूने की 

एक लगन उससे मिलने की, 

एक प्यास जो अंतहीन है 

एक आस खुद के खिलने की !


सत्य अनुपम मन गगन समान 

उसमें मुझमें न भेद कोई, 

जल में राह मीन प्यासी क्यों 

खिल जाता वह ठहरा है जो !


पाने की हर बात भरम  है 

जो भी अपना मिला हुआ है, 

बनने की हर आस भुलाती 

हर उर भीतर खिला हुआ है !


भीतर ही विश्राम सिंधु है 

भर लें जिससे दिल की गागर, 

गर उससे तृप्ति नहीं पायी 

परम भेद कब हुआ उजागर !


गुरुवार, अगस्त 19

इक अकुलाहट प्राणों में

इक अकुलाहट प्राणों में

 

इक दुःख की चाहत की है

जो मन को बेसुध कर दे,

कुछ कहने, कुछ ना कहने

दोनों का अंतर भर दे !

 

इक पीड़ा माँगी उर ने

जो भीतर तक छा जाये,

फिर वह सब जो आतुर है ​

आने को बाहर आये !

 

इक बेचैनी सी हर पल

मन में सुगबुग करती हो,

इस रीते अंतर्मन का

कुछ खालीपन भरती हो !

 

इक अकुलाहट प्राणों में

इक प्यास हृदय में जागे,

सीधे सपाट मरुथल में

चंचल हरिणी सी भागे 

 

सोमवार, अप्रैल 26

रहमतें बरसती हैं

 

रहमतें बरसती हैं

करें क़ुबूल सारे गुनाहों को हम अगर

रहमतें बरसती हैं, धुल ही जायेंगे 


हरेक शै अपनी कीमत यहाँ माँगे 

 भला कब तक चुकाने से बच पाएंगे 


 वही खुदा बसता सामने वाले में भी

 खुला यही राज कभी तो पछतायेंगे 


मांग लेंगे करम सभी नादानियों पर 

और अँधेरे में मुँह नहीं छुपायेंगे 


उजाले बिखरे हैं उसकी राहों में 

 यह अवसर भला क्यों चूक जायेंगे 


अपनी ख्वाहिशें परवान चढ़ाते आये 

अब उसी मालिक के तराने गाएंगे 


भूख से ज्यादा मिला प्यास फिर भी न बुझी 

 आखिर कब तक यह मृगतृषा बुझाएंगे 

 

शुक्रवार, दिसंबर 7

अपने जैसा मीत खोजता




अपने जैसा मीत खोजता


ओस कणों से प्यास बुझाते,
जगती के दीवाने देखे,
चकाचौंध पर मिटने वाले
बस नादां परवाने देखे !

जो है, वही उन्हें होना है
अपने जैसा मीत खोजते,
घर है, वहीं उन्हें बसना है
वीरानों में रहे भटकते !

बदल रहा है पल-पल जीवन
जिसमें थिरता कभी न मिलती,
बांट रहा है किरणें सूरज
दिल की लेकिन कली न खिलती !

घुला-मिला सा खारापन ज्यों
तप कर निर्मल नीर त्याग दे,
छुप कर बैठा निजता में ‘पर’
वैरागी वह मिटा राग दे !

 गीत सुरीला गूँज रहा है
कोई चातक श्रवण लगाए,
मतवाला ढूंढें न मिलता
उर में पावन प्रीत जगाए !


रविवार, सितंबर 16

तलाश



तलाश 

जाने किसकी प्रतीक्षा में सोते नहीं नयन
जाने किस घड़ी की आस में
जिए चले जाता है जीवन
शायद वह स्वयं ही प्यास बनकर भीतर प्रकटा है
अपनी ही चाहत में कोई प्राण अटका है
सब होकर भी जब कुछ भी नहीं पास अपने
नहीं लुभाते अब परियों के भी सपने
इस जगत का सारा मायाजाल देख लिया
उस जगत का सारा इंद्रजाल भी चूक गया
मन कहीं नहीं टिका.. अब कौन सा पड़ाव ?
किस वृक्ष की घनी छाँव
कैसे मिलेगा मन का वह भाव
या फिर मन ही खो जाने को है
अब अंतिम सांसे गिनता है
अब यह पीड़ा भी कहनी होगी
जीने से पहले मरने की क्रीड़ा तो सहनी होगी
दिल की गहराई में जो वीणा बजती है
जहाँ से डोर जीवन की बढ़ती है
उस अतल में जाना होगा
असीम निर्जन में स्वयं को ठहराना होगा..
जब कोई तलाश बाकी नहीं रहती
तभी अक्सर खुल जाता है द्वार
जिस अनजाने लोक का...

गुरुवार, जुलाई 6

बन जाता वह खुद ही मस्ती


बन जाता वह खुद ही मस्ती 

मस्ती की है प्यास सभी को
हस्ती की तलाश सभी को

मस्ती जो बिछड़े न मिलकर
हस्ती जो बोले बढ़चढ़ कर

दोनों का पर जोड़ नहीं है
इस सवाल का तोड़ नहीं है

हस्ती मिटे तो मस्ती मिलती
यह सूने अंतर में खिलती

हस्ती तो है एक उसी की
मस्ती जिसके नाम में बसती

मिटा दी जिसने खुद की हस्ती

बन जाता वह खुद ही मस्ती 

शुक्रवार, दिसंबर 12

इक अकुलाहट प्राणों में

इक अकुलाहट प्राणों में


इक दर्द की चाहत की है
जो मन को बेसुध कर दे,
कुछ कहने, कुछ न कहने
दोनों का अंतर भर दे !

इक पीड़ा मांगी उर ने
जो भीतर तक छा जाये,
फिर वह सब जो आतुर
है, आने को बाहर आये !

इक बेचैनी सी हर पल
मन में सुगबुग करती हो,
इस रीते अंतर्मन का
कुछ खालीपन भरती हो !

इक अकुलाहट प्राणों में
इक प्यास हृदय में जागे,
सीधे सपाट मरुथल में
चंचल हरिणी सी भागे !


गुरुवार, नवंबर 13

ग्रीष्म की एक संध्या

ग्रीष्म की एक संध्या



छू रही गालों को शीतल ग्रीष्म की महकी पवन
छा गए अम्बर पे देखो झूमते से श्याम घन 

दिवस की अंतिम किरण भी दूर सोने जा रही
सुरमई संध्या सुहानी कोई कोकिल गा रही

कुछ पलों पहले हरे थे वृक्ष काले अब लगें
बादलों के झुण्ड जाने क्या कथा खुद से कहें 

छू रही बालों को आके कर रही अठखेलियाँ
जाने किसको छू के आयी लिये नव रंगरेलियाँ 

चैन देता है परस और प्यास अंतर में जगाता
दूर बैठ एक चितेरा कूंची नभ पर है चलाता 

झूमते पादप हंसें कलियाँ हवा के संग तन
नाचते पीपल के पत्ते खिलखिला गुड़हल मगन 

गर्मियों की शाम सुंदर प्रीत के सुर से सजी
घास कोमल हरी मानो रेशमी चादर बिछी 

है अँधेरा छा गया अब रात की आहट सुनो
दूर हो दिन की थकन अब नींद में सपने बुनो 

गुरुवार, जुलाई 12

आस एक अनपली रह गयी


आस एक अनपली रह गयी

एक कथा अनकही रह गयी
व्यथा एक अनसुनी रह गयी,
जिसने कहना सुनना चाहा
वाणी उसकी स्वयं सह गयी !

एक प्रश्न था सोया भीतर
एक जश्न भी खोया भीतर,
जिसने उसे जगाना चाहा
निद्रा उसकी स्वयं सो गयी !

एक चेतना व्याकुल करती
एक वेदना आकुल करती,
जिसने उससे बचना चाहा
पीड़ा उसकी सखी हो गयी !

एक प्यास अनबुझी रह गयी
आस एक अनपली रह गयी,
जिसने उसे पोषणा चाहा
अस्मिता भी कहीं खो गयी !

एक पुकार बुलाती थी जो
इक झंकार लुभाती थी जो,
जिसने उससे जुडना चाहा
घुलमिल उससे एक हो गयी !


सोमवार, जून 18

एक रागिनी है मस्ती की


एक रागिनी है मस्ती की

एक ही धुन बजती धड़कन में
एक ही राग बसा कण-कण में,
एक ही मंजिल, एक ही रस्ता
एक ही प्यास शेष जीवन में !

एक ही धुन वह निज हस्ती की
एक रागिनी है मस्ती की,
एक पुकार सुनाई देती
दूर पर्वतों की बस्ती की !

मस्त हुआ जाये ज्यों नदिया
पंछी जैसे उड़ते गाते,
उड़ते मेघा सँग हवा के
बेसुध छौने दौड़ लगाते !

खुले हों जैसे नीलगगन है
उड़ती जैसे मुक्त पवन है,
क्यों दीवारों में कैद रहे मन
परम प्रीत की लगी लगन है !

एक अजब सा खेल चल रहा
लुकाछिपी है खुद की खुद से,
स्वयं ही कहता ढूंढो मुझको
स्वयं ही बंध कर दूर है खुद से !