आजकल महानगरों में अक्सर ऐसा होता है कि एक ही शहर में रहने वाले पुत्र-पुत्रियाँ केवल छुट्टी के दिन माता-पिता से मिलने आ पाते हैं। काम का इतना बोझ होता है उन पर कि सुबह से शाम तक कम्प्यूटर की स्क्रीन के आगे बैठना पड़ता है।
रविवार की सुबह सुहानी
लघु फ़्लैट के वातावरण से
खुली हवा में साथ प्रकृति के
दिल खोल विश्राम करो फिर
मुक्त हृदय से दौड़ लगाओ,
रविवार की सुबह सुहानी
बुला रही है घर को आओ !
कर्मयोगी आधुनिक युग के
कह सकते हैं जिन्हें तपस्वी,
न खाने की सुध न निद्रा का
निश्चित रहा समय है कोई !
व्यायामों की बात दूर है
कठिन है सुबह-शाम टहलना,
सब सुख छोड़ नौकरी ख़ातिर
ऑन लाइन नाते निभाना !
आज करो कुछ दिल की बातें
गहराई से ध्यान लगाओ,
लंबी तानो सिट आउट में
या फिर कोई खेल जमाओ !
इतवार की सुबह सुहानी
बुला रही है घर आ जाओ !
एक शर्त है उसे मानना
रख के सारी चिंता आना,
लैप टॉप के साथ ही सारी
डेड लाइन वहीं रख आना !
कुछ घंटे तो अपनी ख़ातिर
जीने के हित आज बचाओ,
घर का बना हुआ भोजन है
लेकर स्वाद मज़े से खाओ !
भानुवार की सुबह सुहानी
बुला रही है घर आ जाओ !
आपकी लिखी रचना सोमवार 12 सितम्बर ,2022 को
जवाब देंहटाएंपांच लिंकों का आनंद पर... साझा की गई है
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
संगीता स्वरूप
बहुत बहुत आभार !
हटाएंइस युग की सच्चाई को बयान करती बहुत सुन्दर कविता।
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार दीदी !
हटाएंबहुत सुंदर!
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार!
हटाएंजी नमस्ते ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार(१२-०९ -२०२२ ) को 'अम्माँ का नेह '(चर्चा अंक -४५५०) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
बहुत बहुत आभार !
हटाएंवाह ,जीवंत चित्रण महानगरों की भागम-भाग भरी जिंदगी का । सार्थक सृजन
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
हटाएंक्या युग आ गया है कि खुद से मिलने के लिए भी स्मरण कराना पड़ता है। अति सुन्दर हाँक!
जवाब देंहटाएंवाकई हम एक नए युग में जी रहे हैं, आभार !
हटाएंसुहानी सुबह देखने की फुरसत कहां लोगों को . सच पूछा जाय तो लाखों कमा रहे ये व्यस्त लोग प्रकृति के अनमोल उपहारों से वंचित अकिंचन ही हैं
जवाब देंहटाएंसही कहा है आपने, भोर का स्वागत व संध्या को दीपबाती दोनों ही भूल गयी है नयी पीढ़ी, आभार !
हटाएंक्या रविवार और क्या सोमवार, सब एक बराबर है आज के दौर में।
जवाब देंहटाएंभाग-दौड़ भरी ज़िंदगी में ख़ुद के लिए भी चार पल निकालना भारी होने लगा है।
बहुत अच्छी टेर लगायी है आपने ।
सादर।
वाक़ई जीवन एक ढर्रे में बंधता जा रहा है आज की पीढ़ी का, आभार!
हटाएंआज के वक्त को बयां करती सुंदर रचना
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार रंजू जी !
हटाएंबढ़िया अभिव्यक्ति, सुझाव !
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
हटाएंव्यायामों की बात दूर है
जवाब देंहटाएंकठिन है सुबह-शाम टहलना,
सब सुख छोड़ नौकरी ख़ातिर
ऑन लाइन नाते निभाना !
बहुत सटीक...
सार्थक एवं लाजवाब सृजन ।
स्वागत व आभार सुधा जी!
हटाएंमैंने दो बार टिप्पणी करी । दिख नहीं रही है ।।
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार संगीता जी, यहाँ कोई फ़िल्टर नहीं है, जैसे ही आप प्रकाशित करती हैं, टिप्पणी आपको दिख जानी चाहिए
हटाएंफिल्टर नहीं है लेकिन आज कल बहुत से ब्लॉग पर टिप्पणियां स्पैम में जा रही हैं । कल की हलचल पर आपकी ये पोस्ट ली थी । उसकी सूचना 2 बार दी गयी और यहाँ एक बार भी नहीं दिख रही । इसी लिए लिखा था । आप कमेंट स्पैम में देखिए ।
जवाब देंहटाएंअब आपकी टिप्पणी दिख रही है
हटाएंठीक है
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर रचना
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