खोल पंख नव इतराता है
मुक्त हुआ मन खो जाता है
अब वह हाथ कहाँ आता है,
अनथक जो वाचाल बना था
अब चुपचुप सा मुस्काता है !
प्रियतम का जो पता पा गया
अनजाने का संग भा गया,
छू आया अंतिम सीमा जो
खोल पंख नव इतराता है !
भांवर डाली जिसने पी संग
चूनर कोरी दी श्यामल रंग,
किसकी राह तके अब बैठा
गीत मिलन क्षण-क्षण गाता है !
सुधियाँ भी अब कहाँ सताती
चाह दूजे की नहीं रुलाती,
एक लहर उठती मन सागर
बस इक वही नजर आता है !
स्वप्न खो गये दूर गगन में
उड़ी कल्पना कहीं पवन में,
विकसित सरसिज एक अनोखा
उर उपवन को महकाता है !
बहुत सुंदर भाव ....!!
जवाब देंहटाएंआभार आपका-
जवाब देंहटाएंसटीक प्रस्तुति-
बेहतरीन , आभार आपका !!
जवाब देंहटाएंसुन्दर प्रवाहमय गीत ...
जवाब देंहटाएंसुन्दर शब्द चयन अप्रतिम गीतात्मक रचना।
जवाब देंहटाएंमानस में खिले सरोज की सुगंध इन पंक्तियों में समाई हुई है !
जवाब देंहटाएंबेहतरीन
जवाब देंहटाएंवही मन जो दुश्मन लगता था अब परम सखा बन गया .....अति सुन्दर भाव |
जवाब देंहटाएंसही कहा इमरान
हटाएंअनुपमा जी, रविकर जी, सतीश जी, दिगम्बर जी, वीरू भाई, प्रतिभा जी, तथा कुंवर जी आप सभी का स्वागत व आभार !
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